BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Thursday, August 27, 2015

ब्रिटिश शासन का भारत पर प्रभाव -राम पुनियानी

27 अगस्त 2015

ब्रिटिश शासन का भारत पर प्रभाव

-राम पुनियानी

इंग्लैंड के आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में औपनिवेशिक काल विषय पर आयोजित एक परिचर्चा में दिया गया शशि थरूर का भाषण कुछ समय तक सोशल मीडिया में वायरल हो गया था। अपने भाषण में थरूर ने ब्रिटिश सरकार से यह ज़ोरदार मांग की कि वह, ब्रिटिश शासनकाल में भारतीय अर्थव्यवस्था की हुई क्षति की प्रतिपूर्ति करे। उन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था की बर्बादी के लिए अंग्रेजों को दोषी ठहराया और जलियांवाला बाग व बंगाल के अकाल का उदाहरण देते हुए कहा कि ये दोनों त्रासदियां अपने उपनिवेश के प्रति ब्रिटेन के दृष्टिकोण को प्रतिबिंबित करती हैं। थरूर ने कहा कि अंग्रेजों ने भारत के संसाधनों का इस्तेमाल, ब्रिटेन को आर्थिक रूप से समृद्ध बनाने के लिए किया और वहां की औद्योगिक क्रांति के लिए धन भी भारत से ही जुटाया गया।

सन् 2005 में, डॉ. मनमोहन सिंह ने इसके ठीक विपरीत मत व्यक्त किया था। ब्रिटिश सरकार के मेहमान की हैसियत से वहां बोलते हुए उन्होंने ब्रिटिश शासन के उजले पक्ष के बारे में कई बातें कहीं और कानून के राज, संवैधानिक शासन व्यवस्था और स्वतंत्र प्रेस को ब्रिटिश राज की स्वतंत्र भारत को विरासत बताया।

इन दोनों धुरविरोधी मतों में से कौन-सा सही है? या फिर, सच इनके बीच में कहीं है। इन दोनों कांग्रेस नेताओं के भाषणों के संदर्भ, लहज़े और कथ्य में ज़मीन-आसमान का फर्क है। डॉ. सिंह, ब्रिटिश सरकार के मेहमान थे और एक आदर्श मेहमान की तरह, उन्होंने स्वाधीन भारत के निर्माण में ब्रिटिश शासन के योगदान की सराहना की। उनकी बातों में अंशतः सत्यता है। दूसरी ओर, थरूर ने एक भारतीय नागरिक बतौर, अंग्रेजों द्वारा भारत को लूटे जाने को याद किया और यह बताया कि ब्रिटिश शासन के कारण देश को कितना नुकसान हुआ। ये दोनों मत, ब्रिटिश शासन के दो विभिन्न पहलुओं की ओर संकेत करते हैं। जो कुछ थरूर ने कहा, वह अंग्रेजों का मूल लक्ष्य था और जो डॉ. सिंह ने कहा, वह ब्रिटिश शासन द्वारा अनजाने में भारत को पहुंचाए गए लाभों का वर्णन है। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी, अपने औद्योगिक उत्पादों के लिए बाज़ार की तलाश में भारत आई थी। बाद में उसने एक-एक करके देश के लगभग सभी राजाओं को पराजित कर दिया और पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर अपना शासन स्थापित कर लिया। भारत, ब्रिटेन के उपनिवेशों का सरताज बन गया क्योंकि भारत में प्रचुर मात्रा में कच्चा माल और अन्य संसाधन उपलब्ध थे और ब्रिटेन को समृद्ध बनाने के लिए, इनका जमकर दोहन किया जाने लगा। भारत को वे बेहतर ढंग से लूट सकें, इसलिए अंग्रेज़ों ने यहां रेलवे लाईने डालीं, संचार का नेटवर्क-जिसमें डाक, टेलिग्राफ व टेलिफोन शामिल था-स्थापित किया और आधुनिक प्रशासनिक व्यवस्था की नींव रखी। उन्होंने भारत में आधुनिक शिक्षा का प्रसार भी किया ताकि अंग्रेज़ अधिकारियों को काबिल सहायक मिल सकें।

ब्रिटेन का मूल और एकमात्र लक्ष्य भारत को लूटकर इंग्लैंड को धनी बनाना था और कानून का शासन व नई संस्थाओं की स्थापना इस प्रयास के सहउत्पाद थे। बाद में अंग्रेज़ों ने भारत की कुछ भयावह सामाजिक कुप्रथाओं का उन्मूलन करने का प्रयास भी किया, जिनमें सतिप्रथा शामिल थी। सिंह और थरूर एक ही परिघटना को अलग-अलग कोणों से देख रहे थे। एक तीसरा कोण वह था, जिससे अंग्रेज़, भारत पर अपने शासन को देखते थे। उनका मानना था कि उनका मिशन ''पूर्वी देशों'' को सभ्य बनाना है। इस दावे में कोई दम नहीं है। हां, यह अवश्य है कि ब्रिटेन ने भारत में समाजसुधार की प्रक्रिया को प्रोत्साहित किया।

परंतु ये तीनों दृष्टिकोण ब्रिटिश शासन के सबसे खतरनाक दुष्परिणाम को नज़रअंदाज़ करते हैं, जिसका भारत के सामाजिक-राजनैतिक परिदृश्य पर गंभीर व गहरा असर पड़ा। वह था औपनिवेशिक-साम्राज्यवादी शासकों द्वारा देश में फूट डालो और राज करो की नीति के बीज बोए जाना। इस नीति को उन्होंने पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में लागू किया। सन् 1857 के विद्रोह ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन की चूलें हिला दीं। इस विद्रोह में हिंदुओं और मुसलमानों ने कंधे से कंधा मिलाकर भाग लिया था। अंग्रेज़ों की समझ में यह आ गया कि अगर उन्हें भारत में अपने शासन को स्थायित्व देना है तो उन्हें हिंदुओं और मुसलमानों के बीच खाई खोदनी होगी। इसके लिए उन्होंने इतिहास का सांप्रदायिक दृष्टिकोण से लेखन शुरू किया। जेम्स मिल ने अपनी पुस्तक ''हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इंडिया'' में भारत के इतिहास को सांप्रदायिक आधार पर तीन कालों में बांटा-प्राचीन हिंदू काल, मध्यकालीन मुस्लिम काल व आधुनिक ब्रिटिश काल। इलिएट और डोसन ने अपनी पुस्तक ''हिस्ट्री ऑफ इंडिया एज़ टोल्ड बाय हर हिस्टोरियन्स'' द्वारा इतिहास के सांप्रदायिक संस्करण को और पुष्ट किया। उन्होंने इतिहास को राजाओं और उनके दरबारियों द्वारा उनके गुणगान तक सीमित कर दिया। इस नीति ने इतिहास को सांप्रदायिक चश्मे से देखने की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया।

सामाजिक स्तर पर ब्रिटिश शासनकाल में कुछ आधुनिक वर्ग उभरे जिनमें उद्योगपति, औद्योगिक श्रमिक व आधुनिक शिक्षित वर्ग शामिल थे। पुराने सामंती, ज़मीदारों और राजाओं का प्रभाव भी बना रहा यद्यपि उसमें काफी कमी आई। आधुनिक वर्गों ने औपनिवेशिक शासन के खिलाफ आंदोलन खड़ा किया और गांधी के नेतृत्व में देश के सभी क्षेत्रों व धर्मों के पुरूषों व महिलाओं ने एक होकर इस आंदोलन में भागीदारी की। इसी आंदोलन ने औद्योगिकरण व आधुनिक शिक्षा को बढ़ावा देकर, आधुनिक भारत की नींव डाली। इस आंदोलन ने लोगों को भारतीयता की अवधारणा से परिचित करवाया और जातिगत व लैंगिक रिश्तों को बदला। जातिगत व लैंगिक रिश्तों में बदलाव लाने में जोतिराव फुले, भीमराव अंबेडकर व पेरियार रामासामी नाईकर की महत्वपूर्ण भूमिका थी। सावित्रीबाई फुले ने लड़कियों के लिए शिक्षा के द्वार खोले। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन व अंबेडकर जैसे नेताओं ने भारत को ''निर्माणाधीन राष्ट्र'' बनाया।

दूसरी ओर, ज़मीदारों और राजाओं-चाहें व मुसलमान हों या हिंदू-के अस्त होते वर्गों को इन आधुनिक परिवर्तनों से खतरा महसूस होने लगा। जब उन्हें लगा कि जो लोग कभी उनके गुलाम थे, वे उनके चंगुल से बाहर निकलते जा रहे हैं तो उन्होंने धर्म का झंडा उठा लिया। उन्होंने अंग्रेज़ों के इतिहास के सांप्रदायिक संस्करण को वैध ठहराना शुरू कर दिया। मुस्लिम श्रेष्ठि वर्ग ने मुस्लिम लीग का गठन कर लिया। मुस्लिम लीग ने ''इस्लाम खतरे में है'' का नारा बुलंद करना शुरू कर दिया। उनका कहना था कि आठवीं सदी में सिंध के हिंदू राजा दाहेर को मोहम्मद-बिन-कासिम द्वारा पराजित किए जाने के साथ ही भारत, मुस्लिम राष्ट्र बन गया था और इसे मुस्लिम राष्ट्र बनाए रखने के लिए अब उन्हें काम करना है। इसलिए वे स्वाधीनता संग्राम से दूर रहे, जिसका उद्देश्य धर्मनिरपेक्ष प्रजातांत्रिक भारत का निर्माण था।

हिंदू ज़मींदारों और राजाओं ने पहले हिंदू महासभा और बाद में आरएसएस का गठन किया। उनका कहना था कि भारत हमेशा से हिंदू राष्ट्र था व मुसलमान व ईसाई विदेशी आक्रांता हैं। हिंदू महासभा और आरएसएस भी स्वाधीनता आंदोलन से दूर रहे और उन्होंने हिंदू राष्ट्र की स्थापना को अपना लक्ष्य बनाया। वे भी राष्ट्रीय आंदोलन के धर्मनिरपेक्ष प्रजातांत्रिक भारत के निर्माण के लक्ष्य से सहमत नहीं थे। उन्होंने इतिहास के अपने संस्करण का प्रचार करना शुरू कर दिया जिसमें हिंदू राजाओं के शासनकाल का महिमामंडन  किया गया और मुस्लिम शासकों को खलनायक के रूप में प्रस्तुत किया गया। शनैः शनैः वे हिंदू समाज की सभी बुराईयों के लिए मुस्लिम आक्रांताओं को दोषी ठहराया।

जहां राष्ट्रीय आंदोलन ने सभी क्षेत्रों, धर्मों और जातियों के स्त्रियों और पुरूषों को एक किया वहीं सांप्रदायिक धाराएं, अंग्रेज़ों द्वारा बोए गए सांप्रदायिकता के पौधे को पालने-पोसने में जुटे रहे। इसी के नतीजे में सांप्रदायिक हिंसा शुरू हुई और बाद में देश का त्रासद विभाजन हुआ। कुछ लोग अक्सर इस या उस नेता को देश के विभाजन के लिए दोषी ठहराते हैं। जबकि तथ्य यह है कि विभाजन, ब्रिटेन की भारतीय उपमहाद्वीप में अपने हितों को सलामत बनाए रखने के प्रयास का नतीजा था। अंग्रेज़ों ने अपनी चालें इतनी धूर्तता से खेलीं कि विभाजन एक अपरिहार्य विपत्ति बन गया।

ब्रिटिश शासन ने भारत में जो समस्याएं खड़ी कीं उनमें से सबसे बड़ी थी, औद्योगिकरण-आधुनिक शिक्षा के कारण बदलते हुए परिदृश्य में भी सामंती वर्गों का वर्चस्व बना रहना। यही कारण है कि जहां एक ओर भारतीय उपमहाद्वीप में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के मूल्यों का उदय हुआ, वहीं जातिगत व लैंगिक पदक्रम की सामंती विचारधारा भी मज़बूत होती गई। इस विचारधारा के झंडाबरदार थे मुस्लिम लीग, हिंदू महासभा व आरएसएस जैसे संगठन। देश के अस्त होते वर्गों और इन संगठनों ने धर्म-आधारित राष्ट्र-राज्य की विचारधारा का निर्माण किया जो कि सामंती मूल्यों और राष्ट्र-राज्य की आधुनिक अवधारणा का मिश्रण था। यद्यपि सांप्रदायिक राजनीति एक आधुनिक परिघटना है तथापि वह अपनी जड़ों को प्राचीनकाल में तलाष करती है। न तो हिंदू, न ईसाई और ना ही मुसलमान राजा ''धार्मिक राष्ट्रवादी'' थे। वे तो केवल कमरतोड़ मेहनत करने वाले किसानों और कारीगरों का खून चूसकर अपना खज़ाना भरते थे। वे केवल सत्ता और संपदा के पुजारी थे परंतु अपने साम्राज्य का विस्तार करने के लिए वे धर्मयुद्ध, जिहाद या क्रूसेड का मुखौटा पहन लेते थे। इस प्रकार, स्वाधीनता आंदोलन के दौरान दो धाराएं समानांतर रूप से चलती रहीं। एक ओर थी भारत के निर्माणाधीन राष्ट्र की अवधारणा, जिसमें औद्योगिकरण, शिक्षा का प्रसार व परिवहन के साधनों और प्रशासन का आधुनिकीकरण शामिल था। दूसरी ओर, मुस्लिम लीग कहती थी कि भारत आठवीं सदी से मुस्लिम राष्ट्र है और हिंदू महासभा और आरएसएस का कहना था कि यह देश हमेशा से हिंदू राष्ट्र है। मुस्लिम लीग के लिए जहां वक्त, बादशाओं और नवाबों के ज़माने में रूक गया था वहीं हिंदू महासभा और आरएसएस की राष्ट्र की अवधारणा, उस काल से जुड़ी थी जब घुमन्तु पशुपालक समाज, कृषि-आधारित समाज में बदल रहा था। इन दोनों ही श्रेणियों के सांप्रदायिक संगठनों के लिए औद्योगिकरण और आधुनिक शिक्षा का मानो कोई महत्व ही नहीं था।

सांप्रदायिक संगठन अपने-अपने धर्मों के राजाओं का महिमामंडन करते नहीं थकते। परंतु यह दिलचस्प है कि इतिहास में कभी किसी राजा ने अपने धर्म के प्रसार के लिए अभियान नहीं चलाया। वे केवल अपने साम्राज्य के प्रसार के लिए काम करते थे। इसका एकमात्र अपवाद सम्राट अशोक थे, जिन्होंने बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए सघन प्रयास किए। आज यह कहना असंभव है कि अगर भारत पर अंग्रेज़ों ने शासन न किया होता तो उसके इतिहास की धारा किस ओर मुड़ती। परंतु हम यह कह सकते हैं कि अगर अंग्रेज़ भारत न आए होते तो आज सांप्रदायिक राजनीति और राजनैतिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए धार्मिक पहचान का इस्तेमाल जैसी समस्याओं से हम नहीं जूझ रहे होते। सांप्रदायिकता का दानव, हज़ारों मासूम लोगों का भक्षण नहीं कर रहा होता।

थरूर और उसके पहले मनमोहन सिंह ने ब्रिटिश शासन के भारत पर पड़े प्रभाव के अलग-अलग पहलुओं पर प्रकाश डाला परंतु हमें कुछ गहराई में जाकर यह समझना होगा कि अंग्रेज़ों की नीतियों के कारण देश में सांप्रदायिक राजनीति का उभार हुआ जो आज पूरे दक्षिण एशिया के लिए नासूर बन गई है। भारत में हिंदू राष्ट्रवाद के निकृष्टतम स्वरूप हिंदुत्व की विचारधारा का बोलबाला स्थापित हो गया है। (मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) (लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)

- एल. एस. हरदेनिया



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