BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Tuesday, September 1, 2015

अजा व अजजा को पदोन्नति के साथ वरिष्ठता छीनने वाले 1995 के निर्णय को सुप्रीम कोर्ट ने फिर दोहराया


अजा व अजजा को पदोन्नति के साथ वरिष्ठता छीनने वाले 1995 के निर्णय को सुप्रीम कोर्ट ने फिर दोहराया
अजा व अजजा को पदोन्नति के साथ वरिष्ठता छीनने
वाले 1995 के निर्णय को सुप्रीम कोर्ट ने फिर दोहराया!
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डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'-राष्ट्रीय प्रमुख
हक रक्षक दल सामाजिक संगठन-9875066111

ओबीसी को आरक्षण प्रदान करने से सम्बन्धित सुप्रीम कोर्ट के चर्चित प्रकरण 'इन्द्रा शाहनी बनाम भारत संघ, एआईआर 1993 एससी 477' में सुप्रीम कोर्ट द्वारा बिना किसी पक्ष को सुने, बिना किसी पक्ष की चाहत के और बिना किसी आवेदन के एक तरफा निर्णय सुना दिया कि अजा एवं अजजा के लोक सेवकों को पदोन्नति में आरक्षण नहीं मिलेगा। इन्द्रा शाहनी मामले में दूसरी बात यह कही गयी कि सरकारी नौकरियों में आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 फीसदी से अधिक नहीं होगी। इन्द्रा शाहनी मामले के विरुद्ध देशभर के अजा एवं अजजा संगठनों अखिल भारतीय परिसंघ (लेखक इस परिसंघ का राष्ट्रीय महासचिव रहकर आन्दोलन में भागीदार रहा है) ने राष्ट्रव्यापी आन्दोलन छेड़ दिया।

मजबूर होकर 1995 में संसद ने में 77वां संविधान संशोधन करके नया अनुच्छेद 16क जोड़कर संविधान में स्पष्ट व्यवस्था कर दी कि अजा एवं अजजा के लोक सेवकों को पदोन्नति में भी आरक्षण प्रदान किया जा सकेगा। इसके अलावा सन् 2000 में संविधान में 81वां संशोधन करके नया अनुच्छेद 16ख जोड़ा गया, जिसमें व्यवस्था की गयी कि आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 फीसदी में पिछले सालों की बकाया आरक्षित रिक्तियों को नहीं गिना जायेगा।

कुछ ही समय बाद आरक्षण विरोधियों की ओर से सुप्रीम कोर्ट का सहारा लिया गया और 'अजीत सिंह बनाम पंजाब राज्य, एआईआर 1999 एससी 347' मामले में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की पीठ ने सर्वसम्मति से निर्णय सुनाया था कि-

1. अनुच्छेद 16क कोई मूल अधिकार प्रदान नहीं करता है।
2. आरक्षण कोटे के अन्तर्गत चयनित लोक सेवक, सामान्य कोटे में चयनित लोक सेवक के ऊपर अधिकार के रूप में अपनी वरिष्ठता का दावा नहीं कर सकते। और
3. अजा एवं अजजा के लोक सेवकों को नियुक्ति/पदोन्नति प्रदान करते समय प्रशासन में कार्यकुशलता बनाये रखने पर भी ध्यान देना परम आवश्यक है।

इस निर्णय का दुष्परिणाम यह हुआ कि अजा व अजजा के जो लोक सेवक नियुक्ति के समय अनारक्षित वर्गों के लोक सेवकों से वरिष्ठता सूची में तो कनिष्ठ थे, लेकिन उच्च श्रेणी में आरक्षित वर्ग की रिक्तियों में पहले पदोन्नति प्राप्त करके उनके वरिष्ठ और उनके बॉस बन चुके थे, वे पदोन्नत पद पर बाद में पदोन्नत होने वाले अनारक्षित वर्ग के लोक सेवकों से वरिष्ठ होकर भी कनिष्ठ माने गये।

दूसरा दुष्प्रभाव यह हुआ कि प्रशासन को अधिकार मिल गया कि वह प्रशासन में कार्य कुशलता बनाये रखने के बहाने आरक्षित वर्ग के लोक सेवकों को अयोग्य मानते हुए पदोन्नति प्रदान करे या नहीं करे। इसके कारण देशभर में फिर से हाहाकार मच गया और फिर से आन्दोलन किया गया।

सरकार फिर से झुकी और संसद ने संविधान में फिर से निम्न संशोधन किये-
2000 में 82वां संविधान संशोधन करके के अनुच्छेद 335 में व्यवस्था की गयी कि आरक्षित वर्गों को नौकरियों में प्रतिनिधित्व प्रदान करते समय प्रशासन में कार्य कुशलता बनाये रखने पर ध्यान नहीं दिये बिना अर्हक योग्यताओं में छूट प्रदान की जा सकेगी।

सन 2001 में संविधान में 85वां संशोधन करके के 77वें संशोध्न के जरिये जोड़े गये अनुच्छेद 16क को फिर से संशोधित करके स्पष्ट किया गया कि अजा एवं अजजा के लोक सेवकों को वरिष्ठता सहित पदोन्नति प्रदान की व्यवस्था होगी जो 77वें संविधान संशोधन की तारीख 17.06.1995 से ही लागू मानी जायेगी। जिसका साफ अर्थ यह हुआ कि 77वें संविधान संशोधन में ही वरिष्ठता सहित पदोन्नति प्रदान करने का संवैधानिक प्रावधान अनुच्छेद 16क में कर दिया गया।

इसके बाद उपरोक्त सभी संशोधनों को 'एम नागराजन बनाम भारत संघ, 2006' के मामले में सुप्रीम कोर्ट समक्ष चुनौती देते हुए कहा गया कि संसद द्वारा ऐसे संशोधन नहीं किये ही जा सकते हैं। तो सुप्रीम कोर्ट ने कुछ शर्तों के आधार पर सभी संशोधनों को सही ठहराया, क्योंकि संविधान में सुप्रीम कोर्ट संसद के अधिकार से ऊपर नहीं है।

'अजीत सिंह बनाम पंजाब राज्य, एआईआर 1999 एससी 347' मामले में सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षित वर्गों को वरिष्ठता सहित पदोन्नति प्रदान करने का जो अधिकार निरस्त किया था, उसको निरस्त करने के लिये किये गये उपरोक्त संविधान संशोधनों के उपरान्त भी आरक्षण विरोधी मानसिकता के लोग चुप नहीं बैठे और सुप्रीम कोर्ट में फिर से मामला पेश किया गया।
'एस पन्नीर सेलवम बनाम तमिलनाडू राज्य' मामले में 27.08.15 को सुप्रीम कोर्ट फरमाता है कि आरक्षित वर्गों के लोक सेवकों को पदोन्नति के साथ वरिष्ठता अपने आप नहीं मिल जाती है। इसके लिये सरकार को कानून बनाना होगा। कोर्ट ने कहा है कि वरिष्ठता कर्मचारी के कैरियर में बहुत महत्वपूर्ण होती है। अत: वरिष्ठता के सिद्धांत तर्कसंगत और निष्पक्ष होने चाहिए। आरक्षण पाना मौलिक अधिकार नहीं है, बल्कि ये एक सकारात्मक प्रावधान है। (जबकि इन्द्रा शाहनी प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट की फुल बैंच आरक्षण को मूल अधिकार मान चुकी है) यदि सरकार को लगता है कि किसी वर्ग का सही प्रतिनिधित्व नहीं है तो वह आरक्षण का प्रावधान कर सकती है, लेकिन पदोन्नति पाने पर स्वत: ही परिणामी वरिष्ठता नहीं मिल सकती है। अगर सरकारी नीति और कानून में इसका प्रावधान नहीं है तो पदोन्नति पाने वाले लोक सेवक को परिणामी वरिष्ठता नहीं मिलेगी।

अर्थात् आज की तारीख में आरक्षित वर्गों के लोक सेवकों को उच्च पदों पर मिलने वाली वरिष्ठता एक झटके में समाप्त की जा चुकी है। अब वही स्थित फिर से हो चुकी है जो 77वें और 85वें संविधान संशोधन से पहले थी। अर्थात् 2015 में जो सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आया है, इससे हम बीस साल पहले की अर्थात् 17.06.1995 की स्थिति में पहुंच गये हैं। अब निकट भविष्य में बहुत जल्दी ही अजा एवं अजजा के लोक सेवकों की वरिष्ठता का फिर से पुनर्निधारण किया जाना शुरू होने वाला है। यदि हम अभी भी नहीं जागे तो आरक्षित वर्गों के लोक सेवकों का भविष्य निश्‍चित ही बर्बाद समझो। वर्तमान सरकारी मिजाज के रहते आने वाले समय में ऐसे अनेक और भी निर्णय आने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है।

सुप्रीम कोर्ट के वर्तमान निर्णय को समझने के लिये मुझे पुराने सभी निर्णयों का उल्लेख करना जरूरी हो गया। जिससे कि मामला एक आम और कानूनी ज्ञान नहीं रखने वाले पाठक की समझ में आसानी से आ सके कि-आरक्षण को लेकर भारत देश की न्यायपालिका का दृष्टिकोण क्या है?
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