BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Saturday, August 1, 2015

निर्दोषों को न मिले सजा:वसंत.रजब का स्मारक


निर्दोषों को न मिले सजा:वसंत.रजब का स्मारक

गुजरात हिंसा ;2002; की भयावहता को शब्दों में बयां करना मुश्किल है। गोधरा में ट्रेन में लगी आग में 58 निर्दोष व्यक्तियों को जिंदा जला दिए जाने की त्रासद घटना के बहाने, बड़े पैमाने पर हिंसा भड़काई गयी,जिसमें 1,000 से अधिक लोग मारे गए। इन दंगों के बाद मुझे कई बार गुजरात जाने का अवसर मिला और अपनी इन्हीं यात्राओं के दौरान, मैंने उन दो महान नवयुवकों के बारे में जाना, जिन्होंने अहमदाबाद में जुलाई ,1946 में हुए दंगों के दौरान,लोगों को बचाने के लिए अपनी जान न्योछावर कर दी थी। ये दो नवयुवक थे  वसंतराव गिहेस्ते और रजब अली लखानी। दोनों नजदीकी मित्र और कांग्रेस सेवादल के कार्यकर्ता थे। मासूमों का खून बहते देख वे सड़कों पर उतर आए। वसंत राव ने मुसलमानों को बचाने का प्रयास किया और रजब अली ने हिन्दुओं को। दोनों को उन्मादी भीड़ ने मौत के घाट उतार दिया। 
उन दोनों की स्मृति में गुजरात के सामाजिक कार्यकर्ताओं ने एक जुलाई को सांप्रदायिक सद्भाव दिवस मनाना शुरू कर दिया। गुजरात सरकार ने इसे मान्यता देते हुए, दोनों के एक संयुक्त स्मारक का निर्माण करवाया। स्मारक के अनावरण के मौके पर आयोजित कार्यक्रम की अखबारों में छपी खबरों से मुझे पता चला कि वहां वसंत राव के परिजन तो मौजूद थे परन्तु रजब अली के रिश्तेदारों ने कार्यक्रम में हिस्सा नहीं लिया।    
सन 1946 के बाद, देश में सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं में तेजी से वृद्धि हुई। दंगों ने और बड़ा और भयावह स्वरुप ले लिया। रजब अली के परिजनों को बाद में हुए दंगों में चुन.चुन कर निशाना बनाया गया। यहाँ तक कि वे रजब अली से अपना रिश्ता छुपाने लगे। जब इससे भी काम नहीं चला, तो उनमें से कुछ ने हिन्दू नाम रख लिए और कुछ ने हिन्दू धर्म अपना लिया और कनाडा व अमरीका में बस गए! धार्मिक सद्भाव के प्रबल पक्षधर, रजब अली ने यह कभी नहीं सोचा होगा कि उच्च मूल्यों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता के कारण, उनके ही परिजन विघटनकारी तत्वों के निशाने पर आ जायेगें। यह दुखद घटनाक्रम यह भी बताता है कि भारत में हिन्दू.मुस्लिम हिंसा के चलते,मुसलमान स्वयं को कितना असुरक्षित महसूस करने लगे हैं। वे अपने मोहल्लों में सिमट गए हैं। सांप्रदायिक हिंसा का शिकार होने वालों में मुसलमानों का प्रतिशत, आबादी में उनके प्रतिशत से कई गुना ज्यादा है। केन्द्रीय गृह मंत्रालय द्वारा 1991 में जारी आकड़ों के अनुसार,दंगों के शिकार होने वालों में मुसलमानों का प्रतिशत 80 था जबकि उस समय वे कुल आबादी का केवल 12 प्रतिशत थे।
गुजरात हिंसा के बाद, बड़ी संख्या में हिन्दू व मुस्लिम सामाजिक कार्यकर्ताओं और दोनों समुदायों के प्रमुख व्यक्तियों ने शांति की पुनर्स्थापना के लिए काम किया। नई सरकार के आने के बाद एक वर्ष में ही सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं में 25 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। अंतर्सामुदायिक रिश्तों में तनाव और कटुता घुल गई है और शांति के वाहक रजब अली के रिश्तेदारों पर जो गुजरा, वह इस दुखद स्थिति को रेखांकित करता है।
सांप्रदायिक हिंसा, धर्म के नाम पर हिंसा कैंसर की तरह हमारे समाज में फैल गई है। इसकी शुरूआत अंग्रेज साम्राज्यवादी शासकों की  'बांटों और राज करो' की नीति से हुई थी। उन्होंने इतिहास का सांप्रदायिक संस्करण प्रस्तुत किया। शासक के धर्म को उसकी नीतियों के निर्धारक के रूप में प्रस्तुत किया गया। इस तथ्य को जानबूझकर नजरअंदाज किया गया कि सभी शासकों का एक ही धर्म होता है.सत्ता और संपत्ति पाना। उनकी धार्मिक पहचान गौण होती है। इतिहास के इसी सांप्रदायिक संस्करण का फिरकापरस्त संगठनों ने दूसरे धर्मों के प्रति घृणा फैलाने के लिए इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। ये संगठन आजादी के आंदोलन से दूर रहे। हिंसक सांप्रदायिक झड़पें शुरू हो गईं और आम लोगों के दिमागों में यह बिठा दिया गया कि दूसरे धर्म के लोग उनके शत्रु हैं। सांप्रदायिक राजनीति के खिलाडि़यों ने कई तरह के मिथकों और पूर्वाग्रहों को हवा दी। सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं की विभिन्न आयोगों द्वारा समय.समय पर की गई जांच की रपटों और येल विश्वविद्यालय के हाल के अध्ययन से पता चलता है कि जिन इलाकों में हिंसा होती है, वहां हिंसा भड़काने वाले सांप्रदायिक संगठन को चुनाव में फायदा होता है। यही हम भारत में होता देख रहे हैं। हिंसा की सीढ़ी पर चढ़कर सांप्रदायिक संगठन सत्ता तक पहुंचने लगे हैं। 
बढ़ती हुई हिंसा के प्रकाश में, कई नेताओं ने शांति और सद्भाव के पक्ष में अपनी आवाज़ बुलंद की। गांधीजी और उनके नज़दीकी नेताओं ने सद्भाव और हिंदू.मुस्लिम एकता को बढ़ावा देने के लिए भरसक प्रयास किए। हिंदू.मुस्लिम एकता, गांधीजी की राजनीति का केंद्रीय तत्व था। इस सब के बावजूद, सांप्रदायिक हिंसा बढ़ती गई और गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे अनेक लोगों कोए निर्दोषों की जान बचाने के प्रयास में अपनी जान खोनी पड़ी। आज हम देख रहे हैं कि इस हिंसा का स्वरूप परिवर्तित हो गया है। बड़े, खूनी दंगों का स्थान अल्पसंख्यकों को डराने.धमकाने के कई तरीकों ने ले लिया है। मंदिर मस्जिद, चर्च, गौमांस भक्षण आदि जैसे मुद्दों को लेकर अल्पसंख्यकों को डराने.धमकाने के प्रयास जारी हैं। सांप्रदायिक ताकतों का मुख्य लक्ष्य विभिन्न समुदायों को धार्मिक आधार पर ध्रुवीकृत करना है। 
अगर गांधी इस समय होते तो वे क्या करते? शांति की स्थापना के लिए कई प्रयोग किए जा रहे हैं। इनमें मोहल्ला कमेटियां, शांति सेनाए अंतर्धार्मिक संवाद, धार्मिक त्योहारों को विभिन्न धर्मावलंबियों द्वारा एक साथ मिलकर मनाना, कबीर उत्सवए सौहार्द को बढ़ावा देने वाली फिल्में और धार्मिक एकता की आवश्यकता के प्रति लोगों को जागृत करने के अभियान शामिल हैं। सामाजिक कार्यकर्ताओं की यह भी कोशिश है कि सांप्रदायिक हिंसा के शिकार लोगों को न्याय मिल सके। 
विभिन्न समुदायों का अपने.अपने मोहल्लों में सिमटना कैसे रोका जाए? दूसरे समुदायों के बारे में नकारात्मक सोच से कैसे लड़ा जाए ? ये आज की बड़ी चुनौतियां हैं। इस तरह के प्रयास किए जाना इसलिए जरूरी है ताकि रजब अली के परिजनों की तरह, किसी अन्य को अपनी धार्मिक पहचान न तो छुपाना पड़े और ना ही बदलना। 
-राम पुनियानी
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