BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Tuesday, March 25, 2014

बिन चुनाव इस लोकतंत्र को अपने इन बेहाल गरीब मतदाताओं की याद कब आयेगी?


बिन चुनाव इस लोकतंत्र को अपने इन बेहाल गरीब मतदाताओं की याद कब आयेगी?





एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास



क्या होगा इस देश का जहा 77% से ज्यादा जनसंख्या है गरीबी रेखा के नीचे। जी हां,असली आंकड़ा यही है।


चुनाव आ रहे हॅ और हर राजनैतिक दल यह एक मुद्दा उठा रहा है। असल मे गरीबी सिर्फ एक ताश का पत्ता है जिसका इस्तेमाल इस ताश के खेल मे जोकर की तरह होता है।बस,इसके इस्तेमाल के लिए बहुसंख्य आम जनता को सिर्फ गरीब बनाके रख दिया जाता है।इस वर्ग का सशक्तीकरण हो जाये,तो राजनीति का सारा खेल गुड़गोबर। राजनीतिक शतरंज पर ये गरीब लोग पैदल सेनाएं अनंत हैं।शह और मात के अंजाम के कातिर हर चाल में इस पैदल सेना की कुर्बानी दी जाती है।


मजा तो यह है कि राजनेता गरीबों की बदहाली पर घड़ियाली आंसू बहाने से कभी बाज नहीं आते।गरीबी चुनावी मुद्दा तो है,लेकिन गरीबी खत्म करने की कोई परिकल्पना और उसके लिए ईमानदार कार्यक्रम किसी के पास नहीं है।


1971 के मध्यावधि चुनाव में बाकायदा बांग्लादेश युद्ध में विजय की पृष्ठभूमि में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने कांग्रेस के भीतर कुंडली मारकर बैठे सिंडिकेट के सर्वव्यापी प्रभाव के खात्मे के लिए गरीबी हटाओ का नारा दिया था।जिसके तहत राष्ट्रीयकरण की नीति चली थी।


विडंबना देखिये,अब उसी कांग्रेस की अगुवाई में सन 1971 के बीस साल बाद 1991 से निजीकरण के तहत गरीबी हटाने के लिए गरीबों की क्रयशक्ति बढ़ाकर उन्हें मुत्क बाजार का उपभोक्ता बनाने की मुहिम चलायी जा रही है।अब भी आर्थिक सुधारों के जरिये देश की अरथव्यवस्था की बुनियाद कृषि और उत्पादनप्रणाली दोनों को ध्वस्त करने वाली कांग्रेस के प्रधानमंत्रित्व के दावेदार राहुल गांधी गरीबी के मुद्दे पर ही चुनाव लड़ रहे हैं।


नरेंद्र मोदी के हिंदुत्ववादी विकास और अरविंद केजरीवाल के भ्रष्टाचार के खिलाफ खुली जंग के अलावा रंग बिरंगी अस्मिताओं के खिलाफ कांग्रेस की पूंजी अब भी गरीबी है।


हकीकत तो यह है कि तरह तरह की सामाजिक परियोजनाें चलाने वाली सुधार सरकारें आंकड़ों और परिभाषाओं में गरीबी खत्म कर रही हैं।कभी गरीबी रेखा की परभाषा 32 रुपये हैं तो कभी 27 रुपये।लेकिन गरीबी रेखा के आर पार गरीबी के साम्राज्य में खरोंच तक नहीं आयी है।नकदी नदी के प्रवाह का विस्तार तो हुआ लेकिन मंहगाई, मुद्रास्फीति, बेरोजगारी और बेदखली के चौतरपा मार से गरीबो के संरक्षक लोक गणराज्य भारत का वजूद ही खत्म है।


आज चुनाव सूचना महाविस्पोट के दम पर लड़ा जा रहा है।महानगरों, कस्बों और औद्यगिक इकाइयों को आधारक्षेत्र बनाकर रथी महारथी कुरुक्षेत्र जीतने का दम भर रहे हैं।इसके उलट भारत देश में आज भी लाखों गांव ऐसे हैं,इस इक्कीसवीं सदी में भी जहां जिला शहर से घंटेभर की दूरी तक सूचना महाविस्पोट का कोई धमाका नहीं है।वहां रोजनामचा बिना अखबार चल रहा है।बिना टीवी लोगों का गुजरबसर हो रहा है। लहरं की जद से बाहर हैं वे गांव।लेकिन उनका भी मताधिकार है।जनादेश निर्माण में उनकी भी भूमिका होगी।लेकिन वे हिसाब से बाहर हैं।किसी सर्वे में उन गांवों का कोई वजूद ही नहीं है।


इसके अलावा स्थानीय रोजगार से वंचित जो प्रवासी भारत अपने महानगरों, भिन्न राज्यों ,घरेलू नगरों ,औद्योगिक इकाइयों में घूमंतू हैं,जो विकास की कीमत पर बेदखल गंदी बस्तियों के वाशिंदे हैं,उनकी गरीबी मापने की कोई परिभाषा नहीं है।जो आदिवासी गांव,जो बहुसंख्यआदिवासी गांव हैं,बतौर राजस्व गांव चिन्हित नहीं है और मुख.धारा के महासमुंदर में बिंदु समान अलगाव के द्वीप हैं जो,वहां तो गरीबी रेखा पाताल लोक में हैं।उनकी एकमात्र बुनियादी जरुरत खाना और कपड़ा तक दे नहीं पाता महाशक्ति भारत।


कोलकाता,मुंबई और नई दिल्ली के आसपास बसी बस्तियों की गरीब आबादी भी इस देश के असली भूगोल है।कोलकाता में रल पटरियों के दोनों तरफ की आबादी किसी महानगर से कम नहीं है।प्लेटफार्म के नीचे सुरंगों में भी रहते हैं लोग।सबवे में आशियाना है। पानी के मोटे पाइपों,फुटपाथों पर गुजरबसर करते लोग तो विकास के आंकड़ो के जीवंत कार्टून हैं।इन गरीबों का कोई माई बाप नहीं है।हर जरुरी चीज पैसे के बिना मिलती नहीं है।चिकित्सा,शिक्षा और छत बिन पैसे मिलती ही नहीं हैं।ऐसे मंहगे सपने वे देखते नहीं हैं।उनकी जरुरत सिर्फ खाना सोना पैकाना और पहनना है ,जिसके लिए उनकी रोजमर्रे की जिंदगी रोज लहूलुहान होती है।


चुनावी मौसम में इन लोगों का भाव अचानक आसमान पर पहुंच जाता है।वोट उनके भी हैं।इन्हीं लोगों को चुनाव के वक्त नरनारायण बना दिया जाता है ताकि वे अपना वोटवर दे दें।मांग पर ऐसे में नकद भुगतान का बंदोबस्त भी है।चुनावी रैली,रोड शो और दूसरी भीड़जमाऊ कारोबार में इनकी मौजूदगी अहम है।जैसे प्रेस क्लब में पत्रकारों को बिरयानी खिलाकर उपहार देकर साधने का रिवाज बन गया है,उसी तरह इन लोगों को भी चुनाव में लगाने का इंतजाम है।चुनाव दरअसल ऐले लोगों का कमाने और खाने का बंदोबस्त भी है।जब तक चुनाव का मौसम है,खाने पीने की कोई फिकर नहीं।मस्त बिंदास। फिर वहीं अंधेरी रात।


बिन चुनाव इस लोकतंत्र को अपने इन बेहाल गरीब मतदाताओं की याद कब आयेगी?


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