BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Sunday, August 1, 2010

सम्पादकीय:पीछे छूट गये हरेला और काले कौआ….!!

सम्पादकीय:पीछे छूट गये हरेला और काले कौआ….!!

श्रावण संक्रान्ति के दिन पड़ने वाले हरेला पर्व, जब सूर्य कर्क रेखा को उन्मुख होता है, का कुमाऊँ प्रान्तर में बड़ा महत्व है। माना जाता है कि इस ऋतुपर्व के बहाने काश्तकार अपने बीज की गुणवत्ता और मिट्टी की उर्वरा शक्ति की परख करते थे। औपनिवेशिक शासन और आजादी के एक 'अंधे युग' में हम अपने ऋतु पर्वों से विमुख होते गये। बेशक उनका कर्मकाण्ड जिन्दा रहा, लेकिन उनकी मूल भावना तिरोहित हो गई। यही नहीं, अपनी संस्कृति पर गौरव का भाव भी लगातार घटता रहा।

हमें याद है कि अपने बचपन में हम सिर में हरेला सिर्फ घर के भीतर धारण करते थे, नैनीताल जैसे अत्याधुनिक नगर में रहने के कारण हरेला सिर पर रख कर घर से बाहर जाने में संकोच करते थे कि लोग 'गँवई' और 'असभ्य' समझ कर उपहास करेंगे। ऐसी ही शर्म मकर संक्रान्ति की अगली सुबह घुघुतों की माला गले में डाल कर 'काले कौआ, काले कौआ' चिल्लाते हुए पक्षियों को पुकारने में महसूस होती थी। 1994 के विराट राज्य आन्दोलन से जिस तरह आम उत्तराखंडी को 'भनमजुवा' से अलग एक सम्मानजनक छवि मिली तो उम्मीद जगी थी कि नये राज्य में इन लोकपर्वो का महत्व बढ़ेगा। इनका व्यावहारिक उपयोग भी होगा और इन्हें राजकीय स्वीकृति भी मिलेगी। उदाहरणार्थ हरेला औपचारिक रूप से वृक्षारोपण तथा जैव विविधता का पर्व बन जायेगा तो 'काले कौआ' वन्य जीवों और पशु-पक्षियों के प्रति अनुराग का। शिक्षा संस्थानों तथा सरकारी कार्यालयों में उस रोज इसी तरह के आयोजन होंगे। लेकिन इस प्रदेश की दिशा इस तरह गड़बड़ायी कि गुरु तेगबहादुर शहीदी दिवस और रविदास जयन्ती तो प्रदेश की सार्वजनिक छुट्टियों में शामिल हो गये, मगर हरेला और काले कौआ कहीं पीछे छूट गये।

क्या यह गलती अभी भी सुधारी जा सकती है ?

संबंधित लेख....


एक प्रखर व प्रतिभाशाली पत्रकार के जीवन की अतिंम यात्रा

3 जुलाई को मैं दिल्ली के 'गांधी शांति प्रतिष्ठान' में चल रही एक बैठक में था। 5 से 8 मई 2010 तक छत्तीसगढ़ में रायपुर से दंतेवाड़ा तक की गई 'शांति न्याय यात्रा' की समीक्षा के लिये 'आजादी बचाओ आन्दोलन' के डॉ. बनवारी लाल शर्मा ने यह बैठक बुलाई थी। मुद्दा था कि अब क्या हो ? देश को गृहयुद्ध में झुलसने से बचाने के लिये शुरू किये गये इस अभियान को आगे कैसे ले जाया जाये ? बैठक में मौजूद थे 'शांति न्याय यात्रा' में भाग ले चुके राधा बहन, डॉ. वी. एन. शर्मा, नीरज जैन, वी. बी. चन्द्रशेखरन, सिस्टर रेशमी तथा इनके अतिरिक्त डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा, मेधा पाटकर, अरविन्द केजरीवाल, जी.एन. साईंबाबा, प्रो. अजित झा, देवेन्द्र शर्मा आदि।

stop_the_war_by_periculant एक दिन पहले ही माओवादियों के पोलित ब्यूरो सदस्य और प्रवक्ता चेरुकुरी राजकुमार उर्फ आजाद की आंध्र प्रदेश के आदिलाबाद जिले के जोगापुर के जंगलों में पुलिस के साथ मुठभेड़ में मौत हो जाने की खबरें आ चुकी थीं। बैठक में यह बात उभर कर आयी कि आजाद की मृत्यु मुठभेड़ में नहीं हुई, बल्कि उन्हें नागपुर से उठा कर आदिलाबाद के जंगलों में ले जाकर गोली मारी गई। चूँकि स्वामी अग्निवेश विदेश में होने के कारण जल्दबाजी में बुलाई गई इस बैठक में शामिल नहीं हो पाये थे, इसलिये साईबाबा ने 'शांति न्याय यात्रा' के बाद हुई प्रगति का विवरण दिया। उन्होंने बताया कि आजाद शान्ति प्रक्रिया को आगे चलाने को उत्सुक थे। 'शान्ति न्याय वार्ता' के सम्पन्न हो जाने के बाद केन्द्रीय गृह मंत्री पी. चिदम्बरम ने 11 मई को स्वामी अग्निवेश को एक पत्र लिख कर शान्ति के इस प्रयास के लिये धन्यवाद दिया था और '72 घंटे के युद्धविराम' की पेशकश की थी। हालाँकि चिदम्बरम ने यह भी लिखा था कि इस युद्धविराम के लिये तैयारी करनी होगी और माओवादियों को भी हिंसा छोड़ने की बात स्वीकार करनी होगी। यह पत्र आजाद को पहुँचाया गया। 31 मई को उनके द्वारा भेजा गया उत्तर सकारात्मक था। चिदम्बरम की इस पहल से आजाद को लगा होगा कि सरकार अपने इरादे में ईमानदार है और शायद इसीलिये उन्होंने आवश्यक सावधानी बरतने में लापरवाही बरती होगी, जिससे आंध्र पुलिस को उनका अपहरण करने का मौका मिल गया। निश्चित रूप से यह शान्ति प्रक्रिया के लिये बड़ा झटका है।

……हमारी ये बातें चल ही रही थीं कि मुझे ढूँढने भूपेन सिंह (आई.आई.एम.सी. में प्रवक्ता) और विजयवर्द्धन उप्रेती (पिथौरागढ़ में ई.टी.वी. के संवाददाता) वहीं पहुँच गये। वे हेम चन्द्र पांडे की गुमशुदगी को लेकर चिन्तित थे। मैं हेम को नहीं जानता था। एकाध बार भेंट हुई भी होगी तो याद नहीं है। लेकिन उसकी पत्नी बबीता ने कुछ वर्ष पूर्व बाकायदा 'नैनीताल समाचार' के लिये काम किया था और उसका छोटा भाई राजीव भी लगातार 'समाचार' से जुड़ा रहा है। राजीव ने ही पहले दिन फोन पर अपने बड़े भाई के नागपुर के लिये रवाना होने और फिर उसका मोबाइल स्विच ऑफ हो जाने की सूचना दी थी। भूपेन और विजयवर्द्धन चाहते थे कि मैं उस बैठक में शिरकत कर रहे लोगों के माध्यम से हेम का पता लगाने में मदद करूँ। संयोग से साईंबाबा के पास तेलुगू दैनिक 'इनाडु' का उस रोज का अंक था, जिसमें छपे आजाद के साथ के दूसरे शव को भूपेन और विजय ने हेम के रूप में पहचान लिया।

फिर तो माओवाद के समाधान के प्रयास के लिये की जा रही उस बैठक में दुःख, गुस्से और हताशा की लहर फैल गई।

hempandeys-mothers-complaint उसी शाम हमने दिल्ली के प्रेस क्लब के लॉन में एक प्रेस कान्फ्रेंस की, जिसमें डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा, डॉ. बनवारी लाल शर्मा, जी.एन. साईंबाबा और मेरे अतिरिक्त बबीता भी शामिल हुई। हम लोगों ने आजाद की हत्या के कारण पटरी से उतरी शांति प्रक्रिया पर चिन्ता जाहिर करते हुए केन्द्र सरकार से अपना रुख स्पष्ट करने, शांति प्रक्रिया अविलम्ब पुनः शुरू करने तथा आजाद और हेम की हत्या की उच्चस्तरीय जाँच की माँग करते हुए एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की। लेकिन मीडिया का ध्यान अपने पति की हत्या से स्तब्ध और शोकाकुल बबीता पर ही केन्द्रित था। इसे बबीता का असाधारण साहस ही कहा जायेगा कि उसने उस विषम परिस्थिति में भी अपने आप को सम्हाल कर पत्रकारों के टेढ़े-मेढ़े सवालों का अच्छी तरह जवाब दिया। लेकिन यह जान कर कोफ्त हुई कि अगले दिन मीडिया में इस प्रेस कांफ्रेंस का बहुत ही कम कवरेज था और जितना था, उसमें भी नकारात्मक अधिक था। मीडिया का चरित्र भारत में सर्वत्र जन विरोधी है!

5 जुलाई की रात बबीता और राजीव पांडे हैदराबाद पहुँचे। 6 जुलाई को आदिलाबाद जिले के बेलामल्ली नगर के एक अस्पताल में पड़े हेम के शव को लाने से पूर्व इन लोगों ने आंध्र पदेश की गृहमंत्री सबिता इन्दिरा रेड्डी से भेंट कर हेम के पत्रकार होने के प्रमाण प्रतुत किये और इस हत्या की उच्चतरीय जाँच की माँग की। रेड्डी ने इस बारे में कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दिया। न ही उन्होंने हेम के शव को सरकारी व्यय पर दिल्ली पहुँचाने की माँग स्वीकार की। hempandeys-salary-certificate यह खर्च हैदराबाद के कुछ पत्रकारों ने वहन किया। 6 जुलाई को हैदराबाद में दर्जनों पत्रकारों ने हेम के शव के साथ प्रदर्शन किया। उसका शव बशीरबाग के प्रेस क्लब में रखा गया। दिल्ली में हेम का शव स्वामी अग्निवेश की जंतर-मंतर स्थित कोठी में रखा गया। 7 जुलाई को निगमबोध घाट पर उसका अन्तिम संस्कार किये जाने से पूर्व दिल्ली के पत्रकारों ने भी एक शोक सभा की, जिसमें अन्य लोगों के साथ स्वामी अग्निवेश, डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा और अरुंधती रॉय भी शामिल हुए। सभा में वक्ताओं ने हेम की हत्या की कड़े शब्दों में आलोचना की। पहले शव को अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान को दान किये जाने की बात थी, किन्तु संस्थान ने पोस्टमार्टम किये हुए शव को लेने से इन्कार कर दिया।

9 मई की शाम स्वामी अग्निवेश ने गृहमंत्री पी. चिदम्बरम से भेंट कर आजाद और हेम की हत्या की जाँच की माँग की। लेकिन चिदम्बरम ने इसे आंध्र प्रदेश का मामला बतलाते हुए पल्ला झाड़ लिया।

इस तरह एक प्रखर और प्रतिभाशाली पत्रकार, जिसका वामपंथी रुझान स्पष्ट था, के जीवन का अन्तिम अध्याय समाप्त हुआ….

संबंधित लेख....

  • हेम पाण्डे: सच के लिए मरने का उसे अफसोस नहीं हुआ होगा
    उसने मेरी बैठक में टँगे पोस्टर में छपी कविता को पढ़ा - वह मारे जायेंगे ....... जो सच-सच बोलेंगे ...
  • हरेले के तिनड़े के साथ बधाई
    हैलो!.... नैनीताल समाचार और इसे पढ़ने वालो!.... हैप्पी हरेला...। तमाम एस. एम. एस. के जरिये ऐसे ही पह...
  • युद्धं देहि……..उन्होंने कहा था
    बापू साम्प्रदायिक हिंसा की लपटों को बुझाने के लिये जब नोआखाली में नंगे पाँव पदयात्रा कर रहे थे और उग...
  • छत्तीसगढ़ में हुयी शांति-न्याय यात्रा
    देवाषीष प्रसून एक तरफ, वर्षों से शोषित व उत्पीड़ित आदिवासी जनता ने माओवादियों के नेतृत्व में अपने ...
  • अब आशा की किरण देख रहे हैं मल्ला दानपुर के ग्रामीण
    सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा के प्रधान व राष्ट्रीय बंधुआ मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष स्वामी अग्निवेश न...
  • जल विद्युत परियोजनाओं से त्रस्त किसान

    The iron frames used to mold the concrete tunnel shield for covering the inside wall of the tunnel are shown at the 520MW NTPC Tapovan Vishnugad Hydro Power Project, at Joshimath in Uttrakhand on October 03, 2009. उत्तराखंड में बन रही 558 जल-विद्युत परियोजनाओं के बारे में बहुत सारी अफवाहें हैं। सबसे बड़ी अफवाह यह है कि इन परियोजनाओं के लिये सरकार और उसके अफसर निजी कंपनियों से पैसा ले रहे हैं। जल-विद्युत बनाने और बेचने में बहुत अधिक फायदा है, जिसका एक छोटा सा भाग यदि योजना की स्वीकृति पाने के लिए नेता-अफसरों को दिया जाये तो वह फायदे का ही सौदा है। नदी का पानी, जिससे बिजली बनती है, लगातार मुफ्त मिलता रहता है और बिजली बेच कर पैसा आता रहता है। कमाई ही कमाई और खर्च कुछ बहुत अधिक नही। इसलिए निजी कंपनियाँ इन परियोजनाओं को पाने की होड़ में लगी रहती हैं।

    पिछले मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूरी के समय की बहुत सारी कम्पनियों के पते ही फर्जी निकले। तभी पहले पहल अफवाह उड़ी कि योजनाओं के लिये नेता-अफसरों द्वारा धन लिया जा रहा है। इसका एक बड़ा हिस्सा भाजपा के चुनाव-कोष में जा रहा है। ऐसा ही अब नये मुख्यमंत्री के काल में भी कहा जा रहा है। लेकिन नए मुख्यमंत्री के कहने के अनुसार जिन कंपनियों के पास स्वीकृतियाँ हैं, किन्तु सरकार के साथ किया समझौता नहीं है, उनको मान्य नहीं समझा जाएगा। इसका यह अर्थ हुआ कि जिन कंपनियों को खंडूरी सरकार ने स्वीकृति दी थी और कुछ जिन्हें वह बाद में मिली, को जल से बिजली बनाने की आज्ञा नहीं होगी।

    देहरादून में, जहाँ धन का लेन-देन होता है, में सुना जाता है कि कुछ कंपनियाँ जिन्होंने योजना स्वीकृति के लिए नेता-अफसरों को धन दिया था, अपना काम आरम्भ करने को तैयार बैठी हैं। योजना-स्वीकृति हो या न हो। अब देखना यह है कि क्या वे सचमुच काम शुरू करेंगी ? इन योजनाओं के लिए वन विभाग की स्वीकृति भी चाहिए। योजनाओं से लगी भूमि वन विभाग की है। वहाँ सड़क बनाने या और भी कुछ काम करने के लिए वन विभाग की आज्ञा चाहिए। वन विभाग का कहना है कि पहले राज्य सरकार की स्वीकृति दिखाओ। जिसके पास वह नहीं है उसे वन भूमि में काम नहीं करने दिया जाता है।

    सुना है मुख्यमंत्री ने कहा है कि एक मेगावाट तक की छोटी योजनाएँ वे स्थानीय लोगों को देंगे। एक मेगावाट बिजली बनाने पर आरम्भ में दस करोड़ रुपए तक का खर्च आता है। क्या किसी स्थानीय पहाड़ी के पास दस करोड़ रुपया होगा कि वह उसे बिजली बनाने के काम पर लगाएगा ? अंत में यह हो सकता है कि योजना किसी स्थानीय व्यक्ति के नाम पर होगी और धन लगाने वाला उसका असली मालिक बाहर का कोई और होगा।

    इन निर्माणाधीन योजनाओं से पहाड़ी किसानों का बड़ा नुकसान हो रहा है। उनकी जमीनें सड़कें, बाँध-जलाशय, सुरंग तथा कर्मचारी आवास बनाने के लिये ले ली गई हैं। किसानों को जो पैसा मिला वह उसे अपने दैनिक जीवन पर खर्च कर रहे हैं और खेती के बिक जाने पर आमदनी का कोई दूसरा उपाय उनके पास नहीं बचा है। नीचे सुरंगें बनने पर ऊपर गाँवों-बस्तियों के जल स्रोत सूख गए हैं और पीने का पानी नहीं रह गया है। जिन बस्तियों के नीचे सुरंगें बनी हैं, वहाँ भूमि-धँसाव के कारण दरारें पड़ गई हैं और वहाँ के मकान रहने लायक नहीं रह गए हैं। उनके लोग रहने अब कहाँ जाएँगे ? भूमि के लिए मिले मुआवज़े से वे न कहीं और ज़मीन ले पाएँगे और न घर बना सकेंगे!

    मुआवज़ा भी सब जगह एक सा नहीं दिया गया है। उत्तरकाशी के ज्ञानसू, पोखरी, डांग, कसेण, दिलसौड़, जोशियाड़ा आदि गाँवों में किसानों को 2,800 रुपए प्रति नाली (200 वर्ग मीटर) दिया गया, जबकि तपोवन-विष्णुगाड़ योजना के गाँवों में यह एक लाख रुपया प्रति नाली मिला है। यह केवल एक बार मिलने वाला मुआवजा है और उसके बाद, ज़मीन-मकान धँसने या पुनर्वास के लिए कुछ नहीं दिया जाने वाला है। जिसकी भूमि ले ली गई है और जिसका मकान टूटने के कगार पर है वह कहाँ रहने जाएगा ? योजना प्रभावित गाँवों के लोगों को रोज़गार देने का भी प्रावधान नहीं है। यहाँ ग्रामीण इस बात के लिए लड़ रहे हैं कि प्रभावित गाँव के एक परिवार के एक सदस्य को कम्पनी काम दे। अभी सभी कंपनियाँ अधिकतर काम करने वाले बाहर से ही ला रही हैं, जिनमें अधिकतर झारखंड, छत्तीसगढ़ तथा उड़ीसा से हैं।

    संबंधित लेख....

    • जन प्रतिनिधियों द्वारा मँझधार में छोड़ दिये जाने के बावजूद डटे हैं ग्रामीण
      कड़ाके की ठंड के बीच मल्ला दानपुर के ग्रामीण अपना नैसर्गिक हक बचाये रखने के लिये सौंग में खुले आसमान ...
    • पंचेश्वर बाँध के डूब क्षेत्र सरयू घाटी में जन जागरण अभियान
      17 सितम्बर की शाम मैं, शंकर सिंह, लक्ष्मण और वरिष्ठ साथी डॉ. रमेश पंत पव्वाधार कार्यालय पहुँचे। हम स...
    • क्या अब जोशीमठ बच जायेगा ?
      520 मेगावाट की तपोवन- विष्णुगाड़ जल- विद्युत परियोजना कठिनाई में पड़ गई है। यदि यही स्थिति रही तो यह ...
    • पंचेश्वर बाँध: झेलनी ही होगी एक और बड़े विस्थापन की त्रासदी
      कुछ समय पूर्व 'नैनीताल समाचार' ने उत्तराखण्ड की नदियों पर प्रस्तावित छोटे-बड़े बाँधों को काले धब्बे ...
    • भष्टाचार की भेंट चढी़ विष्णगाड़ जल विद्युत परियोजना
      प्रस्तावित 444 मैगावाट की विष्णुगाड़ जल विद्युत परियोजना का उत्तरी अलकनन्दा संघर्ष समिति ने पुरजोर व...
    • जल विद्युत परियोजनाओं से त्रस्त किसान

      The iron frames used to mold the concrete tunnel shield for covering the inside wall of the tunnel are shown at the 520MW NTPC Tapovan Vishnugad Hydro Power Project, at Joshimath in Uttrakhand on October 03, 2009. उत्तराखंड में बन रही 558 जल-विद्युत परियोजनाओं के बारे में बहुत सारी अफवाहें हैं। सबसे बड़ी अफवाह यह है कि इन परियोजनाओं के लिये सरकार और उसके अफसर निजी कंपनियों से पैसा ले रहे हैं। जल-विद्युत बनाने और बेचने में बहुत अधिक फायदा है, जिसका एक छोटा सा भाग यदि योजना की स्वीकृति पाने के लिए नेता-अफसरों को दिया जाये तो वह फायदे का ही सौदा है। नदी का पानी, जिससे बिजली बनती है, लगातार मुफ्त मिलता रहता है और बिजली बेच कर पैसा आता रहता है। कमाई ही कमाई और खर्च कुछ बहुत अधिक नही। इसलिए निजी कंपनियाँ इन परियोजनाओं को पाने की होड़ में लगी रहती हैं।

      पिछले मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूरी के समय की बहुत सारी कम्पनियों के पते ही फर्जी निकले। तभी पहले पहल अफवाह उड़ी कि योजनाओं के लिये नेता-अफसरों द्वारा धन लिया जा रहा है। इसका एक बड़ा हिस्सा भाजपा के चुनाव-कोष में जा रहा है। ऐसा ही अब नये मुख्यमंत्री के काल में भी कहा जा रहा है। लेकिन नए मुख्यमंत्री के कहने के अनुसार जिन कंपनियों के पास स्वीकृतियाँ हैं, किन्तु सरकार के साथ किया समझौता नहीं है, उनको मान्य नहीं समझा जाएगा। इसका यह अर्थ हुआ कि जिन कंपनियों को खंडूरी सरकार ने स्वीकृति दी थी और कुछ जिन्हें वह बाद में मिली, को जल से बिजली बनाने की आज्ञा नहीं होगी।

      देहरादून में, जहाँ धन का लेन-देन होता है, में सुना जाता है कि कुछ कंपनियाँ जिन्होंने योजना स्वीकृति के लिए नेता-अफसरों को धन दिया था, अपना काम आरम्भ करने को तैयार बैठी हैं। योजना-स्वीकृति हो या न हो। अब देखना यह है कि क्या वे सचमुच काम शुरू करेंगी ? इन योजनाओं के लिए वन विभाग की स्वीकृति भी चाहिए। योजनाओं से लगी भूमि वन विभाग की है। वहाँ सड़क बनाने या और भी कुछ काम करने के लिए वन विभाग की आज्ञा चाहिए। वन विभाग का कहना है कि पहले राज्य सरकार की स्वीकृति दिखाओ। जिसके पास वह नहीं है उसे वन भूमि में काम नहीं करने दिया जाता है।

      सुना है मुख्यमंत्री ने कहा है कि एक मेगावाट तक की छोटी योजनाएँ वे स्थानीय लोगों को देंगे। एक मेगावाट बिजली बनाने पर आरम्भ में दस करोड़ रुपए तक का खर्च आता है। क्या किसी स्थानीय पहाड़ी के पास दस करोड़ रुपया होगा कि वह उसे बिजली बनाने के काम पर लगाएगा ? अंत में यह हो सकता है कि योजना किसी स्थानीय व्यक्ति के नाम पर होगी और धन लगाने वाला उसका असली मालिक बाहर का कोई और होगा।

      इन निर्माणाधीन योजनाओं से पहाड़ी किसानों का बड़ा नुकसान हो रहा है। उनकी जमीनें सड़कें, बाँध-जलाशय, सुरंग तथा कर्मचारी आवास बनाने के लिये ले ली गई हैं। किसानों को जो पैसा मिला वह उसे अपने दैनिक जीवन पर खर्च कर रहे हैं और खेती के बिक जाने पर आमदनी का कोई दूसरा उपाय उनके पास नहीं बचा है। नीचे सुरंगें बनने पर ऊपर गाँवों-बस्तियों के जल स्रोत सूख गए हैं और पीने का पानी नहीं रह गया है। जिन बस्तियों के नीचे सुरंगें बनी हैं, वहाँ भूमि-धँसाव के कारण दरारें पड़ गई हैं और वहाँ के मकान रहने लायक नहीं रह गए हैं। उनके लोग रहने अब कहाँ जाएँगे ? भूमि के लिए मिले मुआवज़े से वे न कहीं और ज़मीन ले पाएँगे और न घर बना सकेंगे!

      मुआवज़ा भी सब जगह एक सा नहीं दिया गया है। उत्तरकाशी के ज्ञानसू, पोखरी, डांग, कसेण, दिलसौड़, जोशियाड़ा आदि गाँवों में किसानों को 2,800 रुपए प्रति नाली (200 वर्ग मीटर) दिया गया, जबकि तपोवन-विष्णुगाड़ योजना के गाँवों में यह एक लाख रुपया प्रति नाली मिला है। यह केवल एक बार मिलने वाला मुआवजा है और उसके बाद, ज़मीन-मकान धँसने या पुनर्वास के लिए कुछ नहीं दिया जाने वाला है। जिसकी भूमि ले ली गई है और जिसका मकान टूटने के कगार पर है वह कहाँ रहने जाएगा ? योजना प्रभावित गाँवों के लोगों को रोज़गार देने का भी प्रावधान नहीं है। यहाँ ग्रामीण इस बात के लिए लड़ रहे हैं कि प्रभावित गाँव के एक परिवार के एक सदस्य को कम्पनी काम दे। अभी सभी कंपनियाँ अधिकतर काम करने वाले बाहर से ही ला रही हैं, जिनमें अधिकतर झारखंड, छत्तीसगढ़ तथा उड़ीसा से हैं।

      संबंधित लेख....


हेम पाण्डे: सच के लिए मरने का उसे अफसोस नहीं हुआ होगा

उसने मेरी बैठक में टँगे पोस्टर में छपी कविता को पढ़ा -

वह मारे जायेंगे …….
hempandeys-family जो सच-सच बोलेंगे
कत्ल कर दिये जायेंगे
जो विरोध में बोलेंगे
जो गुन नहीं गायेंगे
मारे जायेंगे
सबसे बड़ा अपराध है इस समय
निहत्थे और निरपराध होना
जो अपराधी नहीं होंगे
मारे जायेंगे

पोस्टर में सत्ता द्वारा मारे गये बहुत से लोगों की फोटो थे….. श्रीदेव सुमन, नागेन्द्र सकलानी। उसने पूछा -सर! ये पोस्टर आपके पास कहाँ से आया ? मैंने कहा पता नहीं, पर इस कविता के साथ आगे अभी बहुत से फोटो चिपकते जायेंगे। वह मुस्कुराया, उस कविता को फिर देखा और थोड़ी देर के लिए खामोश रह गया।

नाजुक स्वास्थ्य के साथ आँख में चश्मा पहिने, पीठ झुकाये और बगल में कोई किताब दबाये हुए यदा-कदा जब वह मेरे घर आता तो लगता था, जैसे कोई विद्यार्थी बिना फीस ट्यूशन पढ़ने आया है। वह किसी बात पर हँ..हँ…हँ…हँ करके विशेष प्रकार की हँसी हँसता और जीभ बाहर निकाल कर अपने खुश्क होंठों को गीला करता रहता था। इस्नोफीलिया के कारण बार-बार नाक में हाथ लगाता था। बालों के कट बदलता रहता…….कभी ऊपर किये हुए, कभी सामान्य। किताबों के प्रति उसे इतना लगाव था कि हर किस्म की किताब पढ़ता था। चाहे वह साहित्य हो या फिर कोई गम्भीर किताब। किताब देख कर वह उस पर झपटता था। पैसे बचा-बचा कर किताबें खरीदता। उसे पढ़ने की कला आती थी। एक रात में दो-दो किताबें निबटा लेता। शेक्सपियर से लेकर उपनिषद् और कार्ल मार्क्स को वह समान रूप से उद्धृत कर सकता था। अपनी अंग्रेजी की कमजोरी को उसने दूर कर लिया था। मुझे भी प्रोत्साहित करता लिखने के लिए। जब उसे मेरी लिखी किताबें 'जिंदगी में कविता' और 'गाँव-गाँव में' मिली तो वह उन्हें यह कह कर ले गया कि वह उन पर 'समयांतर' में समीक्षा लिखेगा। अच्छी फिल्में देखने का उसे शौक था। मानसिक रूप से बहुत मजबूत होने के कारण उसने अपनी शारीरिक कमजोरी को पछाड़ दिया था। दिल्ली में दो महीने उसने अपना इलाज भी कराया था। मैंने जब उससे कहा- बाबा रामदेव के प्राणायाम को क्यों नहीं अपनाते ? क्या पता फायदा हो जाये। तो उसने कहा- हाँ सर, वह करता रहता हूँ। थोड़ा फायदा तो लगता है। अपनी बीमारी से सिर्फ इसलिए परेशान था कि उससे लिखने-पढ़ने में व्यवधान होता है।

उसके पास सटीक तर्क होता था। वह छद्म मार्क्सवादी नहीं कि गाहे-बगाहे वर्ग संघर्ष या अतिरिक्त मूल्य की बात कर लें, मई दिवस मना लें और फिर सब भूल जायें….. हर सही काम में अडंगा डाल कर कहें कि यह गलत है, इससे क्रांति नहीं आने वाली….। वह जनहित में किये जा रहे हर काम को सराहता था और कहता था- कम से कम जनजागरण तो हो रहा है। एक दिन मैंने पूछा- हिंसक क्रांति के बारे में क्या सोचते हो ? कुछ देर तक चुप रह कर वह बोला- कौन हिंसक है वह तो इस बात से तय होगा कि हिंसा शुरू किसने की। जो बचाव में है उसकी हिंसा को कैसे हिंसा कहेंगे ? वह तो 'मरता क्या न करता' वाली स्थिति में है।

a-poster-by-ravikumar उसने महाविद्यालय में चुनाव लड़ा तो एक ग्रुप ने उस पर हिंसक आक्रमण करने की धमकी दी, पर उसने विरोधियों को भी कनविंस कर लिया कि हिंसा कोई समाधान नहीं। वह भले ही चुनाव हार गया, पर विरोधी भी मान गये कि वह साफ, भला और समझदार आदमी है। वह कम्युनिस्टों की धड़ेबाजी को कोसता था और कहता था, ये साम्प्रदायिक ताकतों से बात कर लेंगे, पर आपस में बात करना पसंद नहीं करेंगें…। वह अपने चरित्र में पूरा अहिंसावादी था, एक फूल या पत्ती तोड़ना भी पसंद नहीं करता था। वह किसी को भी गाली देना पसंद नहीं करता था। जब कोई किसी ब्यूरोक्रेट या नेता की आलोचना करता तो कहता- वह तो करेगा ही। यह उसका क्लास करेक्टर है। यह आदमी की बात नहीं व्यवस्था की बात है।

एक बार मैं किसी काम से उसके गाँव देवलथल गया तो पता चला उसकी शादी हो रही है और शाम को गैट-टु-गैदर है। एक ग्रामीण कह रहे थे, ''ये कम्युनिस्ट बनते हैं…… कैसे शादी की ? न पूजा, न रिवाज न रस्म। फिर यह गैट-टु गैदर क्यों ?'' भूख लगी थी तो सोचा कि वहीं खा लिया जाये। वहाँ गया तो देखा कि वही सज्जन डट कर खा रहे हैं। मैंने उनकी बात हेम को बतलाई तो वह हँस कर कहने लगा, -सर! गाँव में ऐसा होता ही रहता है। फिर उसने बतलाया कि कैसे खेत खड़िया खनन से बरबाद हो रहे हैं। लोगों ने अपने बच्चों का भविष्य दाँव पर लगा दिया है।

वह कहता था- जिस नौजवान में सोच होती है, कुछ करने का माद्दा होता है तो वह किसी आदर्श में अपने को बिछा देता है, फिर भले ही वे कम्युनिस्ट कार्यकर्ता हों या आरएसएस के। वे यूज भी होते हैं। अब सवाल यह है कि इस संवेदना की तीव्रता को कौन सी दिशा मिले ?

उसने इकोनॉमिक्स से एम.ए. किया था और एनजीओज पर पी.एच.डी शुरू की थी। मगर पीएचडी का ट्रैंड उसे रास नहीं आया। वह गाँव-गाँव घूमता था। बतलाता था कि कैसे अनुसूचित जातियों में ट्राइबल इंसटिंक्ट है। आज खाओ, कल जो होगा देखा जायेगा वाला….। एक गाँव में आलू से लोग खूब कमाते थे। फिर जम कर खान-पान, मुर्गा-सुर्गा, सिगरेट होता था। जब सब खत्म हो जाता तो बीड़ी के ठुड्डे ढूँढे जाते थे। जरूरी है उन्हें बचत का महत्व समझाना। वह कहता था गाँव तीन चीजों से परेशान हैं। पहला-पटवारी से; दूसरा ब्लॉक व्यवस्था से जो कमीशन बेस्ड है और तीसरा वन विभाग से. ….। गाँव से पलायन हो रहा है, पर कोई भी नेता गाँव से पलायन नहीं करता। उसका एक घर अगर हल्द्वानी में है तो गाँव को लूटने वह गाँव में भी बना रहता है। एनजीओ के बारे में उसका कहना था- ये पूँजीवादी दलाल हैं। स्वजल योजना में गाँव वालों को स्वयं अपने पानी का प्रबंध करना पड़ेगा। उसमें टैन परसेंट गाँव वालों को देना पड़ता है। वह न भी दें तो एनजीओ वाले ही उसे दे देते हैं। उन्हें हर हाल में लाभ है। वह शिक्षा भी गाँव वालों को सौंपेंगे। देखने में यह बड़ा लोकतांत्रिक है, पर इसमें साम्राज्यवाद छिपा है। पहली जरूरत गाँव में लोगों को अपने अधिकार के लिए जगाना है, पर हो उल्टा रहा है। उन्हें करैप्शन की एबीसीडी पढ़ाई जा रही है…….।

इन छुटपुट मुलाकातों के अलावा मुझे उसके बारे में कभी यह नहीं मालूम रहा कि वह कहाँ है, क्या कर रहा है ? बस एक प्यारे इंसान, सच्चे कामरेड के रूप में ही मैं उसे जानता था। मुद्दतें गुजरीं. …. कब उससे अंतिम भेंट हुई, याद नहीं। अब बहुत सालों के बाद जब टीवी में हाथ में घड़ी, हाफ शर्ट पहिने हुए नीचे जमीन पर पुलिस एनकाउंटर में उसे गिरे हुए देखा, तो धक्क रह गया। कुछ कहना नहीं आया। उस पोस्टर पर नजर पड़ी, जिसमें वह कविता थी कि वे सब मारे जायेंगे। मेरी इच्छा हुई कि उसकी फोटो अगर कहीं से मिलती तो उसमें चस्पाँ कर देता।

हर एनकाउंटर की तरह यहाँ भी एक कहानी रची गयी कि उन दो लोगों के साथ पूरे तीन घंटे फायरिंग का एक्सचेंज हुआ और तब वे मारे गये। मुझे यह कल्पना करके ही हँसी आयी कि हेम पांडे ए. के. फोर्टी सेवन लेकर मोर्चा ले रहा है !

….जब उसे उठवा कर गोली मारी गयी होगी तो उसका गला भी सूखा होगा और दिल भी जोर से धड़का होगा। पर इतना यकीन है कि अपने सच के लिए ऐसे मरने का उसे अफसोस नहीं हुआ होगा।

संबंधित लेख....

--
Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/

No comments:

LinkWithin

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...