BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Monday, June 19, 2017

ओबीसी प्रधानमंत्री के बाद दलित राष्ट्रपति का हिंदुत्व दांव, मुकाबले में धर्मनिरपेक्ष विपक्ष चारों खाने चित्त! विपक्ष के ब्राह्मणवाद के मुकाबले ओबीसी, पिछड़ों,आदिवासियों,स्त्रियों और अल्पसंख्यकों को भी जहां जरुरत पड़ी,वहां नेतृत्व देने से संघ परिवार हिचका नहीं। विचारधारा की इतनी परवाह थी तो संसद में आर्थिक सुधारों या आधार पर विपक्ष कैसे सहमत होता रहा।नीति निर्माण में सहमति �

ओबीसी प्रधानमंत्री के बाद दलित राष्ट्रपति का हिंदुत्व दांव, मुकाबले में धर्मनिरपेक्ष विपक्ष चारों खाने चित्त!

विपक्ष के ब्राह्मणवाद के मुकाबले ओबीसी, पिछड़ों,आदिवासियों,स्त्रियों  और अल्पसंख्यकों को भी जहां जरुरत पड़ी,वहां नेतृत्व देने से संघ परिवार हिचका नहीं।

विचारधारा की इतनी परवाह थी तो संसद में आर्थिक सुधारों या आधार पर विपक्ष कैसे सहमत होता रहा।नीति निर्माण में सहमति और राजकाज के समक्ष आत्मसमर्पण,बहुजनों को नेतृत्व देने से इंकार और सिर्फ वोट बैंक के लिहाज से भाजपा के हिंदुत्व के विरोध में अपने हिंदुत्व की राजनीति के तहत मनुस्मृति की बहाली- विपक्ष की विचारधारा का सच यही है।जो हिंदुत्व के एजंडे के खिलाफ तो कतई नहीं है।सारी विपक्षी कवायद वोट बैंक साधने की है और इस खेल में संघ परिवार ने उसे कड़ी शिकश्त दे दी है।

जाति वर्ण के सत्ता वर्ग के हित में विपक्ष को संघ परिवार की इस जीत से कोई फर्क नहीं पड़ा और कहना होगा कि मोदी की निरंकुश सत्ता में विपक्ष की भी हिस्सेदारी है और मोदी के उत्थान में भी उसका हाथ है।

पलाश विश्वास

मेरे विचारधारा वाले मित्र माफ करेंगे कि यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि संघ परिवार ने बहुजनों को अपने पक्ष में करने के सिलसिले में धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक विपक्ष को कड़ी शिकस्त दे दी है।

ओबीसी प्रधानमंत्री चुनकर देश की जनसंख्या के पचास फीसद को उन्होंने हिंदुत्व अश्वमेधी अभियान की पैदल सेना बना लिया है और अब दलित राष्ट्रपति बनवाकर विपक्ष के दलित वोटबैंक और अंबेडकरी आंदोलन दोनों पर कब्जा करने के लिए भारी बढ़त हासिल कर ली है।

आखिर तक विपक्ष को संघ परिवार की रणनीति की हवा नहीं लगी या संघ परिवार विपक्षी दलों में ओबीसी,दलित,आदिवासी और अल्पसंख्यकों को नेतृत्व न देने की जिद को जानकर यह ट्रंप कार्ड खेला है,कहना मुश्किल है।

द्रोपदी मुर्मु का नाम चल ही रहा था और आडवाणी ,मुरली मनोहर जैसे लोग पहले ही हाशिये पर कर दिये गये हैं और मोहन भागवत को राष्ट्रपति बनाकर संघ परिवार अपने हिंदुत्व एजंडे के समावेशी मुखौटा को बेपर्दा करने वाला नहीं है,क्या विपक्ष के लिए संघ परिवार के सोशल इंजीनियरिंग के तौर तरीके समझना इतना भी मुश्किल था।

मोदी को जब संघ परिवार ने प्रधानमंत्रित्व का उम्मीदवार चुना तो उसका जबाव खोजने के लिए विपक्ष का सही उम्मीदवार पेश करने की कवायद की जगह अंधाधुंध मोदी का विरोध हिंदुत्व की राजनीति की जमीन पर किया गया,जो उग्र धर्मोन्मादी हिंदुत्व के ओबीसी कायाकल्प के आगे फ्लाप हो गया।इसी के साथ हिंदुत्व ध्रूवीकरण और असहिष्णु धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद की सुनामी चल पड़ी जो अब  भी जारी है।

संघ परिवार ने अपनी राजनीति के हिसाब से सामाजिक यथार्थ के मुकाबले खुद को काफी हद तक बदल लिया है लेकिल संघ विरोधी हिंदुत्व राजनीति का सामंती और औपनिवेशिक चरित्र और मजबूत होता गया।विचारधारा के पाखंड के सिवाय उसके पास कुछ भी नहीं बचा।न जनाधार ,न आंदोलन और न वोटबैंक।

हिंदुत्व के इस अभूतपूर्व पुनरूत्थान के लिए, भारतीय जनता और बारतीय लोकतंत्र,इतिहास और संस्कृति से विस्वासघात का सबसे बड़ा अपराधी यह पाखंडी,मौकापरस्त,जड़ों से कटा,जनविरोधी विपक्ष है जिसने पूरा देश,देश के सारे संसाधन और पूरी अर्थव्यवस्था नरसंहारी कारपोरेट हिंदुत्व के हवाले कर दी।

जमीन पर प्रतिरोध की बात रही दूर,राजनीतिक विरोध की जगह राजनीतिक आत्मसमर्पण की उसकी आत्मघाती राजनीति का उदाहरण पिछला लोकसभा चुनाव रहा है,जिसपर हमने अभी चर्चा नहीं की कि कैसे मोदी को विपक्ष ने भस्मासुर बना दिया।फिर राष्ट्रपति चुनाव में संघ परिवार के साथ विपक्ष का  लुकाछिपी खेल सत्ता व्रग की नूरा कुश्ती का ही जलवाबहार है।

इस बार भी विपक्ष प्रधानमंत्रित्व की तर्ज पर राष्ट्रपति चुनाव में धर्मनिरपेक्ष उम्मीदवार पर सहमति जताने में जुटा रहा और संघ परिवार के सोशल इंजीनियरिग और डायवर्सिटी मिशन से बेखबर रहा,सीधे तौर पर मामला यही लगता है लेकिन थोड़ी गहराई से देखें तो यह बात समझने वाली है कि मनुस्मृति मुक्तबाजारी रंगभेदी हिंदुत्व का एजंडा लागू करने के लिए संघ परिवार ने कांग्रेस और वामदलों के विपरीत, विपक्ष के ब्राह्मणवाद के मुकाबले ओबीसी, पिछड़ों,आदिवासियों,स्त्रियों  और अल्पसंख्यकों को भी जहां जरुरत पड़ी,वहां नेतृत्व देने से परिवार हिचका नहीं।

कांग्रेस लगातार मुंह की खाने के बावजूद वंश वर्चस्व के शिकंजे से उबर नहीं सकी तो भारतीय राजनीति में हाशिये पर चले जाने के बावजूद वामदलों ने किसी भी स्तर पर अभी तक दलितों, पिछड़ों,आदिवासियों,स्त्रियों और अल्पसंख्यकों को नेतृत्व देने की पहल नहीं की ।

यही नहीं,भारत में हिंदी प्रदेशों के महत्व को सिरे से नजरअंदाज करते हुए हिंदी भाषियों के नेतृत्व और प्रतिनिधित्व से भा वामदलों ने दशकों से परहेज किया है।

बंगाली और मलयाली वर्चस्व की वजह से वाम दलों का राष्ट्रीय चरित्र ही नहीं बन सका है।

बंगाल में कड़ी शिकश्त  मिलने के बाद संगठन में बदलाव की जबर्दस्त मांग के बावजूद पार्टी में कोई खास संगठनात्मक बदलाव नहीं किया गया तो केरल में दलित और ओबीसी नेतृत्व को लगातार हाशिये पर डाला गया है।

इसके विपरीत संघ परिवार ने लगातार हर स्तर पर दलितों,पिछड़ों,आदिवासियों को जोड़कर हिंदुत्व के ध्रूवीकरण की रणनीति बनायी है।

दलित,पिछड़ा और अल्पसंख्यक वोटबैंक तोड़कर ही संघ परिवार को यूपी जीतने में मदद मिली है,इस सच को उग्र हिंदुत्व के प्रतीक योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने से विपक्ष भूल गया।

दलित और ओबीसी राजनीति में भी मजबूत जातियों का वर्चस्व है, जिसका फायदा भाजपा ने कमजोर जातियों को अपने पाले में खीचकर किया और लगातार विपक्ष के दलित,पिछड़ा और आदिवासी चेहरों को अपने खेमे मेंशामिल करने से कोई परहेज नहीं किया।

नतीजा ,ओबीसी प्रधानमंत्री के बाद दलित राष्ट्रपति का हिंदुत्व दांव, मुकाबले में धर्मनिरपेक्ष विपक्ष चारों खाने चित्त!

अब कोई फर्क शायद नहीं पड़ने वाला है कि रामनाथ कोविंद  के राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनाने के संघ परिवार के सोशल इंजीनियरिंग का हम चाहे जो मतलब निकाल लें।

मोहन भागवत,द्रोपदी मुर्मु और आडवाणी के नाम चलाकर विपक्ष को चारों खाने चित्त कर देने की उनकी रणनीति अपना काम कर गयी है और विपक्षी एकता तितर बितर है।क्षत्रपों के टूटने के आसार है और दलित वोट बैंक खोने के डर से कोविंद के विरोध का जोखिम वोटबैंक राजनीति में जीने मरने वाले राजनीतिक दलों के लिए लगभग असंभव है।

खबर यह है कि संघ परिवार के दलित प्रत्याशी के मुकाबले अपने घोषित उम्मीदवार गोपाल कृष्ण गांधी की जगह किसी दलित चेहरे की खोज चल रही है।जबकि अपना उम्मीदवार को आसानी से जिताने के लिए पर्याप्त वोट का जुगाड़ पहले ही संघ परिवार ने कर लिया है।

हालत यह है कि विपक्ष की बोलती बंद हो गयी है और अब जबकि एनडीए प्रत्याशी के रूप में रामनाथ कोविंद के नाम का ऐलान हो गया है, कांग्रेस समेत समूचे संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) तथा वामदलों, तृणमूल कांग्रेस, आदि विपक्षी पार्टियों को फैसला करना होगा कि वे राष्ट्रपति पद के लिए अपना प्रत्याशी खड़ा करना चाहते हैं या एनडीए के प्रत्याशी को ही समर्थन देंगे।

हालांकि कांग्रेस ने अपनी पहली प्रतिक्रिया में सावधानी बरतते हुए यह तो कहा है कि बीजेपी ने रामनाथ कोविंद के नाम की घोषणा कर एकतरफा फैसला किया है, लेकिन कोविंद तथा उनकी उम्मीदवारी को लेकर कोई टिप्पणी करने से इंकार कर दिया है।

अब गोपाल कृष्ण गांधी के बदले सिर्फ भाजपाई उम्मीदवार के विरोध की वजह से मीरा कुमार जैसे किसी दलित चेहरे को राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनाया जाता है तो विपक्ष की धर्मनिरपेक्षता का पाखंड भी बेनकाब होने वाला है।

अब भाजपाई उम्मीदवार की जीत तय मनने के बावजूद अपना दलित उम्मीदवार खड़ा करता है विपक्ष तो सवाल यह है कि संघ परिवार के एजंडे के विरोध के बावजूद उसने संघ परिवार के उम्मीदवार पर सहमति उसका नाम घोषित होने के बाद देने का दांव क्यों खेला,क्यों नहीं अपनी विचारधारा के मुताबिक अपने उम्मीदवार का ऐलान पहले ही कर दिया चाहे वह दलित हो न हो?

विचारधारा की इतनी परवाह थी तो संसद में आर्थिक सुधारों या आधार पर विपक्ष कैसे सहमत होता रहा।नीति निर्माण में सहमति और राजकाज के समक्ष आत्मसमर्पण,बहुजनों को नेतृत्व देने से इंकार और सिर्फ वोट बैंक के लिहाज से भाजपा के हिंदुत्व के विरोध में अपने हिंदुत्वकी राजनीति के तहत मनुस्मृति की बहाली- विपक्ष की विचारधारा का सच यही है।

विपक्ष की यह हिंदुत्व राजनीति  हिंदुत्व के एजंडे के खिलाफ तो कतई नहीं है।

सारी विपक्षी कवायद वोट बैंक साधने की है और इस खेल में संघ परिवार ने उसे कड़ी शिकश्त दे दी है।

जाति वर्ण के सत्ता वर्ग के हित में विपक्ष को संघ परिवार की इस जीत से कोई फ्रक नहीं पड़ा और कहना होगा कि मोदी की निरंकुश सत्ता में विपक्ष की भी हिस्सेदारी है और मोदी के उत्थान में भी उसका हाथ है।

वोटबैंक की राजनीति को किनारे रखकर हिंदुत्व राजनीति में भाजपा के सबसे प्राचीन सहयोगी शिवसेना सुप्रीम उद्धव ठाकरे ने हालांकि भाजपा के इस फैसले को वोटबैंक की राजनीत कह दिया है।मराठी मीडिया के मुताबिकः

राष्ट्रपतिपदाचे उमेदवार म्हणून दलित चेहरा असलेले बिहारचे राज्यपाल कोविंद यांच्या उमेदवारीला शिवसेनेने विरोध दर्शवला आहे. 'दलित समाजाची मते मिळवण्यासाठी जर दलित उमेदवार दिला जात असेल तर त्यात आम्हाला रस नाही', अशा स्पष्ट शब्दात उद्धव ठाकरे यांनी कोविंद यांची उमेदवारी शिवसेनेला मान्य नसल्याचे स्पष्ट संकेत दिले आहेत.


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