BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Monday, April 7, 2014

कटते भी चलो बढ़ते भी चलो बाज़ू भी बहुत हैं , सर भी बहुत - फैज़ अब आनंद तेलतुंबड़े के लिखे और हमारे मंतव्य पर एक फतवा भी जारी किया गया है।यह फतवा हमारे सिर माथे।दागी होना बुरा भी नहीं है उतना,जितना कि आंखें होने के बावजूद अंधा हो जाना। आइये इस पागलपंथी का मुकाबला करें . हर देश में, हर समय .

कटते भी चलो बढ़ते भी चलो

बाज़ू भी बहुत हैं , सर भी बहुत

- फैज़

अब आनंद तेलतुंबड़े के लिखे और हमारे मंतव्य पर एक फतवा भी जारी किया गया है।यह फतवा हमारे सिर माथे।दागी होना बुरा भी नहीं है उतना,जितना कि आंखें होने के बावजूद अंधा हो जाना।


आइये इस पागलपंथी का मुकाबला करें . हर देश में, हर समय .

पलाश विश्वास

रबार-ए-वतन में जब इक दिन सब जानेवाले जायेंगे

कुछ अपनी सज़ा का पहुँचेंगे कुछ अपनी जज़ा ले जायेंगे


ऐ ख़ाकनशीनो, उठ बैठो, वह वक़्त क़रीब आ पहुँचा है

जब तख़्त गिराए जाएँगे, जब ताज उछाले जाएँगे


अब टूट गिरेंगी ज़ंजीरें, अब ज़िन्दानों की ख़ैर नहीं

जो दरिया झूम के उट्ठे हैं, तिनकों से न टाले जाएँगे


कटते भी चलो, बढ़ते भी चलो, बाज़ू भी बहुत हैं, सर भी बहुत

चलते भी चलो के अब डेरे मंज़िल ही पे डाले जाएँगे


ऐ ज़ुल्म के मातो लब खोलो, चुप रहनेवालो, चुप कब तक

कुछ हश्र तो उनसे उट्ठेगा, कुछ दूर तो नाले जाएँगे

~ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़


गिरदा,शेखर और हमारी टीम नैनीताल समाचार के शुरुआती दिनों में जब रिपोर्ताज पर रात दिन हर आंखर के लिए लड़ते भिड़ते थे,गरियाते थे हरुआ दाढ़ी, पवन, भगतदाज्यू, सखादाज्यू, उमा भाभी से लेकर राजीव दाज्यू तक टेंसन में होते थे कि आखिर कुछलिका जायेगा कि अंक लटक जायेगा फिर,तब गिरदा ही काव्यसरणी में टहलते हुए कुछ बेहतरीन पंक्तियां मत्ते पर टांग देते थे,फिर मजे मजे में हमारे कहे का लिखे में सुर ताल छंद सध जाते थे।


उन दिनों हम साहिर और फैज़ को खूब उद्धृत करते थे।पंतनगर गोली कांड की रपट हम लोगों ने  फैज़ से ही शुरु की थी।तब हमारा लेखन रचने से ज्यादा अविराम संवाद का सिलसिला ही था,जिसमें कबीर से लेकर भारतेंदु और मुक्तिबोध कहीं भी आ खड़े हो जाते थे।शायद इस संक्रमण काल में हमें  उन्हीं रोशनी के दियों की अब सबसे बेहद जरुरत है।


आज सुबह सवेरे अनगिनत सेल्फी से सजते खिलते,अरण्य में आरण्यक अपने नयन दाज्यू ने अलस्सुबह के घन अंधियारे में यह दिया अपने वाल पर जला दिया।उनका आभार कि फिर एकबार रोशनी के सैलाब में सरोबार हुए हम और हमारे आसपास यहीं कहीं फिर गिरदा भी आ खड़े हो गये।


मुझे बेहद खुशी है कि वैकल्पिक मीडिया का जो ांदोलन समकालीन तीसरी दुनिया के जरिये शुरु हुा,उसकी धार बीस साल के आर्थिक सुधारों से कुंद नहीं हुई।अप्रैल अंक में संपादकीय अनिवार्य पाठ है तो मार्च अंक में मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य के मद्देनजर अभिषेक श्रीवास्तव,विद्याभूषण रावत,सुबाष गाताडे और विष्णु खरे के आलेख हमारी दृष्टि परिष्कार करने के लिए काफी हैं।

इनमें विद्याभूषण रावत सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वे न सिर्फ बेहतरीन लिखते हैं बल्कि जाति पहचान के हिसाब से विशुद्ध दलित हैं।वे अंबेडकरी आंदोलन पर व्यापक विचार विमर्श के खिलाफ नहीं है,हालांकि वे भी मानते हैं कि अंबेडकर के लिखे परर किसी नये प्रस्तावना की आवश्यकता नहीं है।


उन विद्याभूषण रावत ने अपने आलेख में साफ साफ लिखा हैः

दलित आंदोलन की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि बाबा साहेब आंबेडकर के बाद वैचारिक तौर पर सशक्त  और निष्ठावान नेतृत्व उनको नहीं मिल पायाहांलांकि आम दलित कार्यकर्ता अपने नेताओं के ऊपर जान तक कुर्बान करने को तैयार हैं।आज यदि ये सभी नेता मजबूत दिकायी देते हैं तोइसके पीछे मजबूर कार्यक्रता भी हैं जो अपने नेता के नामपर लड़ने मरने को तैयार हैं।सत्ता से जुड़नाराजनैतिक मजबूरी बन गयी है और इसमेंसारा नेतृत्व आपस में लड़ रहा है।अगर हम शुरु से देखेंतो राजनैतिक आंदोलन के चरित्र का पता चल जायेगा।बाबासाहेब ने समाज के लिे सब कुच कुर्बान किया।उन्होंने वक्त के अनुसार अपनी नीतियां निर्धारित कींलेकिन कभी अपने मूल्य से समझौता नहीं किया।लेकिन बाबासाहेब के वक्तभी बाबू जगजीवन राम थे।हालांकि उनके समर्थक यह कहते हैं कि बाबूजी ने सरकार में दलित प्रतिनिधित्व को मजबूत किया लेकिन अंबेडकरवादी जानते हैं कि उनका इस्तेमालआंबेडकर आंदोलन की धार कुंद करने के लिए किया गया।


रावतभाई ने बड़े मार्के की बात की है कि एक साथ तीन तीन दलित राम के संघी हनुमान बन जाने के विश्वरिकार्ड का महिमामंडन सत्तापरिवर्तन परिदृश्य में सामाजिक न्याय और समता के लक्ष्य हासिल करने केे लिए सत्तापक्ष में दलितों की भागेदारी बतौर ककांग्रेस जगजीवन काल को दोहराने की तर्ज पर किया जा रहा है।


जबकि भाजपा के देर से आये चुनाव घोषणापत्र में राममंदिर का एजंडा अपनी जगह है।हिंदू राष्ट्र के हिसाब से सारी मांगे जस की तस है।अब बाकी बहुजनों से अगर दलित नेतृत्व सीधे कट जाने की कीमत अदा करते हुए सत्ता की चाबी हासिल करने के लिे यह सब कर रहे हैं और मजबूर कार्यकर्ता उसे सही नीति रणनीति बतौर कबूल कर रहे हैं,तो बहस की कोई गुंजाइश ही नहीं है।


जबकि दूसरो का मानना कुछ और हैः,मसलन


''आज की तारीख में गैर-भाजपावाद, गैर-कांग्रेसवाद के मुकाबले ज्‍यादा ज़रूरी है'': यूआर अनंतमूर्ति, प्रेस क्‍लब की एक प्रेस कॉन्‍फ्रेंस में एक सवाल का जवाब

(बुद्धिजीवियों के राजनैतिक हस्‍तक्षेप की बॉटमलाइन)

अब दलितों को यह तय करना है कि सत्ता की चाबी के लिए केसरिया चादर ओढ़कर बाकी जनता से उसे अलहदा होना है या नहीं।गैरभाजपावाद के मुकाबले उसे भाजपावाद का समर्थन करना है या नहीं।

गौरतलब है कि भाजपा ने अपने चुनावी घोषणापत्र में अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण, जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाने और समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दों को शामिल करते हुए लोगों से इन्हें पूरा करने का वायदा किया है ।

क्या यह घोषणापत्र बहुजनहिताय या सर्वजनहिताय जैसे सिद्धांतों के माफिक हैं, क्या जाति व्यवस्था बहाल रखने वाले हिंदुत्व को तिलांजलि देकर गौतम बुद्ध के धम्म का अंगाकार करने वाले बाबासाहेब के अंबेडकरी आंदोलन का रंग नीले के बदल अब केसरिया हो जाना चाहिए,क्यों कारपोरेट फासिस्ट सत्ता की चाबी संघ परिवार में समाहित हुए बिना मिल नहीं सकती ,ऐसा मूर्धन्य दलित नेता,दलितों के तमाम राम ऐसा मानते हैं?

गौरतलब है कि मक्तबाजार के जनसंहारी अश्वमेध और दूसरे चरण के सुधारों के साथ अमेरिकी वैश्वकि व्यवस्था के प्रति प्रतिबद्धता जताने में गुजरात माडल को फोकस करने में भी इस घोषणापत्र में कोई कोताही नहीं बरती गयी है।भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने सोमवार को लोकसभा चुनाव के लिए अपना घोषणा-पत्र जारी किया। घोषणा पत्र में अर्थव्यवस्था व आधारभूत संरचना को मजबूत करने और भ्रष्टाचार मिटाने पर जोर दिया गया है। भाजपा के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी ने लोकसभा चुनाव के प्रथम चरण के मतदान के दिन घोषणा पत्र जारी करते हुए कहा कि हमने घोषणा पत्र में देश के आर्थिक हालात को सुधारने की योजना बनाई है। जहां तक आधारभूत संरचना का सवाल है, विनिर्माण में सुधार महत्वपूर्ण है। साथ ही इसका निर्यातोन्मुखी होना भी जरूरी है। बीजेपी का ब्रांड इंडिया तैयार करने का वादा। हमें ब्रांड इंडिया बनाने की जरूरत है। बीजेपी ने एक भारत श्रेष्‍ठ भारत का नारा दिया है।


जैसा हम लगातार लिखते रहे हैं,जिस पर हमारे बहुजन मित्र तिलमिला रहे हैं,जैसा कि अरुंधति ने लिखा है,जैसा रावत भाई,आनंद तेलतुंबड़े और आनंद स्वरुप वर्मा समेत तमाम सचेत लोग लिखते रहे हैं,कारपोरेट धर्मोन्मादी इस जायनी सुनामी का मुक्य प्रकल्प हिंदूराष्ट्र का इंडिया ब्रांड है। यानी कांग्रेस के बदले अब शंघी भारत बेचो कारोबार के एकाधिकारी होंगे।

इस पर अशोक दुसाध जी ने मंतव्य किया है।सब का लिखा एक ही जैसा है ?! अरूंधती राय जैसा ! अरूंधती एक सफल मार्केटींग एक्जक्यूटिव है जो अम्बेडकर को अंतराष्ट्रीय स्तर पर बेचना चाहती हैं.


गौरतलब है कि भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी एवं अन्य नेताओं द्वारा आज यहां पार्टी मुख्यालय में जारी किए गए 52 पन्नों के घोषणापत्र में सुशासन और समेकित विकास देने का भी वायदा किया गया है। एक पखवाड़े के विलम्ब से जारी घोषणापत्र में कहा गया है कि भाजपा अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के लिए संविधान के दायरे में सभी संभावनाओं को तलाशने के अपने रूख को दोहराती है। राम मंदिर मुद्दे को शामिल करने पर पार्टी के भीतर मतभेदों की खबरों के बारे में पूछे जाने पर घोषणापत्र समिति के अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी ने कहा कि यदि आप अपनी सोच के हिसाब से कुछ लिखना चाहते हैं तो आप ऐसा करने को स्वतंत्र हैं।


जोशी ने कहा कि उन्होंने कहा कि हम जितनी जल्दी ऐसा करेंगे, उतना ही शीघ्र अधिक से अधिक रोजगार का सृजन होगा। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) पर भाजपा के वरिष्ठ नेता ने कहा कि पार्टी केवल खुदरा क्षेत्र में एफडीआई के खिलाफ है। वैसे यह एफडीआई का विरोध नहीं करती, क्योंकि इससे रोजगार का सृजन होगा।


इसी सिलसिले में गौर करे कि तीसरी दुनिया के अपने आलेख में विद्याभूषण रावत ने साफ साफ लिख दिया है कि दलित आंदोलन को केवल सरकारी नौकरियों और चुनावों की राजनीति तक सीमित कर देना उसकी विद्रोहातमक धार को कुंद कर देना जैसा है।आंबेडकर को केवल भारत का कानून मंत्री और भारत का संविधान निर्माता तक सीमित करके हम उनके क्रांतिकारी सामाजिक सांस्कृतिक परिवर्तन के वाहक की भूमिकाको नगण्य कर देते हैं।


रावत भाई ने साफ साफ बता दिया है कि हमें किस अंबेडकर की जरुरत है।मौजूदा बहस का प्रस्थानबिंदू यही है।साफ साफ लिखने के लिए आभार रावत भाई।



हिमांशु जी ने फिर तलवार चला दी है,आजमा लें कि वार निशाने पर हुआ कि नहीं।

अगर आप को देश भक्त बनना है तो कहिये कि सभी इंसान बराबर नहीं होते बल्कि हमारे धर्म को मानने वाले श्रेष्ठ होते हैं और विधर्मी हीन और घृणित होते हैं .


आप को देश भक्त बनना है तो कहिये कि हर देश के नागरिक एक जैसे नहीं होते बल्कि हमारे देश के नागरिक श्रेष्ठ हैं और पड़ोसी देश के नागरिक हीन और घृणित हैं .


अगर आप को देश भक्त बनना है तो कहिये कि देशभक्ति का मतलब है कि हम विधर्मी को मार डालें


अगर आप को देशभक्त बनना है तो कहिये कि देशभक्ति का अर्थ है कि हम अपने पड़ोसी देश को धूल में मिला दें


अगर आप को देश भक्त बनना है तो कहिये कि विधर्मी और पड़ोसी देश को मिटाने वाला सिपाही ही सबसे बड़ा देशभक्त है


अगर आप को देशभक्त बनना है तो सेना और बंदूकों के गुण गाइए .


अगर आप यह सब नहीं करेंगे तो फिर आप पाकिस्तानी एजेंट , नक्सलवादी ,विदेशी पैसों से पलने वाले छद्म सेक्युलर गद्दार कहलाये जायेंगे .


आइये इस पागलपंथी का मुकाबला करें . हर देश में, हर समय .


अब आनंद तेलतुंबड़े के लिखे और हमारे मंतव्य पर एक फतवा भी जारी किया गया है।यह फतवा हमारे सिर माथे।दागी होना बुरा भी नहीं है उतना,जितना कि आंखें होने के बावजूद अंधा हो जाना।


अब आनंद तेलतुंबड़े के लिखे और हमारे मंतव्य पर एक फतवा भी जारी किया गया है।यह फतवा हमारे सिर माथे।दागी होना बुरा भी नहीं है उतना,जितना कि आंखें होने के बावजूद अंधा हो जाना।



प्रचंड नाग का धन्यवाद कि उनकी त्वरित प्रतिक्रिया सबसे पहले मिली


लेफ्ट हो या राइट चाहे फ्रंट हो या साइड एवरीव्हेयर ऑन ब्राह्मण इट केन बी एप्लाइड । व्हाट !



डॉ आंबेडकर सभी प्रकार के ब्राह्मण चाहें वे प्रगतीशीलता का लबादा ओढ़ें हों या सनातनी के चोले में हों , चाहें वे ब्राह्मणवाद का लेफ्ट से पिछवाड़ा धोते हों या ब्राह्मणवाद का राइट से पिछवाड़ा धोते हों हमेशा से दुखती रग रहे हैं । आंबेडकर और आंबेडकरवादी ब्राह्मणों के विभिन्न नामों और बहानों से ब्राह्मणवाद कायम रखने का कोई भी मंसूबा कभी भी पूरा नहीं होने देंगे । यह भी उतना ही सच है कि चाहे कोई भी विदेशी भारत का शासक रहा हो भारत पर ब्राह्मणों का कब्जा और भारत के लोगों पर ब्राह्मणों की पकड़-चंगुल हमेशा रही है । सभी तरह के ब्राह्मण अपनी-अपनी तरकीबों से आंबेडकर और आंबेडकरवाद पर आलोचना और हमला करते रहे हैं । यह इतिहास और वर्तमान से सिद्ध है कि कोई भी ब्राह्मण कभी भी बहुजन हितैषी कभी नहीं रहा और न हो सकता है क्योंकि उसके लिए पहले ब्राह्मण-ब्राह्मणवाद-ब्राह्मणी ग्रंथों और ब्राह्मणी वर्चस्व को दफनाना होगा जिसके लिए कोई भी ब्राह्मण कभी भी तैयार नहीं हो सकता नाटक जरूर कर सकता है । सफलता हाथ न लगती देखकर अब वे चाणक्य की कुटिल नीति का इस्तेमाल कर भ्रम पसराना चाहते हैं और मूर्ख बहुजन उस भ्रम का शिकार हो सकते हैं । हमें आंबेडकर की तलब है पर कौन से आंबेडकर की ! यह भ्रम पसराने की उसी प्रक्रिया का एक हिस्सा है । डॉ आंबेडकर तो केवल डॉ आंबेडकर हैं और उसमें ये बदमाश उस आंबेडकर को ग्रहण करना और हमें ग्रहण करवाना चाहते हैं जो उन्हें मुफीद हो जिससे उनका जरा भी नुकसान न होता हो और ब्राह्मणवाद को जरा भी चोट न पहुँचती हो । बहुजनों को डॉ आंबेडकर बिना काट-छांट के अपनी संपूर्णता में ही चाहिये । ब्राह्मणों को और उनके मतिमंद पिछलग्गू बहुजनों का यहाँ प्रवेश निषिद्ध है ।


नाग जी लंबे अरसे से अंबेडकर आंदोलन से जुड़े हैं।जाहिर सी बात यह है कि वे हमसे बेहतर ही जानते होंगे कि अंबेडकर क्या हैं, अंबेडकरी आंदोलन क्या है और संपूर्ण अंबेडकर क्या हैं।


गनीमत है कि हमारे लोगों का गाली खजाना तो कुछ कमतर है जबकि मोदी के खिलाफ लिखनेवालों को मादर..,बहन...के अलावा चमचा,गुलाम,कमीने, मुसल..के कुत्ते,कांग्रेस के पिल्ले, मुलायम के पट्ठे आदि का बेधडक इस्तेमाल बताता है कि मोदी की साइबरसेना संस्कृतिहीन है। यदि आपलोगों को कुछ गालियां मिली हों तो यहां पर जोड़ सकते हैं।


मुश्किल तो यह है कि जब हम चाहते हैं कि उनके जैसे लोग हमारी बंद आंखे खोल दें कि असल में हम अंबेडकरी राह से भटक कहां रहे हैं और हमारे उस संपूर्ण अंबेडकर का क्या हुआ,तब वे बाकी लोगों की तरह ब्राह्ममों को कोसने लगे।


विडंबना तो यह है कि जिस ब्राह्मणवाद को वे कोस रहे हैं,उसी ब्राह्मणवाद के कब्जे में हैं अंबेडकर और उनके अनुयायी।बहुजन पुरखों के जनांदोलन की समूची विरासत।


विडंबना तो यह है कि जिस ब्राह्मणवाद को वे कोस रहे हैं,मुक्त बाजार का कारपोरेट राज वे ही चला रहे हैं,राष्ट्र और व्यवस्था भी उन्हींके हाथों में,धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के सिपाहसालार भी वे,मुक्तबाजार अर्थव्यवस्था ब्राह्मणवादी वर्णवर्चस्वी एकाधिकारवादी नस्ली आधिपात्य का उत्तरआधुनिक तिलिस्म है,अंबेडकरी आंदोलन के ठेकेदारों ने अंबेडकर को अगवाकर वहीं कैद कर दिया है अपने ही चौतरपा सत्यानाश के लिए जनादेश फिरौती वास्ते।


अंबेडकर को आजाद कराये बिना जाहिर सी बात है कि बहुजनों की खैर है ही नहीं।


इतिहास को देखे तो जाति व्यवस्था में बंटा है सिर्फ भारतीय कृषिजीवी समाज।जल जंगल जमीन और पूरे कायनात में है जिनकी नैसर्गिक आजीविका।


अब उस कृषि के खात्मे के बाद जाति व्यवस्था के शिकार लोगों का कोई वजूद भी है या नहीं और उस मूक जनता की आवाज अंबेडकर की कोई प्रासंगिकता इन बेदखल कत्लगाह में इंतजारी वध्यों को बचाने के सिलसिले में है या नहीं,शहरीकरण और औद्योगीकरण के दायरे से बाहर देहातदेश में यह सबसे बड़ा सवाल है,जहां अंबेडकरी संविधान का कोई राज है ही नहीं।


अंबेडकरी आंदोलन से बाहर है बहुजनों की यह अछूत दुनिया।जो भारतीय लोकतंत्र का ऐसा अखंड गलियारा है,जो वोटकाल में खुलता है और अगले चुनाव तक फिर बंद हो जाता है।


अंबेडकरी आंदोलन की दस्तक भी इसी अवधि में सबसे तेज सुनायी देती है जब तमाम मृतात्माओं का आवाहन तमाम किस्म की साजिशों को अंजाम देने के लिए नापाक इरादों के पेंचकश पेशकश हैं।जिनके बहाने ब्राह्मणी वंशवादी नवब्राह्ममों के सत्ता सिंहासन के वारिसान की खूनी जंग में जाने अनजाने शामिल होने को मजबूर हैं अचानक वोटर सर्वशक्तिमान।


इस दुनिया में सजावटी अंबेडकर मूर्तियां भी आरक्षित डब्बों की तरह नजर नहीं आतीं।


फिर मुक्त बाजार में संरक्षण आरक्षण तो सिर्फ क्रयशक्ति को मिल सकता है,बहुजनों,वंचितों,दलितों को नहीं,इस सच का समना हमने किया ही नहीं है।


विडंबना तो यह है कि  जिस सत्ता की चाबी से हकहकूक के ताला खुलने थे,वह चाबी भी उस सोशल इंजीनियरिंग की वोटबैंकीय समीकरण की फसल है,जिसके मालिक मनुव्यवस्था के धारक वाहक पुरोहिती कर्मकांडी ब्राह्मण ही हैं।बाकी बहुजन आंदोलन और राजनीति उसके हुक्मपाबंद यजमान।


विडंबना तो यह है कि  जिस अंबेडकर की बात वे कर रहे हैं,उन्हें फासिस्ट ब्राह्मणधर्म के हिंदू राष्ट्र का सबसे बड़ा हथियार बना चुके हैं अंबेडकरी मिशन और राजनीति के लोग।


विडंबना तो यह है कि  हम तो इस काबिल भी नहीं कि दो चार लोग हमारी सुन लें,लेकिन वे अंबेडकरी मसीहा जिनके कहे पर लाखों करोड़ों लोग मर मिटने को तैयार हैं,वे सारे के सारे ब्राह्मणी संघ परिवार के कारिंदे और लठैत बन चुके हैं।


हमारी तो औकात ही क्या है,बेहतर हो कि सामाजिक बहिस्कार और प्रतिबंध का फतवा उनपर लगायें जो दलाली और भड़वागिरि में अव्वल होते हुए दूसरों को दलालों और भड़वों को पहचानने की ट्रेनिंग दे रहे हैं।


बेहतर हो कि सामाजिक बहिस्कार और प्रतिबंध का फतवा उनपर लगायें  जो सरे बाजार अंबेडकर बेचकर अंबेडकरी जनता को कहीं का नहीं छोड़ रहे हैं।


बेहतर हो कि सामाजिक बहिस्कार और प्रतिबंध का फतवा उनपर लगायें जो मुक्त बाजार में कारपोरेट हिंदुत्व के औजार में तब्दील हैं,ऐसे औजार जो बहुजनों का गला रेंतने में रबोट से भी ज्यादा माहिर हैं।


मुंह पर अंबेडकरनाम जाप, गले में पुरखों की नामावली और हाथों में तेज छुरी,ऐसे सुपारी किलर के बाड़े में कैद हैं अंबेडकरी जनता।पवित्र गोमाता गोधर्म की रक्षा के लिए जिनकी बलि चढ़ायी जानी है।


हालत कितनी खतरनाक है,इसे हमारे अग्रज आनंद स्वरुप वर्मा ने समकाली तीसरी दुनिया के संपादकीय में सिलसिलेवार बताया है और हस्तक्षेप पर भी वह संपादकीय लगा है।


सबसे खतरनाक बात तो यह है कि इस हिंदुत्व एजंडे को पूरा करने में लगा है अंबेडकरी आंदोलन और जब हम इस आंदोलन की चीड़फाड़ के जरिये फासिस्ट ब्राह्मणवादी नस्ली कारपोरेटराज के मुक्तबाजार के खिलाफ बाबासाहेब और उनके जाति उन्मूलन के एजंडे पर खुली बहस चाहते हैं तो हमीं को ब्राह्मण बताया जा रहा है।


पहले हमारे अग्रज आनंद स्वरुप वर्मा ने जो लिखा है उस पर भी गौर करेंऔर ख्याल करें कि जाति से वे भी सवर्ण नहीं हैं लेकिन उनकी सोच जाति अस्मिता में कैद कभी रही नहीं है और इसीलिए उनकी दृष्टि इतनी साफ हैः


मोदी के आने से चिंता इस बात की है कि वह किसी राजनीतिक दल के प्रतिनिधि के रूप में नहीं बल्कि राजनीतिक दल का लबादा ओढ़कर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जैसे फासीवादी संगठन के प्रतिनिधि के रूप में चुनाव मैदान में है। 1947 के बाद से यह पहला मौका है जब आर.एस.एस. पूरी ताकत के साथ अपने उस लक्ष्य तक पहुँचने के एजेंडा को लागू करने में लग गया है जिसके लिये 1925 में उसका गठन हुआ था। खुद को सांस्कृतिक संगठन के रूप में चित्रित करने वाले आर.एस.एस. ने किस तरह इस चुनाव में अपनी ही राजनीतिक भुजा भाजपा को हाशिए पर डाल दिया है इसे समझने के लिये असाधारण विद्वान होने की जरूरत नहीं है। लाल कृष्ण आडवाणी को अगर अपवाद मान लें तो जिन नेताओं को उसने किनारे किया है वे सभी भाजपा के उस हिस्से से आते हैं जिनकी जड़ें आर.एस.एस. में नहीं हैं। इस बार एक प्रचारक को प्रधानमंत्री बनाना है और आहिस्ता-आहिस्ता हिन्दू राष्ट्र का एजेंडा पूरा करना है। इसीलिये मोदी को रोकना जरूरी हो जाता है। इसीलिये उन सभी ताकतों को किसी न किसी रूप में समर्थन देना जरूरी हो जाता है जो सचमुच मोदी को प्रधानमंत्री बनने से रोक सकें।

इस चुनाव में बड़ी चालाकी से राम मंदिर के मुद्दे को भाजपा ने ठंडे बस्ते में डाल दिया है। अपनी किसी चुनावी सभा में नरेंद्र मोदी ने यह नहीं कहा कि वह राम मंदिर बनाएंगे। अगर वह ऐसा कहते तो एक बार फिर उन पार्टियों को इस बात का मौका मिलता जिनका विरोध बहुत सतही ढंग की धर्मनिरपेक्षता की वजह है और जो यह समझते हैं कि राम मंदिर बनाने या न बनाने से ही इस पार्टी का चरित्र तय होने जा रहा है। वे यह भूल जा रही हैं कि आर.एस.एस की विचारधारा की बुनियाद ही फासीवाद पर टिकी हुयी है जिसका निरूपण काफी पहले उनके गुरुजी एम.एस. गोलवलकर ने अपनी पुस्तक 'वी ऑर ऑवर नेशनहुड डिफाइन्ड' पुस्तक में किया था। उन्होंने साफ शब्दों में कहा था कि 'भारत में सभी गैर हिन्दू लोगों को हिन्दू संस्कृति और भाषा अपनानी होगी और हिन्दू धर्म का आदर करना होगा और हिन्दू जाति और संस्कृति के गौरवगान के अलावा कोई और विचार अपने मन में नहीं लाना होगा।' इस पुस्तक के पांचवें अध्याय में इसी क्रम में वह आगे लिखते हैं कि 'वे (मुसलमान) विदेशी होकर रहना छोड़ें नहीं तो विशेष सलूक की तो बात ही अलग, उन्हें कोई लाभ नहीं मिलेगा, उनके कोई विशेष अधिकार नहीं होंगे-यहां तक कि नागरिक अधिकार भी नहीं।'

भाजपा के नेताओं से जब इस पुस्तक की चर्चा की जाती है तो वह जवाब में कहते हैं कि वह दौर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई का था और उस परिस्थिति में लिखी गयी पुस्तक का जिक्र अभी बेमानी है। लेकिन 1996 में तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने आधिकारिक तौर पर इस पुस्तक से पल्ला झाड़ते हुये कहा कि यह पुस्तक न तो 'परिपक्व' गुरुजी के विचारों का और न आरएसएस के विचारों का प्रतिनिधित्व करती है। यह और बात है कि इस पुस्तक के प्रकाशन के एक वर्ष बाद ही 1940 में गोलवलकर आरएसएस के सरसंघचालक बने। काफी पहले सितंबर 1979 में समाजवादी नेता मधु लिमये ने अपने एक साक्षात्कार में गोलवलकर की अन्य पुस्तक 'बंच ऑफ थाट्स' के हवाले से बताया था कि गोलवलकर ने देश के लिये तीन आंतरिक खतरे बताए हैं-मुसलमान, ईसाई और कम्युनिस्ट।

पूरा आलेख यहां देखेंः


चुनावी बिसात पर सजी मोहरें और हिन्दू राष्ट्र का सपना

http://www.hastakshep.com/intervention-hastakshep/views/2014/04/06/%E0%A4%9A%E0%A5%81%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A5%80-%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A4-%E0%A4%AA%E0%A4%B0-%E0%A4%B8%E0%A4%9C%E0%A5%80-%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%B9%E0%A4%B0%E0%A5%87


इसी बीच भाजपा से आरक्षण आधारित संसाधनों और अवसरों के न्यायपूर्ण डायवर्सिटी मांगने वालों के लिए बुरी खबर है।अंबरीश कुमार ने लिखा हैः

अब आरक्षण के सवाल पर भाजपा कांग्रेस को घेरने की कवायद शुरू हो गई है। यह पहलसर्वजन हिताय संरक्षण समिति उप्र के अध्यक्ष शैलेन्द्र दुबे ने की जो प्रमोशन में आरक्षण के खिलाफ उत्तर प्रदेश में बड़ा आन्दोलन कर चुके हैं और उस दौर में भाजपा के नेताओं का पुतला भी फूंका गया था। इस बारे में संविधान संशोधन बिल का भाजपा ने समर्थन किया था। इस वजह से अगड़ी जातियां भाजपा के विरोध में खड़ी गई थीं। अब यह जिन्न अगर बोतल से बाहर आया तो भाजपा के लिये दिक्कत पैदा हो सकती है।

शैलेन्द्र दुबे ने कहा- पदोन्नति में आरक्षण प्रदान करने के लिये राज्य सभा में पारित 117वें संविधान संशोधन बिल को वापस कराने के लिये सर्वजन हिताय संरक्षण समिति ने भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह से कल लखनऊ में मिलकर उन्हें ज्ञापन दिया। समिति ने यह माँग की कि वे इस बाबत अपने चुनाव घोषणा-पत्र में दल की नीति स्पष्ट करें।

पूरी रपट कृपया हस्तक्षेप पर देखें।


अभी इस बहस में भागेदारी के लिए मौजूदा परिदृश्य को समझने का दिलोदिमाग जरुरी है। इस सिलसिले में आनंद तेलतुंबड़े का यह विश्लेषण बेहद प्रासंगिक हैः

आंबेडकर की विरासत

हालांकि आंबेडकर ने हिंदू धर्म में सुधारों के विचार के साथ शुरुआत की थी जिसका आधार उनका यह खयाल था कि जातियां, बंद वर्गों की व्यवस्था हैं [कास्ट्स इन इंडिया]. यह घेरेबंदी बहिर्विवाह और अंतर्विवाह के व्यवस्था के जरिए कायम रखी जाती है। व्यवहार में इसका मतलब यह था कि अगर अंतर्विवाहों के जरिए इस व्यवस्था से मुक्ति पा ली गई तो इस घेरेबंदी में दरार पड़ जाएगी और जातियां वर्ग बन जाएंगी। इसलिए उनकी शुरुआती रणनीति यह बनी थी कि दलितों के संदर्भ में हिंदू समाज की बुराइयों को इस तरह उजागर किया जाए कि हिंदुओं के भीतर के प्रगतिशील तत्व सुधारों के लिए आगे आएं। महाड में उन्होंने ठीक यही कोशिश की है। हालांकि महाड में हुए कड़वे अनुभव से उन्होंने नतीजा निकाला कि हिंदू समाज में सुधार मुमकिन नहीं, क्योंकि इनकी जड़ें हिंदू धर्मशास्त्रों में गड़ी हुई थीं। तब उन्होंने सोचा कि इन धर्मशास्त्रों के पुर्जे उड़ाए बगैर जातियों का खात्मा नहीं होगा [एनाइहिलेशन ऑफ कास्ट]। आखिर में, अपनी मृत्यु से कुछ ही पहले उन्होंने वह तरीका अपनाया जो उनके विचारों के मुताबिक जातियों के खात्मे का तरीका था: उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया। इतना वक्त बीत जाने के बाद, आज इस बात में कोई भी उनके विश्लेषण के तरीके की कमियों को आसानी से निकाल सकता है। लेकिन जातियों का खात्मा आंबेडकर की विरासत के केंद्र में बना रहा। इस दौरान उन्होंने जो कुछ भी किया वह दलितों को सशक्त करने के लिए किया ताकि वे उस जाति व्यवस्था के खात्मे के लिए संघर्ष कर सकें, जो उनकी निगाह में 'स्वतंत्रता, समानता, भाईचारे' को साकार करने की राह में सबसे बड़ी रुकावट थी। चूंकि मार्क्सवादियों के उलट वे यह नहीं मानते थे कि इतिहास किसी तर्क के आधार पर विकसित होता है, कि इसकी गति को कोई नियम नियंत्रित करता है, इसलिए उन्होंने वह पद्धति अपनाई जिसे व्यवहारवाद कहा जाता है। इसमें उनपर कोलंबिया में उनके अध्यापक जॉन डिवी का असर था।


व्यवहारवाद एक ऐसा नजरिया है जो सिद्धांतों या विश्वासों का मूल्यांकन, व्यावहारिक रूप से उन्हें लागू करने में मिली कामयाबी के आधार पर करता है। यह किसी विचारधारात्मक नजरिए को नकारता है और सार्थकता, सच्चाई या मूल्य के निर्धारण में बुनियादी कसौटी के रूप में व्यावहारिक नतीजों पर जोर देता है. इसलिए यह मकसद की ईमानदारी और उसको अमल में लाने वाले के नैतिक आधार पर टिका होता है। आंबेडकर का संघर्ष इसकी मिसाल है। अगर इस आधार से समझौता कर लिया गया तो व्यवहारवाद का इस्तेमाल दुनिया में किसी भी चीज़ को जायज ठहराने के लिए किया जा सकता है। और आंबेडकर के बाद के आंदोलन में ठीक यही हुआ। दलित नेता 'आंबेडकरवाद' या दलित हितों को आगे ले जाने के नाम पर अपना मतलब साधने में लगे रहे। भारत की राजनीति का ताना-बाना कुछ इस तरह का है कि एक बार अगर आप पैसा पा जाएं तो आप अपने साथ जनता का समर्थन होने का तमाशा खड़ा कर सकते हैं। एक बार यह घटिया सिलसिला शुरू हो जाए तो फिर इसमें से बाहर आना मुमकिन नहीं। इसी प्रक्रिया की बदौलत एक बारहवीं पास आठवले करोड़ों रुपए की संपत्ति जुटा सकता है, और उस आंबेडकर की विरासत का दावा कर सकता है जो बेमिसाल विद्वत्ता और दलितों-वंचितों के हितों के प्रति सर्वोच्च प्रतिबद्धता के प्रतीक हैं। करीब करीब यही बात दूसरे रामों और उनके जैसे राजनीतिक धंधेबाजों के बारे में भी कही जा सकती है। उनका सारा धंधा आंबेडकर और दलित हितों की तरक्की के नाम पर चलता है।

दलित हित क्या हैं?

अपने निजी मतलब को पूरा के लिए बेकरार ये सभी दलित हितों की पुकार मचाते हैं. दलित नेताओं में यह प्रवृत्ति तब भी थी जब आंबेडकर अभी मौजूद ही थे. तभी उन्होंने कांग्रेस को जलता हुआ घर बताते हुए उसमें शामिल होने के खिलाफ चेताया था. जब कांग्रेस ने महाराष्ट्र में यशवंत राव चह्वाण के जरिए दलित नेतृत्व को हथियाने का जाल फैलाया तो आंबेडकरी नेता उसमें जान-बूझ कर फंसते चले गए. बहाना यह था कि इससे वे दलित हितों की बेहतर सेवा कर पाएंगे. उन्होंने जनता को यह कहते हुए भी भरमाया कि आंबेडकर ने नेहरू सरकार में शामिल होकर कांग्रेस के साथ सहयोग किया था. भाजपा उस हजार चेहरों वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का राजनीतिक धड़ा है, जो हिंदुत्व पर आधारित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की पैरोकारी करता है. उसने संस्कृति और धर्म का यह अजीब घालमेल जनता को भरमाने के लिए किया है. यह भाजपा अंबडकरियों के लिए सिर्फ एक अभिशाप ही हो सकती है. असल में अनेक वर्षों तक यह रही भी, लेकिन अब ऐसा नहीं है. आरएसएस ने समरसता (समानता नहीं बल्कि सामाजिक सामंजस्य) का जाल दलित मछलियों को फंसाने के लिए फेंका और इसके बाद अपनी सख्त विचारधारा में थोड़ी ढील दी. दिलचस्प है कि दलित हितों के पैरोकार नेता, शासक वर्ग (और ऊंची जातियों) की इन पार्टियों को तो अपने ठिकाने के रूप में पाते हैं लेकिन वे कभी वामपंथी दलों पर विचार नहीं करते हैं, जो अपनी अनगिनत गलतियों के बावजूद उनके स्वाभाविक सहयोगी थे. इसकी वजह सिर्फ यह है कि वामपंथी दल उन्हें वह सब नहीं दे सके, जो भाजपा ने उन्हें दिया है.


तो फिर दलित हितों का वह कौन सा हौवा है, जिसके नाम पर ये लोग यह सारी करतब करते हैं? क्या वे यह जानते हैं कि 90 फीसदी दलितों की जिंदगी कैसी है? कि भूमिहीन मजदूरों, छोटे-हाशिए के किसानों, गांवों में कारीगरों और शहरों में झुग्गियों में रहने वाले ठेका मजदूरों और शहरी अर्थव्यवस्था के अनौपचारिक सेक्टर में छोटे मोटे फेरीवाले की जिंदगी जीने वाले दलित किन संकटों का सामना करते हैं? यहां तक कि आंबेडकर ने भी अपनी जिंदगी के आखिरी वक्त में यह महसूस किया था और इस पर अफसोस जताया था कि वे उनके लिए कुछ नहीं कर सके. आंशिक भूमि सुधारों के पीछे की पूंजीवादी साजिशों और हरित क्रांति ने गांवों में पूंजीवादी संबंधों की पैठ बना दी, जिसमें दलितों के लिए सुरक्षा के कोई उपाय नहीं थे. इन कदमों का दलित जनता पर विनाशकारी असर पड़ा, जिनके तहत अंतर्निर्भरता की जजमानी परंपरा को नष्ट कर दिया गया. देहातों में पहले से कायम ऊंची जातियों के जमींदारों को बेदखल करके उनकी जगह लेने वाले, सांस्कृतिक रूप से पिछड़ी शूद्र जातियों के धनी किसानों द्वारा क्रूर उत्पीड़न के लिए दलितों को बेसहारा छोड़ दिया. ब्राह्मणवाद का परचम अब उन्होंने अपने हाथों में ले लिया था. बीच के दशकों में आरक्षण ने उम्मीदें पैदा कीं, लेकिन वे जल्दी ही मुरझा गईं. जब तक दलितों को इसका अहसास होता कि उनके शहरी लाभान्वितों ने आरक्षणों पर एक तरह से कब्जा कर रखा है, कि नवउदारवाद का हमला हुआ जिसने आरक्षणों को पूरी तरह खत्म ही कर दिया. हमारे राम इन सब कड़वी सच्चाइयों से बेपरवाह बने रहे और बल्कि उनमें से एक, उदित राज, ने तो आरक्षण के एक सूत्री एजेंडे के साथ एक अखिल भारतीय संगठन तब शुरू किया, जब वे वास्तव में खत्म हो चुके थे. जनता को आरक्षण के पीछे छिपी शासक वर्ग की साजिश को दिखाने के बजाए, वे शासक वर्ग की सेवा में इस झूठे आसरे को पालते-पोसते रहने को तरजीह देते हैं. क्या उन्हें यह नहीं पता कि 90 फीसदी दलितों की जरूरतें क्या हैं? उन्हें जमीन चाहिए, सार्थक काम चाहिए, मुफ्त और उचित और बेहतर शिक्षा चाहिए, स्वास्थ्य की देखरेख चाहिए, उनकी लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति के लिए जरूरी ढांचे चाहिए और जाति विरोधी सांस्कृतिक व्यवस्था चाहिए. ये हैं दलितों के हित, और अफसोस इस बात है कि किसी दलित राम द्वारा उनकी दिशा में बढ़ना तक तो दूर, उनको जुबान तक पर नहीं लाया गया है.

भाजपाई राम के हनुमान

यह बात एक सच्चाई बनी हुई है कि ये राम दलित हितों के नाम पर सिर्फ अपना फायदा ही देखते हैं. उदित राज इनमें से सबसे ज्यादा जानकार हैं, अभी कल तक संघ परिवार और भाजपा के खिलाफ हर तरह की आलोचनाएं करते आए हैं जो अगर कोई देखना चाहे तो उनकी किताब 'दलित्स एंड रिलिजियस फ्रीडम' में यह आलोचना भरी पड़ी है. उन्होंने मायावती को बेदखल करने के लिए सारी तरकीबें आजमा लीं और नाकाम रहने के बाद अब वे उस भाजपा की छांव में चले गए हैं, जो खुद उनके ही शब्दों में दलितों का सबसे बड़ा दुश्मन है. दलितों के बीच उनकी जो कुछ भी थोड़ी बहुत साख थी, उसका फायदा भाजपा को दिलाने के लिए वे हनुमान की भूमिका अदा कर रहे हैं. दूसरे दोनों राम, पासवान और आठवले ने उदित राज के उलट भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए में शामिल होने का फैसला किया है. वे दलितों में अपने छोटे-मोटे आधारों के बूते बेहतर सौदे पाने की कोशिश कर रहे हैं: पासवान को सात सीटें मिली हैं, जिनमें से तीन उनके अपने ही परिवार वालों को दी गई हैं, और आठवले को उनकी राज्य सभा सीट के अलावा एक सीट दी गई है. बीते हुए कल के कागजी बाघ आठवले नामदेव ढसाल के नक्शे-कदम पर चल रहे हैं, जो बाल ठाकरे की गोद में जा गिरे थे. उस बाल ठाकरे की गोद में, जो आंबेडकर और आंबडेकरी दलितों से बेहद नफरत करता था. ये काबिल लोग अपने पुराने सहयोगियों द्वारा 'दलितों के अपमान' (अपने नहीं) को भाजपा के साथ हाथ मिलाने की वजह बताते हैं. आठवले का अपमान तब शुरू हुआ जब उन्हें मंत्री पद नहीं मिला. उन्हें तब शर्मिंदगी नहीं महसूस हुई जब उन्होंने दलितों द्वारा मराठवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम आंबेडकर के नाम पर रखने के लिए दी गई भारी कुर्बानी को नजरअंदाज कर दिया और विश्वविद्यालय के नाम को विस्तार दिए जाने को चुपचाप स्वीकार कर लिया था. और न ही उन्हें तब शर्मिंदगी महसूस हुई जब उन्होंने दलित उत्पीड़न के अपराधियों के खिलाफ दायर मुकदमों को आनन-फानन में वापस ले लिया. ये तो महज कुछ उदारण हैं, पासवान और आठवले का पूरा कैरियर दलित हितों के साथ ऐसी ही गद्दारी से भरा हुआ है.








सबसे ज्यादा विवेचनीय समकालीन तीसरी दुनिया में प्रकाशित अनिल चौधरी के लिखा यह मंतव्य हैः


दोध्रुवीय राजनैतिक व्यवस्था का विकास धीरे-धीरे ऐसी दो पुंजीपरस्त पार्टियों की हवा बना कर होता है जिनकी वैचारिक विरासत और ऐतिहासिक यात्रा अमूमन अलग होती है। वे एक दूसरे पर लगातार प्रचारात्मक आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला तो चलाये रखते हैं लेकिन 'नव-उदारवादी' प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाने की मूल व्यवस्थाओं पर साथ खड़े होने से गुरेज नहीं करते। उनके बीच का पफर्क पेप्सी और कोका कोला के बीच के पफर्क जैसा होता है और उनके बीच की प्रतिस्पर्ध और झगड़े भी उन दोनों कंपनियों की प्रतिस्पर्ध की तर्ज पर ही होते हैं और नतीजे भी एक जैसे ही निकलते हैं। यानी कि किसी भी तीसरे प्रतिद्वंद्वी का सफाया और भोजन-पानी व्यापार पर दो अमेरिकी कंपनियों का वर्चस्व, जिसके शायद तमाम निवेशकों का पैसा दोनों ही कंपनियों में लगा होगा। जिन लोगों ने पेप्सी और कोक दोनों का सेवन किया होगा वे बता पायेंगे कि दोनों के स्वाद में दस पफीसद से ज्यादा का पफर्क न होगा। ठीक इसी तरह दोध्रुवीय राजनैतिक व्यवस्था में भी दो मुख्य पार्टियों के बीच का फर्क भी शायद दस पफीसद से ज्यादा का नहीं रहता और वह भी विचारधरा और कार्यक्रम के आधार पर न आधरित होकर कार्यप(ति पर अध्कि आधरित होता है। साथ ही किसी तीसरे प्रतिद्वंद्वी या नव-उदारवाद विरोधी् दलों के लिए संसदीय प्रक्रिया में कोई जगह नहीं बचती और मतदाता अपने को असहाय पाता है।

अमेरिका की दोध्रुवीय राजनैतिक व्यवस्था में अभी हाल में हुए चुनावों में इसे स्पष्ट देखा जा सकता है। युद्ध-विरोधी् जन-आंदोलन रहे हों या ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट का जन-उभार, चुनावों पर उनका कोई असर नहीं पड़ पाता। सत्ता हमेशा रिपब्लिकन से डेमोक्रेट और डेमोक्रेट से रिपब्लिकन के बीच झूलती रहती है और पूंजीतंत्रा की सेवा करती है।

हमारे संसदीय प्रजातंत्रा में भी कुछ ऐसा ही घटित हो रहा है। पिछले तीन दशकों में धीरे-धीरे कुछ ऐसी परिस्थितियों का निर्माण हुआ, जिसमें दो पुंजीपरस्त पार्टियां- कांग्रेस और बीजेपी दो ध्रुवों के रूप में स्थापित की गईं। बीजेपी अपने पूर्वजन्म ;जनसंघद्ध के जमाने से 'मुक्त व्यापार' की झंडाबरदार रही और अमेरिका तथा इजरायल को भारत का स्वाभाविक मित्रा मानने वाली पार्टी रही है। लेकिन पांच से अध्कि साल तक सत्ता में रहने के बावजूद अपने इस वैचारिक एजेंडे को वह ज्यादा मूर्त रूप नहीं दे सकी। आज कोई भी स्पष्ट देख सकता है कि 'मुक्त व्यापार' की नीतियों और उनका विस्तार करने का सेहरा कांग्रेस के ही सिर बंध हुआ है। भारत की विदेशनीति को अमेरिकापरस्त और इजरायलपक्षीय बना देने की कवायद भी कांग्रेस के नेतृत्व ने ही बखूबी अंजाम दी है। वैचारिक विरासत और ऐतिहासिक भूमिकाओं की भिन्नता के बावजूद वर्तमान गवाह है कि 'संघ परिवार' के इन दोनों सपनों को कांग्रेस ने अपनी ध्रोहर को दरकिनार कर अंजाम दिया है। बीजेपी के भारत को एक 'हार्डस्टेट' ;पुलिसिया राष्ट्रद्ध के रूप में स्थापित करने के सपने को भी साकार करने में पिछले दस वर्षों का कांग्रेसी शासन बड़ी शिद्दत से लगा हुआ दिखाई देता है। दस पफीसद का जो पफर्क बताया जाता है, इन दोनों के बीच वह 'सांप्रदायिकता' के मामले को लेकर है। सन 2004 तक यह पफर्क कुछ हद तक दिखता था लेकिन पिछले दस वर्षों के आचरण ने इसे भी धुमिल कर दिया है।

कांग्रेस के नेतृत्व में बनी यूपीए-1 और यूपीए-2 की सरकारों का रिकार्ड 'सांप्रदायिकता' के मोर्चे पर अत्यंत निराशाजनक रहा है। पूर्व के जघन्य सांप्रदायिक अपराधें/नरसंहारों पर कार्रवाई करने की मंशा या संकेत भी कांग्रेस सरकार ने नहीं दिये। इन वर्षों में हुए सांप्रदायिक हमलों और घटनाओं में कांग्रेस शासन ने कोई भी हस्तक्षेप नहीं किया। भविष्य में सांप्रदायिकता को सीमित रखने के लिये कानून बनाने की चर्चा तो चली लेकिन कांग्रेस के नेतृत्व ने इस मुद्दे पर वह तत्परता नहीं दर्शायी जो उसने 'भारत-अमेरिका परमाणु समझौते' या 'खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश' के मुद्दे पर दिखाई।

फिर भी समूचा पुंजीतंत्रा, उसके संस्थान और उसका मीडिया कांग्रेस और बीजेपी को संसदीय राजनीति के दोध्रुवीय के रूप में स्थापित करने और किसी तीसरे की संभावनाओं को जड़ से खारिज करने में ओवरटाइम लगा हुआ है। पिछले दो दशकों में एनडीए और यूपीए, क्रमशः बीजेपी और कांग्रेस रूपी खंबों पर तने दो तंबुओं की तरह स्थापित हुए हैं। संसदीय व्यवस्थाएं इस तरह से अनुकूलित हैं कि सत्ता के खेल में बने रहने के लिए अन्य पार्टियों के लिए इन दोनों तंबुओं में से एक में घुसना अनिवार्य हो गया है। इसी के चलते पिछले दो दशकों से इन दोनों में से कोई भी पार्टी खुद की सरकार बनाने के लिए चुनाव में नहीं उतारती बल्कि सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरने के लिए चुनाव लड़ती है और सरकार बनाने का न्योता प्राप्त करना उसका उद्देश्य होता है। एक बार वह मिल जाने के बाद अन्य दलों का उसके तंबू में शामिल होना स्वतः ही शुरू हो जाता है। इस तरह संसदीय राजनीति में दोध्रुवीय प्रवृत्ति जड़ पकड़ती जा रही है।


इसी सिलसिले में राजीवनयन दाज्यू ने रंगभेदी क्रिकेट कैसिनो पर जो लिखा है,राजनीति के लिए भी वह मौजू है।हम न क्रिकेट खेलते हैं और न राजनीति।

धन्यवाद देता हूँ की मुझे क्रिकेट खेलना तो क्या , देखना भी नहीं आता . ब्रिटेन ने अपने उपनिवेशों को यह फिरंग रोग लगा दिया . चीन , जापान , अमेरिका , जर्मनी आदि महा शक्तियों को इससे कुछ लेना देना नहीं है . लेकिन भारत समेत पाकिस्तान , सीलोन , बंगला देश आदि इस ना मुराद खेल के पीछे अपना धन और समय बर्बाद करते हैं . सब नंगे भूके हैं , लेकिन एक दुसरे को क्रिकेट में हराने के लिए उन्मादित हैं . शुक्र है की कल भारत हार गया , और मैं रात भर पटाखों की धमक के आतंक से बच गया . मित्र ने मेरे रात्रि विश्राम और योगक्षेम की शानदार व्यवस्था की थी , जिसके फलस्वरूप ( और भारत की हार के भी ) रात आराम से गुजरी और अल सुबह उठ गया

हमारे गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी ने खूब लिखा है

देश गहरे संकट में है, संसद मे गुंडे और नचनियों की पह्ले ही भरमार होने लगी है. राज्य सभा जो चुने हुए विवेक सम्पन्न लोगों की सभा के रूप में परिकल्पित हुई थी, जनमत जुटाने में असफल घुसपैठियों का अड्डा बन गयी है. प्रजातंत्र पैसा फैंको, तमाशा देखो बन गया है. जनता के लिए एक ही विकल्प रह गया है कि वह किस खाई में गिरे, मोदी, मुलायम, राहुल, मायावती, सब के सब किसी न किसी बहाने जनमत को खरीदने या बरगलाने में लगे हैं. आर.एस.एस. का मुखौटा मोदी कम बड़ा खतरा नहीं है. विकास तो जैसा होगा, उससे अधिक चौड़ी खाई मुह बाये खड़ी रहेगी. पता नहीं इस देश की अगली पीढ़ी का क्या होगा?

अगली पीढी की हालत भले ही जस की तस रहे पर उसे यह तो सिखाया ही जायेगा 'गर्व से कहो कि हम मनुष्य नहीं हैं हिन्दू हैं.

पहचान की राजनीति सुभाष गाताडे


और राजीवनयन बहुगुणा का यह रामवाण भी

क्रूर और कायर संघी तभी तक दहाड़ते हैं , जब तक सामने वाला विनम्र हो . इनसे सख्ती से पेश आओ . गाली का जवाब गाली और गोली का जवाब गोली से दो . सबको याद होगा , की इमर जेंसी में किस तरह जेल जाते ही सर संघ चालक दत्ता त्रय देवरस ने इंदिरा गांधी को लिखित माफ़ी नामा दे कर विनय पत्रिका भेजी थी . यह भी सभी को विदित है की १९४२ के भारत छोडो आन्दोलन के दौरान इन्होने किस तरह अंग्रेजों से मिल कर देश के साथ गद्द्दारी की . हिंसक व्यक्ति हमेशा डर पोक होता है . बिना सुरक्षा के लघु शंका भी नहीं जा सकता . ये देश के टुकड़े टुकड़े करें , इससे पहले इन पर क़ाबू पाओ

नीलाभ अश्क का लिखा यह भी देख लेंः

दोस्तो,

सियासत में बड़े-बड़े चक्कर हैं, दांव-पेंच हैं. अब यही देखिये कि हमारे लोकतन्त्र की यह ख़ासियत ही कही जायेगी कि उसने शरीर और आत्मा को अलग-अलग करने का नायाब साधन खोज निकाला है. यह यहीं हो सकता है कि सिंहासन पर कोई बैठा हो और उसकी हरकतों को संचालित करने वाली डोरियां किसी और के हाथ में हों. यह कोई गोरख-धन्धा नहीं है, बात अभी के अभी साफ़ हुई जाती है.


आप ने अगर कल की सबसे महत्वपूर्ण ख़बर पर ध्यान दिया हो तो आपको यह पहेली समझ में आ जायेगी. मेरा इशारा आध-पौन घण्टे तक चले उस घटनाक्रम की तरफ़ है जब भा.ज.पा. के अध्यक्ष ने "अबकी बार भा.ज.पा. सरकार" का नारा बुलन्द किया, मगर जल्द ही उन्हें क़दम पीछे खींच कर तब्दीली करनी पड़ी और नया नारा "अबकी बार मोदी सरकार" जारी करना पड़ा. क्या मोदी सरकार भा.ज.पा. सरकार नहीं है ? अगर है तो नारे को वापस लेने की शरमिन्दगी भा.ज.पा. अध्यक्ष को क्यों उठानी पड़ी ? और अगर मोदी सरकार भा.ज.पा. सरकार नहीं है तो वह किस दल की सरकार है ? क्योंकि मोदी तो किसी राजनैतिक दल का नाम नहीं है.


दरअसल, यह बात खुल कर सामने आ गयी है कि इस बार नरेन्द्र मोदी की हवा को देख कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने फ़ैसला किया है कि लगे हाथ अपनी गोटी लाल कर ली जाये. आज के हिन्दुस्तान टाइम्स में सीताराम येचुरी ने भी इसकी ओर इशारा किया है. पिछले दिनों नरेन्द्र मोदी और रा.स्व.सं. के सर्वेसर्वा सरसंघचालक मोहन भागवत के बीच हुई बैठक में ग़ालिबन इसी रणनीति पर सहमति बनी है.


क्या मोदी को ख़ुद यह नहीं सन्देश देना चाहिये कि वे एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था में गठित राजनैतिक दल के एक प्रत्याशी हैं और उसी घोषणा-पत्र के तहत चुनाव लड़ रहे हैं जो भा.ज.पा. ने जारी किया है ? या फिर क्या नरेन्द्र मोदी का कोई और -- सम्भवत: रहस्यमय -- एजेण्डा है ?


अद्वैतवाद के सब से बड़े प्रतिनिधि देश में यह द्वैतवाद कितने लोगों की आंखों में धूल झोंक सकेगा यह देखने की बात है. पर इतना तय है कि यह पहला चुनाव होगा जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भा.ज.पा. ने यह संकेत दे दिया है कि आत्मा कौन है और शरीर कौन. या असली चेहरा किसका है और मुखौटा किसका.


अगर जनता को जनार्दन माना जाये तो लिखावट साफ़ है -- पहले आत्मा फिर परमात्मा, और यह पहेली अबूझ नहीं.


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