1952 मंे 'तराई उदवास्तु समिति' की नींव रखने वाले पुलिन विश्वास गांधीवादी तरीके से आजीवन विस्थापितों के हितों के लिये संघर्ष करते रहे। इस माँग को उन्होंने डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, जवाहर लाल नेहरू, डॉ. राधाकृष्णन, गोविन्दबल्लभ पन्त व सम्पूर्णानन्द व सम्पूर्णानन्द आदि के सामने भी उठाया था।
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किरन मंडल को याद रखेगा बंगाली समुदाय
अजय कुमार मलिक 'तड़प'
बंगाली विस्थापितों द्वारा भूमिधरी, अनुसूचित जाति और नागरिकता के अधिकार को लेकर में साठ साल से आन्दोलन चल रहे हैं। इन लोगों को 1952 से 58 के बीच उपलब्धता के आधार पर 2 से 8 एकड़ तक भूमि आबंटित की गई थी। वर्ष 1971 में भारत-पाक युद्ध के बाद पूर्वी पाकिस्तान से आये विस्थापित भी दलित ही थे। देश के अनेक क्षेत्रों में बिखरे इन बंगालियों में दो लाख के करीब उत्तराखण्ड में बसे। इनमें अस्सी प्रतिशत या तो सीमान्त किसान हैं या खेतिहर मजदूर। राजनैतिक चेतना का स्तर अच्छा होने के कारण यह समुदाय प्रायः सत्तारूढ़ दलों के करीब रहा, मगर राजनैतिक दलों ने इनका इस्तेमाल मात्र वोट बैक के रूप में किया। मामूली सा कर्ज देकर सूदखारों द्वारा इन लोगों की जमीनें कब्जा ली गई। सरकार ये जमीन नीलाम करके हड़पने की साजिश कर रही है। 1952 मंे 'तराई उदवास्तु समिति' की नींव रखने वाले पुलिन विश्वास गांधीवादी तरीके से आजीवन विस्थापितों के हितों के लिये संघर्ष करते रहे। इस माँग को उन्होंने डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, जवाहर लाल नेहरू, डॉ. राधाकृष्णन, गोविन्दबल्लभ पन्त व सम्पूर्णानन्द व सम्पूर्णानन्द आदि के सामने भी उठाया था। पुलिन विश्वास की परम्परा अब कल्याण समिति, निखिल भारत उदवास्तु समिति के पास है। 1983-84 में बंगाली कल्याण समिति अस्तित्व में आने के बाद अभी-अभी विधान सभा की सदस्यता से इस्तीफा देने वाले किरण चन्द्र मण्डल भी लगातार विस्थापितों के मुद्दो को लेकर संघर्ष करते रहे हैं। इसीलिये जनता ने उन्हें सर आँखों पर बिठाया और चुनाव में उन्होंने रिकार्ड, 12618 मतों से विजय हासिल की।
यह विचित्र बात है कि भारत सरकार इग्लैन्ड, अमेरिका जैसे देशों में रहने वाले भारतीय मूल के लोगों को दोहरी नागरिकता देने को तैयार है। लेकिन जिनके पूर्वज आजादी के लिए शहीद हुए, जिन्होंने देश के बँटवारे में अपना सब कुछ खोया, उन बंगालियों को भारतीय नागरिकता नहीं मिलेगी। उल्टे सिटीजनशिप अमेन्डमेन्ट एक्ट 2003 कानून आते ही 30-40 साल से भारत में रह रहे हजारों बंगालियों को उड़ीसा और आसाम सरकार ने भारत छोड़ने का आदेश दिया था। जबकि पश्चिम पाकिस्तान से आये सिंधी 45 साल से गुजरात में रह रहे हैं। बताया जा रहा है कि राजस्व कर्मी 1957-58 तक के रिकार्ड ढूढ़ने में सफल रहे हैं। वर्ष 1957 से पूर्व इस भूमि पर उत्तरप्रदेश के मंत्री राजा भैया के दादा बद्रीसिंह का फार्म था। उनकी दो पुत्रियों, रत्ना देवी व शक्ति देवी के नाम भूमि ट्रांस्फर हुई, जिसका कुल रकबा करीब 2500 एकड़ था। रत्ना देवी के नाम से रतन फार्म और शक्तिदेवी के नाम से शक्तिफार्म बना। शेष आसपास की भूमि राजस्व भूमि थी। सरकार ने यह भूमि 1957 में अधिग्रहीत कर ली। इसका मुआवजा 22648 रुपये अदा किया गया। सूत्रों के अनुसार दस्तावेजों में वन भूमि कहीं भी अंकित नही है। पहले पूर्व में तिगड़ी भूडि़या, जोगीठेर, गुरुग्राम, गोविन्दनगर, राजनगर, अरविन्दनगर, सुरेन्द्रनगर, निर्मलनगर गाँव बसाये गये।
अब विधायक किरण मण्डल के त्याग और मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के सितारगंज बाद यह तय हो गया है कि बंगाली विस्थापितों का इतना लम्बा संघर्ष सफल होकर रहेगा। विस्थापित परिवारों को भूमि का मालिकाना हक दिया जाना लगभग तय है। प्रदेश के 50 से 60 हजार किसानों को फायदा मिलेगा। भूतपूर्व विधायक किरन मंडल का बलिदान बंगाली कौम हमेशा याद रखेगी।
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