BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Friday, May 26, 2017

रोजगार नहीं मिलेगा,स्वरोजगार का बंदोबस्त है! लाखों स्वयंसेवक भर्ती किये जा रहे हैं।जो देश के अलग अलग युद्धक्षेत्र में मरने और मारने के लिए तैनात किये जा रहे हैं।यही स्वरोजगार है शायद। अन्यत्र सभी सेक्टर में तो छंटनी और कत्लेआम का माहौल है। पलाश विश्वास

रोजगार नहीं मिलेगा,स्वरोजगार का बंदोबस्त है!

लाखों स्वयंसेवक भर्ती किये जा रहे हैं।जो देश के अलग अलग युद्धक्षेत्र में मरने और मारने के लिए तैनात किये जा रहे हैं।यही स्वरोजगार है शायद।

अन्यत्र सभी सेक्टर में तो छंटनी और कत्लेआम का माहौल है।

पलाश विश्वास

मोदी उत्सव के शुभारंभ पर गोहत्या निषेध लागू करने करने के लिए देशभर में मांसाहार प्रतिबंधित कर दिया गया है।गायों के साथ खेती के लिए पालतू जानवरों कीक बिक्री भी  प्रतिबंधित कर दी गयी है।तो दूसरी ओर युद्धोन्माद का माहौल घना बनाने के लिए अरुणाचल को असम से जोड़ने वाले सबसे लंबे पुल के उद्घाटन को चीन से निबटने की सैनिक तैयारी बतौर पेस किया जा रहा है।

अरुणाचल को लेकर भारत चीन विवाद पुराना है और सड़क संपर्क से अरुणाचल को बाकी भारत से जोड़ने की इस उपलब्धि को चीन के सात युद्ध बतौर प्रचारित करने की राजनाय और राजनीति दोनों समझ से बाहर है।

1962 के भारत चीन युद्ध की पृष्ठभूमि में संसद में नेहरु क बयान को काफी लोग जिम्मेदार मानते हैं।इस सरकारी पार्टीबद्ध राष्ट्रवादी प्रचार से क्या चीन को युद्ध का खुला न्यौता दिया जा रहा है या नहीं,हमारी समझ से बाहर है।यह भी समझ से बाहर है कि संवेदनशील सीमा क्षेत्र में सैन्य तैयारियों का खुलासा करके मीडिया किस तरह का देशप्रेम दिखा रहा है।

सामान्यज्ञान तो यह बताता है कि सुरक्षा संबंधी तैयारियों के बारे में सख्ती के साथ गोपनीयता बरतनी चाहिए।देश की सुरक्षा तैयारियों के राजनीतिक इस्तेमाल को क्या कहा जा सकता है,भक्तमंडली तय कर लें।

मोदी उत्सव की शुरुआत में हालांकि संघ के सिपाहसालार ने ईमानदारी बरतते हुए साफ कर दिया है कि सबको नौकरी देना उनकी सरकार का काम नहीं है।बल्कि राजकाज स्वरोजगार पर है।शाह ने कहा, ''हमने रोजगार को नये आयाम देने की कोशिश की, क्योंकि 125 करोड़ लोगों के देश में हर किसी को रोजगार मुहैया कराना संभव नहीं है। हम स्वरोजगार को बढ़ावा दे रहे हैं और सरकार ने आठ करोड़ लोगाें को स्वरोजगारी बनाया है।

इस स्वरोजगार का मसला क्या है,उनने खुलासा नहीं किया है।

किस सेक्टर में स्वरोजगार मिलना है ,इसकी कोई दिशा कम से कम हम जैसे कम समझ वाले लोगों की समझ के बाहर है।

संघ परिवार के स्वदेशी जागरण मंच को भी यह मामला शायद समझ में नहीं आ रहा है।सबसे ज्यादा चिल्ल पों स्वदेशी जागरण मंच के स्वयंसेवक मचा रहे हैं।हालाकि उन्हें अभी किसी ने राष्ट्रद्रोह का तमगा दिया नहीं है।

खेती में तो किसान और खेतिहर मजदूर खुदकशी कर रहे हैं और खुदरा कारोबार समेत तमाम काम धंधे पर कारपोरेट एकाधिकार है।

युद्ध जैसी परिस्थिति से निपटने के लिए देश सेना के हवाले हैं और संसद और सांसदों को उनसे सवाल पूछने का हक भी छीन लिया गया है।

यूपी में ऐसी ही युद्ध परिस्थिति में कत्ल और बलात्कार के खून के धब्बे मिटाने के लिए अलग प्रचार अभियान चल रहा है और बाकी सचार कंपनियों पर निषेधाज्ञा जारी करके एक चहेती कंपनी के मोबाइल से दंगा भड़काने का पवित्र धर्म कर्म जारी है।रक्षा उत्पादन में भी उसी कंपनी का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है तो तीन साल के राजकाज के हिंदुत्व की आड़ में एक योगी का कारपोेरेट साम्राज्य ग्लोबल हो गया है।

अफसोस है कि यूपी वालों को देश बचा लेने की अपील हमने की थी।

कोलकाता में बैठकर यूपी की जमीनी हालत न जानने की वजह से हम यह गलती कर बैठे।

नोटबंदी के बाद वह चुनाव कब्रिस्तान और श्मशानघाट के मुद्दे पर लड़ा गया है और योगी आदित्यनाथ की ताजपोशी के  चंद दिनों में ही यूपी देश का सबसे बड़ा श्मशान और सबसे बड़ा कब्रिस्तान बी साबित होने लगा है।

जिस हिंदुत्व की सुनामी के दम पर यूपी फतह कर लिया गया,वह हिंदुत्व अब जातियों के महाभारत में तब्दील है और यूपी में जाति युद्ध के हालात कश्मीर के संगीन हालात से कम नहीं है।

जातियों में बंटकर हिंदी आपस में मारकाट करके खुद अपना सफाया कर रहे हैं,हिंदुत्व के एजंडे का यह करतब या करिश्मा भी खूब है।वोट से पहले समरसता और वोट के बाद महाभारत और हस्तिनापुर का साम्राज्यऔर राजकाज ही यूपी की संस्कृति है तो बाकी देश की भी संस्कृति वहीं है।

आत्मध्वंस का राजमार्ग शायद यमुना एक्सप्रेस वे का नया नाम है या फिर गंगा सफाी का मतलब गंगा यमुना के मैदानों में बसी आबादी का सफाया है।

धार्मिक ध्रूवीकरण के तहत हिंदुत्व के नाम पर बंगाल में जो हो रहा है,उसके दृश्य भी सार्वजनिक हैं और बंगाल में भी हाल यूपी जैसे ही हैं।

स्वरोजगार से गोरक्षा का कोई संबंध है या नहीं ,कहा नहीं जा सकता।देश जीतने के लिए भी स्वरोजगार का नया क्षेत्र खुल गया है।

लाखों स्वयंसेवक भर्ती किये जा रहे हैं।जो देश के अलग अलग युद्धक्षेत्र में मरने और मारने के लिए तैनात किये जा रहे हैं।यही स्वरोजगार है शायद।

अन्यत्र सभी सेक्टर में तो छंटनी और कत्लेआम का माहौल है।

नोटबंदी से मुलायम और मायावती के खजाना बेकार करने की रणनीति से यूपी फतह जरुर कर ली गयी,लेकिन उससे कालाधन कितना निकला ,इसका कोई हिसाब नहीं मिला है।

बहरहाल नोटबंदी के बाद असंगठित क्षेत्र में देशभर में नकदी संकट की वजह से लाखों लोग बेरोजगार हो गये और नोटबंदी की मार से उत्पादन इकाइयों और कारोबार जगत को उबरने का मौका अभी नहीं मिला है तो काम खोने वाले लोगों को नौकरी दोबारा मिलने की कोई संभावना नहीं दिखती है।खेती भी चौपट है और किसानों के लिए खुदकशी जिंदगी का दूसरा नाम है।

यह बेरोजगारी,मंदी,भूख,अकाल,भुखमरी,प्राकृतिक आपदाओं और महामारी का डिजिटल इंडिया है।ज्ञान के बदले मोक्ष का रास्ता अब तकनीक है।आगे स्वर्ग है।

संगठित क्षेत्र में अब तक सिर्फ आईटी सेक्टर में कम से कम पचास हजार युवाओं की छंटनी हो चकी है और अगले तीन साल में साढ़े छह लाख युवाओं के हात पांव दक्षता और तकनीक के नाम पर काट लिए जाने की तैयारी है।

अकेली कंपनियों में सिर्प एल एंड टी में 14 हजार लोगों की छंटनी हो गयी है।

एचडीएफसी बैंक में 10 हजार लोग निकाले गये हैं।

बाकी बैंकों में कितने लोग निकाले गये हैं,मार्केटिंग और मीडिया में भी व्यापक छंटनी के तहत कुल कितने लोग निकाले गये हैं और आगे निकाले जायेंगे,यह अंदाजा लगाकर हिसाब जोड़ने का मामला है क्योंकि इस सिलसिले में कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं है।

विदेशी विनिवेश सर्वोच्च स्तर पर है और 2024 तक सेनसेक्स के पूंजी बाजाक केसूचंकांक के एक लाख तक पहुंचने की उम्मीद बतायी जा रही है।

मुनाफा के लिए सात प्रतिशत जीडीपी के मुकाबले एर प्रतिशत रोजगार सृजन का समीकरण हमारे पास है और सभी सेवाओं,सभी सेक्टरों,सभी सराकारी संस्थाओं और उपक्रमों में विनिवेश और निजीकरण के बाद कितना रोजगार बचा रहेगा,इसका हिसाब पढ़े लिखे लोग खुद लगा लें तो बेहतर है।

जाहिर है कि बलि से पहले जैसे बलिप्रदत्त को नशा कराया जाता है, उसीतरह जनसंख्या सफाये के लिए युद्धोन्माद और मजहबी जाति अस्मिता दंगों का यह माहौल तैयार किया जा रहा है ताकि संसादनों,मौकों,समता और न्याय से इस देश की बहुसंख्य आपस में मारकाट करती जनता का सफाया कर दिया जाये।

हमने पहले ही लिखा है कि हमें मानवाधिकार के बारे में चर्चा नहीं करनी चाहिए। धर्मांध देशभक्तों को नागरिक और मनावाधिकार की चर्चा से बहुत तकलीप होती है। हम तो गायों के बराबर हक हकूक मांग रहे हैं।

जितना चाकचौंद इतंजाम गायों को बचाने के लिए हो रहा है,इंसानों और इंसानियत को बचाने किए वैसे ही इंतजाम किये जायें तो बेहतर है।

लेकिन संघ के अश्वमेध अभियान के सिपाहसालार ने साफ साफ कह दिया है कि रोजगार नहीं मिलेगा,स्वरोजगार का बंदोबस्त है।

जाहिर है कि स्वरोजगार संघ परिवार की सेवा से ही संभव है

गौरतलब है कि गाय,बैल के अलावा भैंस से लेकर ऊंट तक खेती के काम में लाये जाते हैं।दूध का मामला साफ नहीं है वरना बकरियां भी नहीं बिकेंगी।बहरहाल मंगलवार को जारी केंद्र सरकार के नोटिफिकेशन में कहा गया है, "ऐसा उपक्रम कीजिए कि जानवर सिर्फ खेती के कामों के लिए लाए जाएं, न कि मारने के लिए।" इसके तहत कई कागजातों का प्रावधान किया है। नए नियम के मुताबिक सौदे से पहले क्रेता और विक्रेता, दोनों को ही अपनी पहचान और मालिकाना हक के दस्‍तावेज सामने रखने होंगे। गाय खरीदने के बाद व्‍यापारी को रसीद की पांच कॉपी बनवाकर उन्‍हें स्‍थानीय राजस्‍व कार्यालय, क्रेता के जिले के एक स्‍थानीय पशु चिकित्‍सक, पशु बाजार कमेटी को देनी होगी। एक-एक कॉपी क्रेता और विक्रेता अपने पास रखेंगे। बता दें कि अधिकतर राज्‍यों में साप्‍ताहिक पशु बाजार लगते हैं।

बहरहाल मीडिया के मुताबिक 26 मई 2017 को देश के तकरीबन 400 अखबारों में पहले पेज विज्ञापन दिया गया है, जो मोदी सरकार के तीन साल की उपलब्धियों से अटा है.

केंद्र सरकार का हर मंत्रालय अपनी बेमिसाल उपलब्धियों के बखान के लिए एक पुस्तिका भी जारी करेगा, जिसमें मोदी काल को यूपीए काल से बेहतर ठहराने की हर संभव कवायद होगी.

टीवी पर रेडियो पर विज्ञापनों की भरमार होगी. इस जश्न को 'मोदी फेस्ट' का नाम दिया गया है जो देश के तकरीबन हर छोटे-बड़े शहर में मनाया जाएगा.

इस फेस्ट की शुरुआत प्रधानमंत्री मोदी 26 मई को असम से करेंगे. 20 दिन चलने वाले इस फेस्ट में मोदी सरकार के तमाम मंत्री, भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री और उनके मंत्री, पार्टी के छोटे-बड़े पदाधिकारी ब्रांड मोदी को अजर-अमर बनाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ेंगे.

पर कम होते रोजगार अवसरों और छटनी की खबरों से इस फेस्ट पर ग्रहण सा लग गया है. प्रधानमंत्री मोदी सालाना एक करोड़ रोजगार देने के वायदे को पूरा करने में अब तक पूरी तरह नाकाम रहे हैं.

देश में रोजगार की दशा और दिशा पर केंद्र सरकार के श्रम मंत्रालय का श्रम ब्यूरो हर तिमाही में सर्वे कर आंकड़े जारी करता है. पिछली कई तिमाहियों में यह आंकड़े बताते हैं कि मोदी सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद देश में रोजगार सृजन लगातार कम हो रहा है.

श्रम ब्यूरो के ताजा सर्वे के अनुसार वर्ष 2015 और 2016 में 1.55 और 2.13 लाख नए रोजगार सृजित हुए जो पिछले आठ का सबसे निचला स्तर है.

मनमोहन सिंह काल के आखिरी सबसे खराब दो सालों यानी 2012 और 2013 में कुल 7.41 लाख नए रोजगार सृजित हुए पर मोदी राज के दो सालों 2015 और 16 में कुल 3.86 लाख रोजगार सृजित हुए हैं. यानी 2.55 लाख रोजगार कम.

यूपीए-2 के शुरू के दो साल यानी 2009 और 2010 में 10.06 और 8.65 लाख नए रोजगार सृजित हुए थे. यदि इसकी तुलना 2015 और 2016 से की जाए तो मोदी राज के इन दो सालों में तकरीबन 74 फीसदी रोजगार के अवसर कम हो गए हैं.

श्रम मंत्रालय का श्रम ब्यूरो ने यह तिमाही सर्वे 2008-09 के वैश्विक संकट के बाद रोजगार पर पड़े प्रभाव के आकलन के लिए 2009 से शुरू किया था.

मोदी सरकार ने इस सर्वे में कई बदलाव किए हैं और सर्वे में शामिल प्रतिष्ठानों की संख्या 10 हजार कर दी है जो पहले तकरीबन दो हजार थे. इस सर्वे में देश के समस्त राज्यों को  शामिल किया गया जो पहले 11 राज्यों तक सीमित था.

पहले इस श्रम सर्वे में यानी 2015 तक आठ सेक्टर शामिल थे-कपड़ा, चमड़ा, ऑटोबोइल्स, रत्न और आभूषण, ट्रांसपोर्ट, आईटी/बीपीओ, हैंडलूम,पॉवरलूम.

2016 में कुछ और सर्विस सेक्टर शामिल किए गये. अब इसमें यह आठ सेक्टर हैं- मैन्यूफैक्चरिंग, कंस्ट्रक्शन, व्यापार, ट्रांसपोर्ट, होटल और रेस्त्रां, आईटी/बीपीओ, शिक्षा और स्वास्थ्य. यूपीए काल में कंस्ट्रक्शन में रिकॉर्ड रोजगार के अवसर पैदा हुए थे, पर तब यह सेक्टर श्रम सर्वे में शामिल नहीं था.

बिजनेस स्टैंडर्ड में श्यामल मजुमदार का यह विश्लेषण जरुर पढ़ लेंः

ऑटोमेशन की वजह से नौकरियां जाने को लेकर हाल में मची उथल-पुथल को समझ पाना थोड़ा मुश्किल है। सभी को पता था कि यह जल्द ही आने वाला है लेकिन जब यह वास्तव में सामने आया तो अधिकतर लोग अचंभित नजर आने लगे। इस साल ऑटोमेशन के चलते सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में नौकरियां गंवाने वाले कर्मचारियों की संख्या उतनी अधिक नहीं है लेकिन भविष्य में यह आंकड़ा काफी परेशानी पैदा करने लायक हो सकता है। अगर कंपनियों और सरकार ने आईटी कर्मचारियों के प्रशिक्षण और कौशल विकास पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया तो स्थिति बिगड़ सकती है। उसके अभाव में बहुतेरे लोगों के लिए रोजगार की संभावनाएं क्षीण नजर आ रही हैं।

कर्मचारी और संगठन दोनों ही तकनीक के मोर्चे पर हो रही तीव्र प्रगति के साथ कदमताल नहीं कर पा रहे हैं। मसलन, कंप्यूटर प्रोसेसर की क्षमता हरेक 18 महीनों में दोगुनी हो जाती है। इसका मतलब है कि प्रोसेसर हरेक पांच साल में 10 गुना अधिक शक्तिशाली हो जाता है। ऐसे में सभी को तकनीकी बेरोजगारी जैसी शब्दावली के लिए तैयार हो जाना चाहिए। इस पर कोई संदेह नहीं है कि तकनीकी प्रगति का कौशल, पारिश्रमिक और नौकरी पर गहरा असर पड़ता है। तीव्र गणना क्षमता वाले सस्ते कंप्यूटरों और बड़ी तेजी से बुद्धिमान हो रहे सॉफ्टवेयर की जुगलबंदी ने मशीनों की क्षमता को उस स्तर तक पहुंचा दिया है जिसे कभी मानव की सीमा से परे समझा जाता था। अब बोले गए शब्दों को समझ पाने, एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद करने और खास पैटर्न को पहचान पाने में भी ये सक्षम हो चुके हैं।

ऐसे में आश्चर्य नहीं है कि अतीत के कॉल सेंटर कर्मचारियों की जगह सवालों के खुद-ब-खुद जवाब देने वाले सिस्टम लेने लगे हैं। कृत्रिम बुद्धिमत्ता या ऑटोमेशन बड़ी तेजी से कारखानों से निकलकर उन क्षेत्रों में भी तेजी से पैठ बना रहा है जो बड़ी संख्या में रोजगार देते रहे हैं। रोजमर्रा का अनुभव बताता है कि तकनीकी बदलाव ने पिछले दो दशकों में किस तरह से कम और मध्यम स्तर की दक्षता वाली नौकरियों का सफाया ही कर दिया। क्या कोई भी कंपनी (एयर इंडिया जैसी को छोड़कर) सचिवों, टाइपिस्टों, टेलीफोन, कंप्यूटर ऑपरेटर और क्लर्कों की भारी-भरकम फौज को बरकरार रख पाई है? इन्फोसिस के प्रबंध निदेशक विशाल सिक्का ऑटोमेशन के चलते चलन से बाहर हो जाने की समस्या के बारे में पिछले कुछ समय से लगातार बोलते रहे हैं। कंपनी की तरफ से शुरू किया गया 'ज़ीरो डिस्टेंस' कार्यक्रम इसी सोच को बयां करता है। ग्राहकों के साथ संपर्क के स्तर पर ही आकार लेने वाले विचारों को फलने-फूलने का मौका देने के लिए यह कार्यक्रम शुरू किया गया है। कंपनी ने अपने कर्मचारियों के भीतर से करीब 300 लोगों की पहचान की है।

सिक्का ने इन्फोसिस के कर्मचारियों को नव वर्ष पर दिए अपने पहले बधाई संदेश में ही गंभीर चेतावनी दी थी। उन्होंने कहा था, 'इस समय तकनीक के क्षेत्र में सबसे बड़ा गतिरोध ऑटोमेशन और कृत्रिम बुद्धिमत्ता के ज्वारीय उफान के चलते आ रहा है जो आसानी से तकनीकी नौकरियों को बेदखल कर सकते हैं। खुद को आगे रखने के लिए जरूरी है कि उन्हें अपने सपनों की दुनिया से बाहर निकलना चाहिए और महज मशीनी तौर पर अपना काम पूरा करने के बजाय उपभोक्ताओं के लिए अधिक मूल्यवान कार्य करने पर ध्यान देना होगा।' सिक्का ने अपने संदेश में कहा था, 'अगर हम संकीर्ण जगह में ही सिमटे रह गए, केवल लागत पर ही ध्यान देते रहे और कोई समस्या आने पर प्रतिक्रिया में ही समाधान तलाशते रहे तो हम बच नहीं पाएंगे।' अब ज्यादा चर्चा बड़े डाटा और डाटा विश्लेषण की हो रही है जिसके चलते परंपरागत आईटी पेशेवरों और प्रबंधकों के सामने अपनी क्षमता का विस्तार करने या फिर नौकरी गंवाने की चुनौती खड़ी होने लगी है। अब यह पूरी तरह साफ हो चुका है कि हमारी दुनिया का डिजिटल रूपांतरण हो जाने से परंपरागत आईटी सेवा उद्योग गंभीर खतरे में आ चुका है।

ब्रिटेन के ऑक्सफर्ड मार्टिन स्कूल के कार्ल बेनेडिक्ट फ्रे और माइकल ए ऑजबर्न ने 'द फ्यूचर ऑफ एम्प्लॉयमेंट' शीर्षक से जारी अपनी रिपोर्ट में कहा है कि अमेरिका में इस समय उपलब्ध नौकरियों में से करीब आधी नौकरियां अगले दो दशकों में ऑटोमेशन की वजह से खत्म हो जाएंगी। रिपोर्ट के अनुसार, 'हमारा अनुमान है कि अमेरिका के कुल रोजगार का 47 फीसदी हिस्सा ऑटोमेशन के चलते गहरे खतरे में होगा। इसका मतलब है कि अनुषंगी कारोबार भी अगले एक या दो दशकों में ऑटोमेशन की जद में आ जाएंगे।' उद्योगों में लगे रोबोट विवेक और निपुणता बढऩे से अब पहले से अधिक उन्नत होते जा रहे हैं। वे रोजमर्रा से अलग हटकर भी विस्तृत मानवीय गतिविधियों को अंजाम देने में सक्षम होंगे। तकनीकी क्षमता के लिहाज से देखें तो उत्पादन कार्यों में बड़े पैमाने पर लगे लोगों की नौकरी अगले एक दशक में लुप्त होने की आशंका है।

लेकिन मुद्दा यह है कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता या ऑटोमेशन को रोका नहीं जा सकता है क्योंकि इससे कंपनियों को आकर्षक रिटर्न मिलता है और जो काम इंसान नहीं कर सकते हैं उन्हें भी इसके जरिये बखूबी अंजाम दिया जा सकता है। जैसे, बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप का आकलन है कि अमेरिका में एक वेल्डिंग कर्मचारी पर प्रति घंटे लागत रोबोटिक वेल्डर की तुलना में तिगुनी होती है। ऐसी स्थिति में कंपनियां उन्हीं लोगों को काम पर रखेंगी जिनके पास ऊंचे दर्जे के काम अंजाम देने की क्षमता होगी। भारत जैसे देश के लिए तो यह मामला और भी अधिक गंभीर है जहां एक करोड़ से भी अधिक लोग हर साल रोजगार की दौड़ में शामिल हो जाते हैं। सार्थक काम की बात छोड़ दीजिए, जब लोग अपनी नौकरी ही नहीं बचा पाएंगे तो उससे काफी गंभीर सामाजिक समस्याएं खड़ी हो सकती हैं। ऐसे में नौकरी की चाह रखने वालों के लिए अपनी काबिलियत बढ़ाने और नए सिरे से कौशल बढ़ाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।

 

 


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