भारत का सोलहवाँ लोकसभा चुनाव: किसका, किसके लिए और किसके द्वारा
अरविन्द
दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र के सोलहवें लोकसभा चुनाव सम्पन्न होने जा रहे हैं। चुनाव में भागीदारी बढ़ाने के लिए चुनाव आयोग ने तो ख़ूब ज़ोर और पैसा लगाया ही, तमाम चुनावी दलों ने भी हज़ारों करोड़ रुपया इस चुनावी महायज्ञ में स्वाहा कर दिया। नतीजतन, भारत के "स्वर्णिम" चुनावी इतिहास में मौजूदा चुनाव ने पैसा ख़र्च करने के मामले में चार चाँद लगा दिये हैं। भारत का सोलहवाँ लोकसभा चुनाव अमेरिका के बाद दुनिया का सबसे महँगा चुनाव है। यदि ख़र्च होने वाले काले धन को भी जोड़ दिया जाये तो अमेरिका क्या पूरी दुनिया के चुनावों के कुल ख़र्च को भी हमारा भारत देश टक्कर दे सकता है। दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र जो ठहरा! सिर्फ़ धन ख़र्च करने और काले धन की खपत करने के मामले में ही नहीं बल्कि झूठे नारे देकर, झूठे वायदे करके जनता को कैसे उल्लू बनाया जाये, जाति-धर्म के झगड़े-दंगे कराकर ख़ून की बारिश में वोट की फ़सल कैसे काटी जाये, जनता-जनता जपकर पूँजीपतियों का पट्टा गले में डलवाने में कैसे प्रतिस्पर्धा की जाये, इन सभी मामलों में भी भारतीय नेतागण विदेशी नेताओं को कोचिंग देने की कूव्वत रखते हैं! दुनिया भर में लोकतन्त्र का झण्डा बुलन्द करने वाले हमारे भारत देश के लोकतन्त्र के ठेकेदारों ने पिछले 62 सालों में जनता को इतने सारे वायदे और नारे दिये हैं कि वह चाहती तो मालामाल हो जाती, पर यदि जनता की झोली ही फटी हो तो बेचारे नेताओं का क्या कुसूर है! इसी कारण से लोकतन्त्र का खेल चल भी पा रहा है, वरना जिस देश में करीब एक तिहाई आबादी भूखे पेट सोती हो, जहाँ 36 करोड़ आबादी के सिर पर पक्की छत न हो, जहाँ करीब आधी जनता कुपोषित हो, वहाँ क्या वायदे-नारे न देने वाले नेताओं की दाल गल पाती? हर बार की तरह इस बार भी नेताओं के पारम्परिक घरानों से लेकर, हत्यारे, बलात्कारी, सेंधमार, ख़ुद पूँजीपति और सिनेमाई भाँड़-भड़क्के तक चुनावी रेलम-पेल में लगे हैं। जनतन्त्र का नाम लेकर जनता की दुर्गति कैसे की जाती है, विकल्पहीनता के बीच 'तू नंगा-तू नंगा' का खेल खेलकर झूठे गर्दो-गुबार को खड़ा कैसे किया जाता है और लोगों के लिए उम्मीद और विश्वास जैसे शब्दों को अर्थहीन बनाने की कवायद होती कैसे है? दुनिया भर के लोकतन्त्र-प्रेमी जनों को इन सब चीज़ों के दर्शन हमारी इस "पवित्र" भारत भूमि पर हो जायेंगे! अब ज़रा जन-प्रतिनिधियों के अलग-अलग गिरोहों, माफ़ कीजियेगा, मतलब पार्टियों के चुनावी एजेण्डों को सरसरी निगाह से देख लिया जाये।
सबसे पहले कांग्रेस पार्टी का ज़िक्र करते हैं। देश में उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों को लागू करके मेहनतकश जनता को और अधिक तबाह-बर्बाद करने का श्रेय इसी पार्टी को जाता है। देश आज़ाद होने के कुछ ही समय बाद जीप घोटाले से शुरू करके कभी बोफोर्स तोप घोटाले, कभी कॉमनवेल्थ खेल घोटाले, कभी 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले तो कभी कोयला घोटाले के द्वारा इस पार्टी ने घोटालों की ऐसी कहानी शुरू की है, जो रुकने का नाम ही नहीं ले रही है। कांग्रेस पार्टी ने घोटालों के मामले में वह सफ़ाई, कुशलता और दक्षता प्रदर्शित की है कि लोग घोटाला शब्द आते ही इसके नेताओं की मिसाल देने लगते हैं। इस मामले में कांग्रेस पार्टी का कोई सानी नहीं है, हालाँकि दिलीप सिंह जूदेव, बंगारू लक्ष्मण और येदयुरप्पा जैसों की बदौलत भाजपा ने भी इस प्रतिस्पर्द्धा में कांग्रेस को टक्कर देनी शुरू कर दी है। कांग्रेस इस मामले में शायद इसीलिए आगे है, क्योंकि देश की सत्ता अधिकांश समय उसके हाथों में रही है। लेकिन कुछ 6-7 वर्ष के ही राज में भाजपा-नीत राजग सरकार ने भी घोटालों के तमाम रिकॉर्ड तोड़ डाले थे। देश को देशी-विदेशी पूँजी की खुली लूट की चारागाह में तब्दील करने वाली कांग्रेस यह उम्मीद पाले बैठी थी कि चुनाव करीब आते ही लोक-लुभावन नारे और शोशे उछालकर जनता को फिर से उल्लू बना दिया जायेगा। मगर समय का फेर देखिये कि देश को महँगाई, बेरोज़गारी, भुखमरी और घपलों-घोटालों से आभूषित करने वाली कांग्रेस के हाथ जैसे बँध से गये हैं कि वह कुछ ही हवाई वायदे कर पायी क्योंकि घनघोर आर्थिक संकट जो चल रहा है। 'भारत निर्माण' के नारे की छत्रछाया में चुनावी बिसात बिछाये कांग्रेस से यह पूछा जाना चाहिए कि लोगों को चिकित्सा, रोज़गार और घर यदि आपको अभी देना था तो पिछले 5-6 दशक क्या आपने घास छीलने में निकाल दिये? असल में कांग्रेस के हाथ ने अपने 'भारत निर्माण' के नारे के तहत लोगों को एक बार फिर से उल्लू बनाने की ठानी है या इसने सोचा कि जनता तो पहले ही उल्लू है, किसी न किसी तरह चुनाव जीत ही लिया जायेगा।
अब आते हैं दूसरी सबसे बड़ी पार्टी भाजपा पर। भारतीय जनता पार्टी ने 'अभी नहीं तो कभी नहीं' की तर्ज पर अपना एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा दिया है। चुनावी प्रचार हो, मीडिया को पालतू बनाना हो, धार्मिक कट्टरता फैलाना हो, या फिर दूसरी पार्टियों के नेताओं को अपने एजेण्डे पर (!!?) लाना हो, इन तमाम चीज़ों पर भाजपा ने पानी की तरह पैसा बहाया है। दंगों पर तो जैसे इसका एकाधिकार ही रहा है, हालाँकि कांग्रेस व अन्य चुनावी दल भी इस एकाधिकार का अतिक्रमण करने से नहीं चूकते, किन्तु भाजपा की तो जैसे पहचान ही साम्प्रदायिक सद्भाव बिगाड़ने वाले के रूप में होती है। फ़िलहाल हुए मुज़फ्ऱफ़रनगर के दंगों और उससे पहले असम के दंगों ने यह और भी स्पष्ट कर दिया है कि फ़ासीवादी ताक़तें चुनावी गोटी लाल करने के लिए किसी भी हद से गुज़र सकती हैं। कारपोरेट जगत भी भाजपा पर पूरी तरह से फिदा है। हो भी क्यों नहीं, गुजरात के मुख्यमन्त्री नरेन्द्र मोदी जो इसके तारणहार बनकर सामने आये हैं! भाजपा का पूँजीपतियों से वायदा है कि मौजूदा आर्थिक संकट और मन्दी के दौर में वही उन्हें बचायेगी और उनके मुनाफ़े को सुरक्षित रखेगी। गुजरात इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, जहाँ देशी-विदेशी पूँजीपतियों का 'अतिथि देवो भवः' वाला मान-सम्मान होता है। गुजरात में मज़दूर तो जैसे नागरिक ही नहीं हैं। यही कारण है कि वहाँ पर नमक की खानों में काम करने वाले मज़दूरों, अलंग के जहाज़ तोड़ने वाले मज़दूरों और हीरा उद्योग से जुड़े मज़दूरों के हालात एकदम दयनीय हैं। मोदी महाराज के अनुसार तो गुजरात में बॉयलर इंस्पेक्टरों तक की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि कोई भी कारख़ानेदार ऐसा क्यों चाहेगा कि उसका बॉयलर ख़राब हो? लगता है, इसी कारण से गुजरात में न्यूनतम मज़दूरी करीब 5600 रुपये रखी गयी है, क्योंकि मज़दूरों की बाक़ी की चिन्ता तो पूँजीपति और कारख़ानेदार ख़ुद ही कर लेंगे! अब इन्हें यह बात कौन समझाये कि मालिक तो सिर्फ़ और सिर्फ़ मुनाफ़ा चाहता है, किसी भी क़ीमत पर! 2002 के गुजरात दंगों में लिप्त मोदी को प्रधानमन्त्री पद की उम्मीदवारी दिया जाना दिखाता है कि भारतीय राजनीति का ऊँट किस करवट बैठ रहा है। कारपोरेट जगत तो मोदी का दीवाना है ही निम्न मध्यवर्ग यानी टटपुँजिया वर्ग और मज़़दूरों का कुछ हिस्सा भी अराजनीतिक होने और वर्ग चेतना के अभाव के कारण 'नमो-नमो' की माला फेर रहा है। जनता के अज्ञान का फ़ायदा उठाते हुए झूठे प्रचार पर अरबों रुपया ख़र्च किया गया है। 'वाइब्रेण्ट गुजरात' की असलियत यह है कि देश के सबसे पिछड़े 50 ज़िलों में से 6 गुजरात में हैं। मोदी ने 'ऐपको वर्ल्ड वाइड' नामक कुख्यात कम्पनी से भी प्रचार का काम लिया है। ज्ञात हो इस कम्पनी की सेवाएँ अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी ली थी। इस कम्पनी पर युद्ध अपराधों और अफ्रीकी देशों में तख़्तापलटों को अंजाम देने जैसे आरोप लगते रहे हैं। इस कम्पनी को भी सिर्फ़ अगस्त 2007 से मार्च 2013 तक 25,000 डॉलर प्रतिमाह मोदी की छवि चमकाने के लिए ही दिये गये हैं, ताकि चेहरे पर लगे ख़ून के छीटों पर दुष्प्रचार और झूठ की एक परत चढ़ायी जा सके। असल में भाजपा के पास भी कोई नारा या विकल्प नहीं है, इसके भी तमाम नेताओं पर घोटालों-घपलों से लेकर बड़े-बड़े आपराधिक मामले दर्ज हैं। भाजपा का गुजरात मॉडल देश के उद्योग जगत और खाते-पीते लोगों के लिए विकास मॉडल हो सकता है, किन्तु व्यापक मेहनतकश जनता के लिए यह लूटतन्त्र और डण्डातन्त्र से अधिक कुछ नहीं है।
अब ज़रा 'आम आदमी पार्टी' पर थोड़ी बात कर ली जाये। वैसे तो दिल्ली में चली इनकी 49 दिनों की सरकार ने इन्हें पहले ही निपट नंगा कर दिया है। आम आदमी का दम भरकर जनता को टोपी पहनाने में अरविन्द केजरीवाल पारम्परिक नेताओं जैसे ही घाघ साबित हुए और साफ़-सुथरे पूँजीवाद का भ्रम फैलाने में तो इनके भी उस्ताद। दिल्ली के करीब 70 लाख मज़़दूरों से किये गये ठेकेदारी प्रथा ख़त्म करने के वायदे पर केजरीवाल सरकार साफ़ मुकर गयी। 'आप' सरकार के श्रम मन्त्री गिरीश सोनी को शर्म भी नहीं आयी, जब इन्होंने फरमाया कि ठेकेदारी प्रथा ख़त्म होने से मालिकों और ठेकेदारों का नुक़सान हो जायेगा (ज्ञात रहे ये श्रीमान ख़ुद एक चमड़ा फ़ैक्टरी के मालिक हैं)। अपनी 49 दिन की सरकार में केजरीवाल ने निजी क्षेत्र में एफ़डीआई पर रोक लगाने, वैट के सरलीकरण जैसे मुद्दों पर उद्योगपतियों और व्यापारियों के हक़ में फ़ैसला लिया, लेकिन दिल्ली की मज़़दूर आबादी के लिए इन्होंने ठेकेदारी प्रथा ख़त्म करना तो दूर रहा न्यूनतम मज़दूरी, काम के घण्टे और पीएफ़-ईएसआई आदि श्रम क़ानूनों को सख़्ती से लागू करवाने के लिए भी कोई क़दम नहीं उठाकर अपनी मंशा स्पष्ट कर दी। रही बिजली-पानी देने की बात तो जनता की जेब से दी गयी सब्सिडी केवल 31 मार्च तक ही थी। अन्तिम कुछ दिनों में होर्डिंगबाज़ी तो ख़ूब हुई पर सब हवा-हवाई। और फिर जल्द ही केजरीवाल साहब जनलोकपाल का बहाना बनाकर सिर पर रखे काँटों के ताज को फेंककर भाग खड़े हुए। इन्होंने सोचा था मुख्यमन्त्री की कुर्सी "ठुकराकर" एक तो जान छूट जायेगी, दूसरा राजनीतिक शहीद का दर्जा भी मिल जायेगा ताकि देश स्तर पर टोपी पहनायी जा सके यानी 'दोनों हाथों में लड्डू'! किन्तु अफ़सोस, अरविन्द केजरीवाल और उनकी मण्डली अपने मकसद में कामयाब नहीं हो सकी। इस्तीफ़े के कुछ ही दिनों बाद पूँजीपतियों के मंच सीआईआई की एक बैठक में केजरीवाल ने ऐसी पूँछ हिलायी कि परदे तक फड़फड़ा गये! यदि वहाँ श्वान जाति का कोई प्राणी होता तो वह हिलती पूँछ से प्रतिस्पर्धा न कर पाने की स्थिति में शर्म से पानी-पानी हो जाता! अरविन्द केजरीवाल ने पूँजीपतियों से वायदा किया कि यदि 'आप' की सरकार बनती है, तो दफ़्तरों का भ्रष्टाचार ख़त्म कर दिया जायेगा, जिससे इनका काम (क़ानूनी और ग़ैरक़ानूनी लूट) आसान हो जायेगा। साथ ही यह वायदा किया कि अगर केजरीवाल प्रधानमन्त्री बनते हैं तो सरकार का उद्योग-धन्धों से हस्तक्षेप समाप्त कर दिया जायेगा, सिर्फ़ अवसंरचनागत उद्योगों में ही सरकार पूँजी लगायेगी। इसका अर्थ अर्थशास्त्र का 'क ख ग' समझने वाला कोई भी व्यक्ति समझ रहा होगा। इसका अर्थ है कि हर प्रकार का विनियमन और बाधा हटाकर पूँजीपतियों के मुनाफ़े के लिए रास्ता साफ़ करना। यानी दूसरे शब्दों में वही आर्थिक नीति जोकि कांग्रेस और भाजपा की है। असल में आम आदमी पार्टी लोगों का इसी व्यवस्था में सुधार करके साफ़-सुथरे पूँजीवाद का ख़्वाब दिखा रही है जो एक आकाश-कुसुम के समान है। भाजपा-कांग्रेस और अन्य चुनावी दल कोई भ्रम नहीं फैला रहे, ये बेचारे तो जनता के सामने पहले ही अपनी प्राकृतिक अवस्था में रहते हैं और भ्रम फ़ैलाने के कारण ही 'आप' इनसे भी अधिक ख़तरनाक है। मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था के रप़फ़ूगर अरविन्द केजरीवाल असल में व्यवस्था के लिए सेफ़्टीवॉल्व का ही काम कर रहे हैं, वही काम जिसे किसी समय विनोबा भावे, जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया, मोरारजी देसाई आदि सज्जनों ने अंजाम दिया था। कुल मिलाकर आम आदमी पार्टी भी जनता के सामने कोई विकल्प नहीं है।
तमाम क्षेत्रीय दलों की घोर अवसरवादिता, अपने थूके को चाटने की इनकी बेहयाई के बारे में तो जितना कम कहा जाये, उतना ही बेहतर होगा। लोजपा के रामविलास पासवान जो भाजपा को पानी पी-पीकर कोसते थे, चुनावी मौसम आते ही भाजपा की गोद में जाकर बैठ गये हैं। कभी सीपीआई (एम) के छात्र संगठन एसएफ़आई से जुड़े रहे उदितराज भाजपा द्वारा फेंके टुकड़ों पर लपक गये हैं। हरियाणा के जनहित कांग्रेस के कुलदीप बिश्नोई तो भाजपा से काफ़ी दिन पहले ही हाथ मिला चुके हैं, कभी ये महाशय ख़ुद को कांग्रेस पार्टी की तरफ़ से मुख्यमन्त्री पद का दावेदार समझते थे। बसपा एक बार फिर से नये समीकरण वाली सामाजिक इंजीनियरिंग करने की फ़िराक़ में है, लेकिन आज दलित आबादी का भी एक बड़ा हिस्सा समझ रहा है कि दलित साम्राज्ञी मायावती भी आम ग़रीब दलित आबादी को केवल कुछ प्रतीकात्मक नारे और दलित साम्राज्ञी के राज पर गर्व करने का खोखला सन्देश देने के अलावा कुछ नहीं दे सकती है और उनकी भी असली वफ़ादारी जेपी ग्रुप आदि जैसे पूँजीपतियों के साथ है। नीतीश कुमार भाजपा का दामन छोड़ चुके हैं, क्योंकि कई वर्षों बाद उन्हें वह अचानक साम्प्रदायिक लगने लगी! असल बात यह है कि तमाम क्षेत्रीय दल चाहे यूपी के सपा, बसपा हों, हरियाणा के इनेलो, जनहित कांग्रेस हों, महाराष्ट्र के मनसे, शिवसेना हों, बिहार के राजद, लोजपा और जदयू हों या अन्नाद्रमुक, एनसीपी और तृणमूल कांग्रेस हों; ये बिन पेंदी के लोटे और थाली में रखे बैंगन की तरह जिधर भी मोटी थैली रूपी ढलान मिले या इसकी सम्भावना लगे उधर ही लुढ़क जाते हैं। देश में जनप्रतिनिधियों के नाम पर उबकाई ला देने वाली ऐसी लीद सड़ रही है, जिसे देखकर किसी भी संवेदनशील इंसान को बेहद दुःख भी होता होगा और गुस्सा भी आता होगा।
चलते-चलते एक बात कभी लोकपाल बिल के संग्राम के प्रधान सेनापति रहे अन्ना हज़ारे पर भी कर लेते हैं। आजकल इस बात पर खोज हो रही है कि इन्होनें किसी समय कलकत्ता की सड़कों पर नौजवानों का ख़ून बहाने वाले सिद्धार्थ शंकर रे की चेली और सुधारवादी जेपी की गाड़ी के सामने बेशर्मी का ताण्डव करने वाली ममता बनर्जी को गोद ले लिया है या तृणमूल कांग्रेस पार्टी ने अन्ना हज़ारे को ही गोद ले लिया है। अभी कुछ दिनों पहले दिल्ली के रामलीला मैदान में कुछ ऐसा ही भ्रमित करने वाला नज़ारा देखने को मिला था। इस बात को अलग से रेखांकित करने की ज़रूरत नहीं है कि इन सभी चुनावी पार्टियों के एजेण्डे से आम जनता के मुद्दे पूरी तरह से ग़ायब हैं और यदि घोषणापत्रों में कहीं पर लोकलुभावन वायदे किये भी गये हैं, तो वे केवल लोगों को भरमाने के लिए हैं। जनता से पाई-पाई करके निचोड़े गये अरबों रुपये की बर्बादी, फ़र्ज़ी मीडिया बहसें, तू नंगा-तू नंगा का यह चुनावी खेल सिर्फ़ इसीलिए है कि आने वाले पांच सालों में चोरों-बटमारों, पूँजी के चाकरों-अपराधियों का कौन-सा गिरोह देश की जनता और देश के प्राकृतिक संसाधनों को लूटेगा और पूँजीपतियों पर लुटायेगा।
अब हम जनतन्त्र के मन्दिर संसद और इस जनतान्त्रिक व्यवस्था की असलियत को थोड़ा और उघाड़ने की कोशिश करते हैं। चुनाव में बढ़ते धन और अपराध के इस्तेमाल, चुनाव में नेताओं-अपराधियों-पूँजीपतियों के चोली-दामन के साथ ने यह शीशे की तरह साफ़ कर दिया है कि भारत का लोकतन्त्र असल में धनतन्त्र और अपराधतन्त्र है। चुनाव आयोग द्वारा लोकसभा चुनाव 2014 में एक सांसद उम्मीदवार के प्रचार ख़र्च की सीमा 40 लाख से बढ़ाकर 70 लाख कर दी गयी है। यह तो है क़ानूनी सीमा बाक़ी ग़ैरक़ानूनी सीमा (जो असल में क़ानूनी ही है!) असीम है। विभिन्न समयों पर राजनेताओं के ख़ुद के बयान यह दिखा देते हैं कि एक-एक उम्मीदवार कैसे करोड़ों रुपये वोट ख़रीदने, शराब पिलाने, चुनाव रैलियों पर यानी कि इस पूरी नौटंकी पर ख़र्च करता है। असल में संविधान में लिखित 'चुनने और चुने जाने की आज़ादी' का कोई मतलब नहीं है। देश की 77 फ़ीसदी आबादी में से कोई जो 20 रुपये या उससे भी कम पर गुज़र-बसर करता हो (अर्जुन सेन गुप्ता आयोग), क्या सांसद उम्मीदवार के तौर पर खड़े होने के लिए 10,000 की जमानत भी जमा करा पायेगा? इस बार चुनाव पर सरकारी ख़ज़ाने से सीधे तौर पर 8 हज़ार करोड़ रुपये ख़र्च होंगे और सुरक्षा समेत तमाम तामझाम का ख़र्च होगा अलग से। चुनावी पार्टियों और उम्मीदवारों की तरफ़ से 30,000 करोड़ ख़र्च होने का अनुमान है। 'सेण्टर फ़ॉर मीडिया स्टडीज' की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ इस चुनाव में 11,000 करोड़ रुपये का काला धन ख़र्च होने की भी सम्भावना है। मतदान शुरू होने से पहले ही 90 करोड़ की धनराशि तो ज़ब्त हो ही चुकी थी और जो न तो ज़ब्त हुई और न ही होगी उसका क्या हिसाब-किताब? इतना ही नहीं अकेले बिहार, बंगाल और उत्तरप्रदेश यानी 3 राज्यों से ही 31 लाख लीटर शराब भी ज़ब्त हुई है। चुनाव ख़त्म होने तक यह आँकड़ा कहाँ तक पहुँच सकता है, इसका अनुमान लगाने का काम हम आप पर ही छोड़ देते हैं। यह भी देख लिया जाये कि हमारे जन प्रतिनिधियों के आर्थिक हालात देश की जनता से कितने मिलते हैं और क्या इनमें से अधिकांश की जगह संसद की बजाय जेल नहीं होनी चाहिए? अगर 2009 में चुनी गयी मौजूदा संसद की बात की जाये तो 543 में से 315 करोड़पति हैं यानी 58 प्रतिशत संसद सदस्य करोड़पति हैं। एक संसद सदस्य की औसत सम्पत्ति है 5 करोड़ तैंतीस लाख रुपये और 2004 की तुलना में इसमें 186 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी दर्ज़ हुई है। 162 सांसदों पर भारतीय क़ानून के तहत आपराधिक मामले चल रहे हैं यानी करीब 27 प्रतिशत जनप्रतिनिधि अपराधी हैं। इस मामले में भी 2004 की तुलना में 27 फ़ीसदी का इज़ाफ़ा हुआ है। चलो हम किसी मामले में तो दुनिया में काफ़ी आगे चल रहे हैं! यह भी रेखांकित करते चलें कि ये आँकड़े ख़ुद इन प्रतिनिधियों द्वारा ही अपने शपथपत्रों के माध्यम से बयान किये गये हैं, यह पता नहीं किस मुँह से। असल में लोकतन्त्र का यह स्याह पहलू अमावस की रात से भी अधिक स्याह हो सकता है, क्योंकि तमाम राजनेता कितने सच्चे हैं इस बात को भी हम भली-भाँति समझते हैं। हमारे महान देश में एक न्याय और भी व्यवहार में लाया जाता है, हालाँकि पूरे विश्व में ही इसका चलन है, शायद हमारे देश के विश्व गुरु होने के भले वक़्तों में दुनिया वालों ने इसे हमसे सीख लिया होगा! वह न्याय यह है कि जैसे-जैसे पैसे के वज़न से जेब भारी होने लगती है, वैसे-वैसे क़ानून का शिकंजा आप पर से ढीला होने लगता है और जैसे ही यह ग्राफ़ कंगाली की तरफ़ घटना शुरू होता है, वैसे ही क़ानून का शिकंजा भी कसता चला जाता है। यानी सबसे अमीर का मतलब क़ानून को ख़रीदने में सबसे अधिक योग्य और सबसे ग़रीब का मतलब लुटेरों के पूरे तन्त्र के सामने असहाय और न्याय की ख़ातिर दर-दर की ठोकरें खाने के लिए सबसे अधिक अभिशप्त। अब बात करते हैं, लोकसभा चुनाव 2014 के उम्मीदवारों की करोड़पति और आपराधिक पृष्ठभूमि की। हमारे पास अभी तक 543 लोकसभा सीटों में से 232 सीटों के 3355 में से 3308 उम्मीदवारों के ही तथ्य उपलब्ध हो पाये हैं, किन्तु 'पूत के पैर पालने में ही दिख जाते हैं'। हमारी बात के स्पष्टीकरण के लिए इतना पर्याप्त है। 232 सीटों के इन 3308 उम्मीदवारों में से 921 करोड़पति हैं, मतलब 28 प्रतिशत उम्मीदवार करोड़पति हैं। 558 उम्मीदवार ऐसे हैं, जिन पर भारतीय क़ानून के तहत ही आपराधिक मामले चल रहे हैं। चुनाव के पिछले इतिहास से सबक़ लेते हुए यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इस बार भी करोड़पतियों और अपराधियों द्वारा बाज़ी मार लिये जाने की पूरी सम्भावना है। कांग्रेस जहाँ करोड़पति उम्मीदवारों की दौड़ में भाजपा के 74 प्रतिशत की तुलना में 84 प्रतिशत के साथ आगे चल रही है, वहीं भाजपा आपराधिक उम्मीदवारों के मामले में कांग्रेस के 23 प्रतिशत की तुलना में 34 प्रतिशत के साथ आगे चल रही है। आम आदमी पार्टी तक के 43 प्रतिशत उम्मीदवार करोड़पति और 16 प्रतिशत उम्मीदवार ऐसे हैं जिन पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र की कहानी कहाँ तक कहें 'कबीरा कही न जाय'। जनप्रतिनिधियों के हालात देखकर अब ज़रा जन के हालात भी देख लिये जायें।
अक्टूबर 2013 की वैश्विक भूख सूचकांक की 120 देशों की सूची में भारत 63वें स्थान पर है। 2013 की मानव विकास सूचकांक की 186 देशों की सूची में भारत का स्थान 136वाँ है। देश में करीब 28 करोड़ लोग बेरोज़गार हैं। ग़रीबी रेखा के हास्यास्पद होने (सरकार के अनुसार प्रतिमाह गाँव में 816 रुपये और शहर में 1,000 रुपये कमाने वाला अमीर है!!) के बावजूद भी 22 फ़ीसदी आबादी इस रेखा से भी नीचे ज़िन्दगी बसर कर रही है। ध्यान रहे यह सरकारी आँकड़ा है, सरकार द्वारा आँकड़ों की बाज़ीगरी में यह कभी नहीं बताया जाता कि महँगाई और मुद्रास्फीति बढ़ाकर तथा लोगों की जेबों पर डाके डालकर वास्तविक औसत आय को कम कैसे किया जाता है। 2006 की अर्जुन सेन गुप्ता की सरकारी कमेटी की ही रिपोर्ट, जिसका ज़िक्र हम ऊपर कर आये हैं, के अनुसार देश की करीब 84 करोड़ आबादी प्रतिदिन 20 रुपये से भी कम पर गुज़ारा करने के लिए मजबूर है। निचोड़ के तौर पर बात यह है कि देश में ग़रीबी, बेरोज़गारी और भुखमरी के हालात भयंकर हैं। 1947 में देश के आज़ाद होने के समय भारत का ब्रिटेन पर 16.12 करोड़ रुपये का क़र्ज़ था जबकि आज भारत पर 32 लाख करोड़ का विदेशी क़र्ज़ है। नेताशाही-नौकरशाही और पूँजीपतियों के गठजोड़ ने देश की जनता की तबाही-बर्बादी में कोई कसर नहीं छोड़ी है। चुनावी प्रक्रिया के 6 दशक बाद भी आम जनता के हालात में कोई बुनियादी बदलाव नहीं आया है, बस लुटेरों के चेहरों और लूट के उनके तरीक़े में ज़रूर बदलाव आया है। असल में यह चुनावी व्यवस्था देश की जनता के लिए नौटंकी से अधिक कुछ नहीं है। मेहनत-मशक्कत करके तमाम संसाधनों का सृजन करने वाली व्यापक आबादी के लिए यह चुनावी तन्त्र एक भद्दा मज़ाक़ है। धनपशुओं और अपराधियों की कुत्ताघसीटी से ज़्यादा इसके कोई मायने नहीं हैं। वास्तव में चुनाव पूँजीपतियों का, पूँजीपतियों के लिए और पूँजीपतियों के द्वारा होता है। जनता को मिलते हैं सिर्फ़ झुनझुने ताकि आने वाले पाँच साल तक वह उन्हें बजाती रहे। लेकिन क्या यह सब सदा-सर्वदा ऐसे ही चलता रहेगा? क्या इतिहास नहीं बदलता है? क्या देश में ज़िन्दा-जुझारू, मुक्तिकामी और परिवर्तनकामी लोग हैं ही नहीं, जो बदलाव की अलख जगा सकें? क्या देश में ऐसे युवाओं का अकाल पड़ गया है जो वैज्ञानिक नज़रिये से समाज बदलाव के प्रोजेक्ट पर सोच-विचार कर सकें और भगतसिंह के शब्दों में इसे व्यापक मेहनतकश अवाम के सामने रख सकें? किसी भी समाज की परिवर्तन की गति अपने ऐतिहासिक कारणों से सापेक्षतः धीमी या तेज़ हो सकती है, किन्तु "बदलाव ही एकमात्र नियतांक होता है।" महान रूसी क्रान्तिकारी प्रबोधक निकोलाई दोब्रोल्युबोव के अनुसार, "विचारों और उनके क्रमशः विकास का महत्त्व केवल इस बात में है कि प्रस्तुत तथ्यों से उनका जन्म होता है और वे यथार्थ वास्तविकता में सदा परिवर्तनों की पेशवाई करते हैं। परिस्थितियाँ समाज में एक आवश्यकता को जन्म देती हैं। इस आवश्यकता को सब स्वीकार करते हैं, इस आवश्यकता की आम स्वीकृति के बाद यह ज़रूरी है कि वस्तुस्थिति में परिवर्तन हो, ताकि सबके द्वारा स्वीकृत इस आवश्यकता को पूर्ण किया जा सके। इस प्रकार किन्हीं विचारों तथा आकांक्षाओं की समाज द्वारा स्वीकृति के बाद ऐसे दौर का आना लाज़िमी है, जिसमें इन विचारों तथा आकांक्षाओं को अमल में उतारा जा सके।'' आज अरब से लेकर लातिन अमेरिका तक और एशिया, अफ्रीका से लेकर यूरोप और अमेरिका तक में लोग पूँजीवादी व्यवस्था के खि़लाफ़ सड़कों पर उतर रहे हैं। यह बात भी उतनी ही सच है कि पूँजीवाद-विरोधी तात्कालिक आन्दोलनों के पास कोई व्यावहारिक विकल्प नहीं है। लेकिन क्या यह विकल्पहीनता का आलम बदलेगा नहीं? यह ज़रूर बदलेगा! भारत में भी समाज की दमनभट्ठी में बदलाव के बीज खदबदा रहे हैं। जनता का भ्रम पूँजीवादी व्यवस्था से धीरे-धीरे टूट रहा है। समाज के इस बदलाव के दौर में ऐसे जुझारू छात्रों-युवाओं की ज़रूरत है, जो जनता के साथ अपने सपनों और आकांक्षाओं को जोड़ सकें। बदलाव की सही विचारधारा के वाहक बन सकें और व्यापक मेहनतकश जनता को बुनियादी स्तर पर संगठनबद्ध कर सकें। ऐसे युवाओं के इन्तज़ार में हम बैठेंगे नहीं बल्कि हम सभी को, देश के हर एक इंसान को ही अपना पक्ष चुनना होगा। आने वाले दिनों में शोषण-विहीन समाज के लिए लोग उठेंगे; उनके बीच से ही अगुवाई करने वाले लोग भी आगे आयेंगे और तब जाकर मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था के व्यावहारिक विकल्प के लिए काम होगा। पूँजीवादी व्यवस्था के चुनावी भ्रमजाल से निकलकर अमर शहीदों के सपनों को पूरा करने की तरफ़ समाज आगे बढे़गा। आमूलचूल सामाजिक बदलाव की शुरुआत तक हमेशा की तरह पूँजीवादी व्यवस्था में चुनाव पूँजीपतियों का, पूँजीपतियों के लिए और पूँजीपतियों के द्वारा होता रहेगा और जनता सिर्फ़ मोहरा बनती रहेगी।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-अप्रैल 2014
आह्वान' के पाठकों से एक अपील
दोस्तों,
"आह्वान" सारे देश में चल रहे वैकल्पिक मीडिया के प्रयासों की एक कड़ी है। हम सत्ता प्रतिष्ठानों, फ़ण्डिंग एजेंसियों, पूँजीवादी घरानों एवं चुनावी राजनीतिक दलों से किसी भी रूप में आर्थिक सहयोग लेना घोर अनर्थकारी मानते हैं। हमारी दृढ़ मान्यता है कि जनता का वैकल्पिक मीडिया सिर्फ जन संसाधनों के बूते खड़ा किया जाना चाहिए।
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