BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Monday, January 25, 2016

रोहित वेमुला की संस्थानिक हत्या से उपजे कुछ अहम सवाल जिनका जवाब जाति-उन्मूलन के लिए ज़रूरी है!

   

Satya Narayan
January 25 at 9:59pm

 

रोहित वेमुला की संस्थानिक हत्या से उपजे कुछ अहम सवाल जिनका जवाब जाति-उन्मूलन के लिए ज़रूरी है! 

साथियो, 

हैदराबाद विश्वविद्यालय के मेधावी शोधार्थी और प्रगतिशील कार्यकर्ता रोहित चक्रवर्थी वेमुला की संस्थानिक हत्या ने पूरे देश में छात्रों-युवाओं के बीच एक ज़बर्दस्त उथल-पुथल पैदा की है। देश के तमाम विश्वविद्यालयों, शैक्षणिक संस्थानों और शहरों में छात्रों-युवाओं से लेकर आम नागरिक तक रोहित वेमुला के लिए इंसाफ़ की ख़ातिर सड़कों पर उतर रहे हैं। जैसा कि हमें पता है रोहित वेमुला अम्बेडकर छात्र संघ से जुड़े एक छात्र कार्यकर्ता और शोधार्थी थे जिन्होंने 18 जनवरी को आत्महत्या कर ली थी। मगर यह आत्महत्या नहीं एक हत्या थी जिसमें न तो लहू का सुराग मिलता है और न ही हत्यारे का निशान। 

रोहित को किसने मारा? 

रोहित और उसके साथी हैदराबाद विश्वविद्यालय के कैम्पस में संघी गुण्डों और फ़ासीवादियों के विरुद्ध लगातार सक्रिय थे। उन्होंने जनभावनाओं को तुष्ट किये जाने के नाम पर तमाम तथाकथित आतंकवादियों को फाँसी की सज़ाएँ सुनाने, बीफ़ बैन का विरोध करने, साम्प्रदायिक फासीवादी भगवा गिरोह का पर्दाफ़ाश करने वाली फिल्म 'मुज़फ्फरनगर बाकी है' का प्रदर्शन करने से लेकर जातिवादी उत्पीड़न के विरुद्ध कैम्पस में सक्रिय तमाम उच्चजाति वर्चस्वादी और फासीवादी ताक़तों की लगातार मुख़ालफ़त की थी और वे इन ताक़तों के ख़िलाफ़ एक चुनौती बन गये थे। नतीजतन, संघी छात्र संगठन के एक कार्यकर्ता की झूठी शिकायत का संज्ञान लेते हुए एक केन्द्रीय मन्त्री बण्डारू दत्तात्रेय ने मानव संसाधन मन्त्री स्मृति ईरानी को इस मसले पर कार्रवाई करने के लिए पत्र लिखा। इसके बाद, मानव संसाधन मन्त्रलय की ओर से हैदराबाद विश्वविद्यालय को पाँच पत्र भेजे गये जिसमें कि रोहित वेमुला और उसके कुछ साथियों को विश्वविद्यालय से निकालने के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन पर दबाव डाला गया था। जुलाई 2015 से ही रोहित की नेट फेलोशिप कुछ आधिकारिक समस्याओं का बहाना बनाकर रोके रखी गयी थी। रोहित वेमुला एक मज़दूर-वर्गीय परिवार से आता था और उसके परिवार के ख़र्च का बड़ा हिस्सा उसकी फेलोशिप से आता था। ऐसे में समझा जा सकता है कि रोहित पर किस किस्म का आर्थिक दबाव पैदा किया गया था। इसके बाद रोहित और उसके साथियों को छात्रवास से निकाल दिया गया और विश्वविद्यालय से निष्कासित कर दिया गया। उन्हें विश्वविद्यालय के सार्वजनिक स्थानों से प्रतिबन्धित तक कर दिया गया। इस कदर निशाना बनाये जाने और उत्पीड़न का शिकार होने के चलते रोहित लम्बे समय से अवसादग्रस्त हो गया और विज्ञान, प्रकृति और तारों की दुनिया के अन्वेषण के अपने खूबसूरत सपनों के साथ उसने अन्ततः आत्महत्या कर ली। अब भाजपा की सरकार इस बात का हवाला दे रही है कि रोहित के आत्महत्या से पहले लिखे गये नोट में उसने सरकार को दोषी नहीं ठहराया है! मगर सभी जानते हैं कि रोहित ने पहले ही उत्पीड़न से तंग आकर विश्वविद्यालय प्रशासन को लिखे गये एक पत्र में सभी दलित छात्रों के लिए रस्सी और ज़हर की माँग की थी। ग़ौरतलब है कि हैदराबाद विश्वविद्यालय में पिछले एक दशक में नौ दलित छात्र आत्महत्या कर चुके हैं और पूरे देश के उच्च शिक्षा संस्थानों की बात करें तो लगभग 18 दलित छात्र 2007 से अब तक आत्महत्या कर चुके हैं। यह भी ग़ौरतलब है कि इनमें से लगभग सभी छात्र मेहनतकश घरों या निम्नमध्यवर्गीय ग़रीब परिवारों से आते थे। हैदराबाद विश्वविद्यालय में ऐसे छात्रों के साथ शोध गाइड देने में देरी करने या अक्षमता ज़ाहिर करने से लेकर छोटे-बड़े सभी शैक्षणिक कार्यों में आनाकानी करने का काम विश्वविद्यालय प्रशासन करता रहा है। छात्रों के बीच भी दलित छात्रों के साथ एक अनकहा पार्थक्य मौजूद रहता है। ऐसे में कोई भी व्यक्ति समझ सकता है कि रोहित सरीखे तेज़-तर्रार और संवेदनशील छात्र के 'मस्तिष्क और शरीर के बीच' दूरी क्यों और कैसे पैदा हुई थी। रोहित एक ऐसी व्यवस्था और एक ऐसे समाज में मौजूद एक संवेदनशील, विद्रोही और ज़हीन नौजवान था जिस समाज में 'हर व्यक्ति को उसकी तात्कालिक पहचान, एक वोट, एक वस्तु' तक सीमित कर दिया जाता है; जिसमें इंसान की पहचान उसके दिमाग़ और उसकी सोच से नहीं बल्कि उसकी जाति और अमीरी-ग़रीबी के पैमाने पर होती है; जिसमें एक ऐसी सरकार का शासन मौजूद है जो लोगों के खान-पान, उनके धर्म और उनकी जाति को आधार बनाकर उनके विरुद्ध बर्बर उन्माद फैलाती है और कारपोरेट घरानों की दलाली में ग़रीब और दलित व आदिवासी जनता, स्त्रियों व अल्पसंख्यकों के हर प्रकार के आर्थिक शोषण और सामाजिक उत्पीड़न का आधार तैयार करती है; जिसमें विज्ञान की कांग्रेस में गल्पकथाएँ सुनायी जाती हैं और कोई कुछ नहीं बोलता और जिसमें इसरो के प्रमुख रह चुके वैज्ञानिक संघी बर्बरों के मंच से फासीवादी सैल्यूट मारते हैं! रोहित ने इसके ख़िलाफ़ एक प्रतिबद्ध लड़ाई की शुरुआत की। मगर पहले एक संसदीय वामपंथी पार्टी के छात्र संगठन में और बाद में एक अम्बेडरवादी छात्र संगठन में भी अपने आपको तमाम दोस्तों की मदद और लगाव के बावजूद अकेला पाया। एक ऐसी व्यवस्था और समाज में रोहित वेमुला जैसे संवेदनशील, इंसाफ़पसन्द और ज़हीन नौजवान ने अपने आपको पाया जिसमें उसे अपना जन्म ही एक 'भयंकर दुर्घटना' लगने लगी। और अन्ततः उसने ज़िन्दगी की बजाय मौत में सुकून की तलाश की। रोहित वेमुला की इस बेसुराग हत्या ने पूरी व्यवस्था पर एक सवालिया निशान खड़ा कर दिया है और यही सवालिया निशान आज तमाम छात्रों-युवाओं को देश भर में उद्वेलित कर रहा है। लेकिन एक पूरी सरकार और उसकी भारी-भरकम मशीनरी रोहित वेमुला और उसके साथियों जैसे आम छात्रों के पीछे इस कदर हाथ धोकर क्यों पड़ गयी थी? आख़िर रोहित का गुनाह क्या था? 

रोहित और उसके साथियों का गुनाह क्या था? 

रोहित और उसके साथियों का सबसे बड़ा गुनाह यह था-उन्होंने देश में सत्ताधारी बन चुके साम्प्रदायिक फासीवादी गिरोह के विरुद्ध हैदराबाद विश्वविद्यालय में न सिर्फ़ आवाज़ उठायी थी बल्कि छात्रों को गोलबन्द और संगठित भी किया था। फासीवाद की तमाम ख़ासियतों में से एक ख़ासियत यह होती है कि वह किसी भी किस्म के राजनीतिक विरोध को बर्दाश्त नहीं कर सकता। यही कारण है कि एफटीआईआई के छात्रों की जायज़ माँगों को कुचला गया, सन्दीप पाण्डेय नामक गाँधीवादी शिक्षक को नक्सली और राष्ट्रद्रोही होने का आरोप लगाकर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से निकाल दिया गया, सिद्धार्थ वरदराजन को इलाहाबाद विश्वविद्यालय में व्याख्यान नहीं देने दिया गया, अरुंधति रॉय को एक राजनीतिक कैदी के अधिकारों की वकालत करने के संवैधानिक काम के लिए भी निशाना बनाया जा रहा है। और यही कारण है कि रोहित और उसके साथियों को पिछले कई माह से हैदराबाद विश्वविद्यालय प्रशासन सीधे केन्द्र सरकार के इशारों पर तरह-तरह से उत्पीड़ित कर रहा है। रोहित और उसके साथी संघी गुण्डों के लिए एक चुनौती बन गये थे। यह सबसे बड़ा कारण है कि रोहित और उसके साथियों के पीछे समूची सरकार इस कदर पड़ी हुई है। 

रोहित और उसके साथियों को इस कदर निशाना बनाया जाने का दूसरा कारण यह है कि दलित होने के कारण वे पहले से ही समाज के अरक्षित व कमज़ोर तबके से आते हैं और उन्हें इतने नंगे तौर पर और अनैतिक तरह से सरकार द्वारा निशाना बनाया जाना आसान है। यहाँ यह भी ग़ौरतलब है कि रोहित एक मेहनतकश परिवार से ताल्लुक रखता था। यह भी उसकी अवस्थिति को और ज़्यादा अरक्षित बनाता था। मौजूदा फासीवादी सरकार हर प्रकार के राजनीतिक विरोध को बर्बरता के साथ कुचल रही है, चाहे वह सीधे सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल करे या फिर अपने अनौपचारिक गुण्डा वाहिनियों का। लेकिन उनके लिए मुसलमानों व अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों और विशेष तौर पर ग़रीब दलितों को निशाना बनाना अपेक्षाकृत आसान होता है। अख़लाक और बीफ खाने या आपूर्ति करने के झूठे आरोपों के ज़रिये तमाम धार्मिक अल्पसंख्यकों की हत्या इसी बात की ओर इशारा करती है। और रोहित की संस्थानिक हत्या भी इसी चीज़ को पुष्ट करती है। स्पष्ट है कि मौजूदा फासीवादी सरकार के लिए विशेष तौर पर और अन्य लुटेरी सरकारों के लिए आम तौर पर दलित तबके 'सॉफ्ट टारगेट' होते हैं क्योंकि वे पहले से ही समाज के अरक्षित तबके से आते हैं। समाज में मौजूद जातिगत भेदभाव और पूर्वाग्रह व ब्राह्मणवादी पदानुक्रम व श्रेष्ठता की विचारधारा का पिछड़ी जातियों व एक हद तक दलित जातियों तक में प्रभाव इस बात को सुनिश्चित करता है कि ग़रीब दलितों की हत्याएँ बिना किसी सज़ा के डर के की जा सकती हैं। बथानी टोला, लक्ष्मणपुर बाथे, खैरलांजी, मिर्चपुर, गोहाना, भगाणा काण्ड तक क्या इस तथ्य की गवाही नहीं देते? आर्थिक शोषण और सामाजिक उत्पीड़न यहाँ आकर आपस में गुंथ जाते हैं और दोनों ही एक-दूसरे को बढ़ावा देते हैं। जो लोग ऐसा समझते हैं कि आर्थिक शोषण और सामाजिक उत्पीड़न दो अलग चीज़ें हैं और इनके समाधान के लिए दो अलग विचारधाराओं की ज़रूरत है, वे न तो आर्थिक शोषण को समझते हैं और न ही सामाजिक उत्पीड़न को। और न ही वे यह समझते हैं कि ऐसे किसी भी सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन का प्रोजेक्ट प्रथमतः एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण की माँग करता है न कि परस्पर विपरीत या असंगत विचारधाराओं के प्रैग्मेटिक मिश्रण अथवा समन्वय की। 

रोहित वेमुला का गुनाह यह था कि उसने एक दलित होकर, एक अरक्षित व कमज़ोर तबके से आकर उच्च शिक्षा के एक संस्थान में अपनी मेधा का लोहा ही नहीं मनवाया बल्कि तमाम धनिकवर्गीय फासीवादी व ब्राह्मणवादी वर्चस्ववादी ताक़तों का विरोध किया और इन ताकतों के एक लिए एक चुनौती बन गया। रोहित की आत्महत्या एक विद्रोह थी, सम्भवतः हताश विद्रोह, मगर फिर भी एक विद्रोह और इस रूप में रोहित ने अपनी मौत की बाद भी व्यवस्था को चुनौती देना बन्द नहीं किया है। 

रोहित के लिए इंसाफ़ की लड़ाई के अस्मितावादी नज़रिये की सीमाएँ और सही नज़रिये का सवाल 

रोहित वेमुला के लिए न्याय का संघर्ष पूरे देश के कैम्पसों और शहरों में जारी है। हैदराबाद विश्वविद्यालय में हमारे सात साथी पिछले लगभग दस दिनों से अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठे हैं। देश भर में लगातार प्रदर्शन और धरने हो रहे हैं। स्मृति ईरानी से इस्तीफ़े की माँग की जा रही है जो कि कतई जायज़ है। साथ ही हैदराबाद विश्वविद्यालय के वीसी को बर्खास्‍त किये जाने की न्यायपूर्ण माँग भी उठायी जा रही है। लेकिन साथ ही इस लड़ाई में कुछ समस्याएँ भी हमारे सामने मौजूद हैं जिनको दूर न किया गया तो दक्षिणपंथी फासीवादी ब्राह्मणवादी ताक़तें ही मज़बूत होंगी। 

रोहित के ही शब्दों में उसकी शख्सियत, सोच और संघर्ष को उसकी तात्कालिक अस्मिता तक अपचयित नहीं किया जाना चाहिए। सिर्फ़ इसलिए नहीं कि रोहित इसके ख़िलाफ़ था, बल्कि इसलिए कि यह अन्ततः जाति उन्मूलन की लड़ाई को भयंकर नुकसान पहुँचाता है। हम आज रोहित के लिए इंसाफ़ की जो लड़ाई लड़ रहे हैं और रोहित और उसके साथी हैदराबाद विश्वविद्यालय में फासीवादी ब्राह्मणवादी ताक़तों के विरुद्ध जो लड़ाई लड़ते रहे हैं वह एक राजनीतिक और विचारधारात्मक संघर्ष है। यह अस्मिताओं का संघर्ष न तो है और न ही इसे बनाया जाना चाहिए। अस्मिता की ज़मीन पर खड़े होकर यह लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती है। इसका फ़ायदा किस प्रकार मौजूदा मोदी सरकार उठा रही है इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि अब भाजपा व संघ गिरोह हैदराबाद विश्वविद्यालय के संघी छात्र संगठन के उस छात्र की जातिगत पहचान को लेकर गोलबन्दी कर रहे हैं, जिसकी झूठी शिकायत पर रोहित और उसके साथियों को निशाना बनाया गया। स्मृति ईरानी ने यह बयान दिया है कि उस बेचारे (!) छात्र को इसलिए निशाना बनाया जा रहा है क्योंकि वह ओबीसी है! और इस प्रकार प्रगतिशील ताक़तों की ओर से दलित अस्मिता में इस राजनीतिक संघर्ष को अपचयित (रिड्यूस) कर देने का जवाब फासीवादी गिरोह ओबीसी की जातिगत पहचान का इस्तेमाल करके कर रहा है। वास्तव में, ओबीसी तो अम्बेडकरवादी राजनीति के अनुसार दलित जातियों की मित्र जातियाँ हैं और इन दोनों को मिलाकर ही 'बहुजन समाज' का निर्माण होता है। मगर देश में जातिगत उत्पीड़न की घटनाओं पर करीबी नज़र रखने वाला कोई व्यक्ति आपको बता सकता है कि पिछले कई दशकों से हरियाणा से लेकर महाराष्ट्र और आन्ध्र से लेकर तमिलनाडु तक ग़रीब और मेहनतकश दलित जातियों की प्रमुख उत्पीड़क जातियाँ ओबीसी जातियों में आने वाली तमाम धनिक किसान जातियाँ हैं। शूद्र जातियों और दलित जातियों की पहचान के आधार पर एकता करने की बात आज किस रूप में लागू होती है? क्या आज देश के किसी भी हिस्से में-उत्तर प्रदेश में, हरियाणा में, बिहार में, महाराष्ट्र में, आन्ध्र में, तेलंगाना में, कर्नाटक या तमिलनाडु में-जातिगत अस्मितावादी आधार पर तथाकथित 'बहुजन समाज' की एकता की बात करने का कोई अर्थ बनता है? यह सोचने का सवाल है।

जाति का सच हमारे समाज में का एक प्रमुख सच है। जातिगत उत्पीड़न को महज़ सामाजिक उत्पीड़न समझना बहुत बड़ी भूल है। इसे केवल सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्य-मान्यताओं के जगत और हिन्दू धर्म तक अपचयित कर देना एक बड़ी भूल है। जातिगत उत्पीड़न आज आर्थिक शोषण को अतिशोषण में तब्दील करने के एक बड़े औज़ार का काम करता है। और आर्थिक शोषण और लूट भी पलटकर जातिगत उत्पीड़न के बर्बरतम रूपों को जन्म देते हैं। हाल ही में, हरियाणा, पंजाब और राजस्थान में हुए बर्बर दलित-विरोधी उत्पीड़न व हत्याओं की घटनाओं में यह साफ़ तौर पर देखा जा सकता है। यही कारण है कि एक मुनाफ़ाखोर व्यवस्था जो कि मेहनतकश आबादी की मेहनत और साथ ही कुदरत की लूट पर आधारित है, उसके दायरे के भीतर जाति उन्मूलन की लड़ाई और आदिवासियों के संघर्ष किसी मुकम्मिल मुकाम तक नहीं पहुँच सकते हैं। साथ ही यह भी सच है कि आज ही से और तत्काल जाति-उन्मूलन के राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक संघर्ष की शुरुआत किये बिना, एक शक्तिशाली जाति-विरोधी सांस्कृतिक आन्दोलन की नींव रखे बिना, और अन्धविश्वास, कूपमण्डूकता, धार्मिक रूढ़ियों के विरुद्ध आज ही समझौताविहीन संघर्ष किये बिना, आम मेहनतकश वर्गों की ऐसी कोई क्रान्तिकारी एकता बन ही नहीं सकती है जिसके ज़रिये विचारधारा, राजनीति और समाज के क्रान्तिकारी रूपान्तरण की लड़ाई को आगे बढ़ाया जा सके। यह भी सच है कि पूँजीवादी चुनावी राजनीति में जातिवाद और ब्राह्मणवाद शासक वर्गों को अपने बीच लूट के बँटवारे हेतु गोलबन्दी करने और उससे भी ज़्यादा पहले से ही जातिगत पूर्वाग्रहों की शिकार मेहनतकश आम जनता को जातियों के आधार पर और भी ज़्यादा विभाजित कर देने और तोड़ देने का एक ज़बर्दस्त उपकरण देती है। इसलिए भी पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर जाति का उन्मूलन सम्भव नहीं है। साथ ही यह भी समझना ज़रूरी है कि जाति-विरोधी जुझारू और मेहनतकश वर्गों पर आधारित आन्दोलन आज से ही खड़ा किये बिना पूँजीवादी व्यवस्था के ध्वंस के लिए ज़रूरी वर्ग एकता बना पाना ही मुश्किल है। आज जहाँ धार्मिक रूढ़ियों, मूल्यों-मान्यताओं, अन्धविश्वासों और ब्राह्मणवादी वर्चस्ववाद के विरुद्ध कठोर संघर्ष की दरकार है वहीं इस संघर्ष को समूची शोषक-उत्पीड़क राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक व्यवस्था का ध्वंस करने के संघर्ष के एक अंग के तौर पर देखने और साथ ही उसे इसका अंग बनाने की ज़रूरत है। 

जो लोग समझते हैं कि क्रमिक आर्थिक व राजनीतिक सुधारों के रास्ते से दलित उत्पीड़न व जाति की समस्या का समाधान हो सकता है, उन्हें एक बार अतीत का पुनरावलोकन भी करना चाहिए और सोचना चाहिए कि संवैधानिक सुधारों और ऐसे सामाजिक आन्दोलनों से अब तक क्या हासिल हुआ है, जो कि जाति उन्मूलन की लड़ाई को व्यवस्था और राज्यसत्ता के विरुद्ध राजनीतिक संघर्ष से अलग करके देखते हैं? साथ ही, जो लोग यह समझते हैं कि जाति के उन्मूलन (सामाजिक उत्पीड़न के क्षेत्र) के लिए कोई एक विचारधारा होनी चाहिए और आर्थिक और व्यवस्थागत परिवर्तन के लिए कोई दूसरी क्रान्तिकारी विचारधारा उन्हें भी यह समझने की ज़रूरत है कि हमारे समाज में जातिगत उत्पीड़न का एक वर्गगत पहलू है। जहाँ जातिगत उत्पीड़न वर्ग सम्बन्धों से पूर्णतः स्वायत्त रूप में दिखता है, उसके ख़ात्मे के लिए भी जाति उन्मूलन की लड़ाई को वर्ग संघर्ष का अंग बनाना होगा। अलग से महज़ अस्मिता की ज़मीन पर, धार्मिक सुधार या धर्मान्तरण की ज़मीन पर खड़े होकर, राजनीतिक सत्ता के क्रान्तिकारी संघर्ष से विलग जाति-विरोधी सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलन की ज़मीन पर खड़े होकर जाति-उन्मूलन सम्भव ही नहीं है। 

यही कारण है कि रोहित वेमुला के संघर्ष को भी आगे बढ़ाने के लिए हमें अस्मितावादी राजनीति का परित्याग करना होगा। क्या इस अस्मितावादी राजनीति का पहले ही हम भारी नुकसान नहीं उठा चुके हैं? क्या इस अस्मितावादी राजनीति ने पहले ही फासीवादी और ब्राह्मणवादी वर्चस्ववाद की राजनीति को काफ़ी ईंधन नहीं प्रदान किया है? हम आग्रहपूर्वक कहेंगे कि हमें रोहित के संघर्ष को सही दिशा में आगे बढ़ाने के लिए इन सवालों पर संजीदगी से सोचने की ज़रूरत है। जाति-उन्मूलन की समूची परियोजना को वर्ग संघर्ष और क्रान्तिकारी रूपान्तरण की परियोजना का अंग बनाने की आज पहले हमेशा से ज़्यादा दरकार है। इस काम को अंजाम देने में भारत का क्रान्तिकारी आन्दोलन मूलतः असफल रहा है और अस्मितावादी राजनीति के पनपने और पाँव पसारने में मुख्य रूप से यह असफलता ज़िम्मेदार रही है। इस नाकामयाबी को दूर करने का इससे मुफ़ीद वक़्त और कोई नहीं हो सकता है और रोहित वेमुला को भी हमारी सच्ची क्रान्तिकारी श्रद्धांजलि यही हो सकती है। 

जाति-धर्म के झगड़े छोड़ो! सही लड़ाई से नाता जोड़ो! 

अन्धकार का युग बीतेगा! जो लड़ेगा वह जीतेगा! 

जाति व्यवस्था का नाश हो! पूँजीवाद का नाश हो! 

अखिल भारतीय जाति-विरोधी मंच 

दिशा छात्र संगठन/यूनीवर्सिटी कम्युनिटी फॉर डेमोक्रेसी एण्ड इक्वॉलिटी 

नौजवान भारत सभा 

सम्पर्कः मुम्‍बई – 9619039793, 9764594057 दिल्‍ली – 9873358124, 9289498250 हरियाणा – 8010156365, 8685030984 
https://naujavanbharatsabha.wordpress.com/2016/01/25/pamphlet-rohit-vemula/
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