BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Thursday, February 16, 2017

क्रांति की यादें: स्मारकीय विचारधारा से परे





अक्तूबर क्रांति की सौवीं सालगिरह के मौके पर क्रांतियों द्वारा विकसित किए जाने वाले नजरिए और क्रांति को देखने के नजरिए के बारे में सौम्यव्रत चौधरी और रेयाजुल हक का लेख. 
 

1789 में फ्रांस की क्रांति की शुरुआत में ही दो बातें सामने आती हैं. पहली बात: हर क्रांतिकारी कदम और घटना मानो एक सामूहिक इच्छा को जन्म देती है, कि ऐसा हर कदम और घटना एक राष्ट्रीय स्मारक का विषय बने. स्मारक ही नहीं; हर क्रांतिकारी तारीख एक सामूहिक उत्सव के रूप में मनाई जाए. इस तरह फ्रांसीसी क्रांति, क्रांतिकारी भावनाओं के साथ-साथ, कुछ खास नाटकीय भावना भी पैदा करना चाहती है. ये वे भावनाएं हैं जिनसे एक दर्शक समूह किसी रंगमंच पर नाट्य प्रदर्शन के दौरान गुजरता है. या फिर एक समूह इन घटनाओं में इस तरह हिस्सा लेता है, जैसे किसी उत्सव में हिस्सा ले रहा हो. दोनों सूरतों में क्रांतिकारी दौर, मानो अपने आपको उस ऐतिहासिक पल की सच्चाई से आगे बढ़ कर एक कलात्मक और हमेशा कायम रहने वाली एक सच्चाई, एक शाश्वत सत्य का दर्जा देना चाहता है.
 

दूसरी बात: 1789 से 1794 के बीच फ्रांसीसी क्रांति यह बात भी जाहिर करती है कि फ्रांस के क्रांतिकारी जो कर रहे थे, बोल रहे थे, जिन व्यापक गतिविधियों में हिस्सा ले रहे थे, वो सारी गतिविधियां मानो इतिहास के रंगमंच पर रचा जाने वाला प्रदर्शन यानी परफॉरमेंस हों. फर्क सिर्फ इतना था कि इतिहास के रंगमंच पर खेला गया नाटक किसी बाहरी दर्शक-समूह के लिए नहीं होता है. ऐसे रंगमंच में दर्शक खुद इतिहास के अभिनेता होते हैं, या कम से कम बन सकते हैं. इस संदर्भ में एमानुएल कांट द्वारा 1794 में कॉन्टेक्स्ट ऑफ फैकल्टी  में कही गई बात याद आती है कि अगर फ्रांसीसी क्रांति के विषय पर कोई ऐसा दर्शक सोचें या उसकी कल्पना करें जो इतिहास की परिधि से बाहर हो, जो खुद ही एक काल्पनिक दर्शक हो, तो ऐसे दर्शक में फ्रांस की क्रांति के संबंध में एक खास भावना पैदा होगी. इस भावना को कांट ने एंथुसियाज्म  यानी उत्साह का नाम दिया. इस भावना को हम नाट्यशास्त्र के नजरिए से एक 'राजनैतिक रस' कह सकते हैं. हालांकि याद रखना जरूरी है कि कांट की राय में फ्रांसीसी क्रांति में जो असली अभिनेता या दर्शक थे, जो उस हकीकत का हिस्सा थे, उनके नज़रिए से क्रांति की घटनाएं इतनी उलझी हुई थीं और भावनाएं भी उतनी ही उलझी हुई होंगी कि उनका बस चले तो उस क्रांति की पटकथा को, उसके मौलिक रूप में इतिहास के रंगमंच पर शायद दूसरी बार न खेलें. कांट के मुताबिक इसकी वजह यह थी कि यह क्रांति इतने खून-खराबे वाली थी, और क्रांति के भागीदारों की चाहतों और सामने आने वाली असलियत के बीच बड़ा अंतर और यहाँ तक कि विरोध भी था. इसलिए कांट सोचते हैं कि क्रांति में भागीदार बने लोग इतिहास के उसी बिंदु पर पहुंच कर उसे नहीं दोहराएंगे. हालांकि इस क्रांति में भाग लेने से उनकी कल्पना में, उनकी सोच में जो भावना पैदा हुई, उसको कांट ने उत्साह के रूप में पहचाना. यह उत्साह, एक आदर्श बना रहा – क्रांति का आदर्श. भले ही उसे एक ऐतिहासिक परिघटना के रूप में दोहराने लायक नहीं माना जाए, लेकिन वह आगे बढ़ने की एक निशानी जरूर थी, जो इंसानी सभ्यता का एक लक्षण है.
 

इसके बावजूद, फ्रांस की क्रांति उसी उलझे इतिहास में क्रांतिकारी सोच – आज़ादी, बराबरी और मैत्री[1]  – को सामने लाती है, उसे अभिव्यक्त करती है. उसे साकार (परफॉर्म) करती है. यही फ्रांसीसी क्रांति की असली घटना (इवेन्ट) है.

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1917 में रूसी क्रांति के बाद, 1920 में अक्तूबर के महीने में रंगमंच के प्रसिद्ध निर्देशक निकोलाई एवरेइनोव ने एक विशाल स्मारक-प्रदर्शन का निर्देशन किया. 1917 की घटनाओं को तीन साल बाद 1918 में सेंट पीटर्सबर्ग में जार के राजमहल की सीढ़ियों पर एक नाटक के रूप में लाखों दर्शकों के बीच खेला गया. दर्शक यह प्रदर्शन देख भी रहे थे, उसमें हिस्सा भी ले रहे थे, जैसे तीन साल पहले रूस की जनता ने क्रांति में हिस्सा लिया था. 


फ्रांसीसी क्रांति से जुड़ी जो चाहत थी, वह रूस में भी नज़र आती है कि इतिहास की भौतिक असलियत को न छोड़ते हुए, इतिहास को एक नाटक की पटकथा, एक नाट्य-प्रदर्शन, एक नाट्य-उत्सव, एक नाट्य-रस की तरह आत्मसात किया जाए. लेकिन यह प्रयोग फ्रांसीसी क्रांति से इस मायने में अलग हो जाता है कि यहां जो हो चुका है और जो हो रहा है, उन दोनों को ही एक स्मारक के रूप में तब्दील कर देने की कोशिश हो रही थी. सोवियत संघ में असलियत से कल्पना तक का सफर तय किया जा रहा था, जहां चाहत और असलियत में फर्क तो था, लेकिन इस फर्क को स्मारकीय उत्सवों के जरिए महत्वहीन बनाने की कोशिश भी हो रही थी. 

इस रूसी अनुभव के परिप्रेक्ष्य में कुछ सवाल पैदा होते हैं – (i) क्या कोई राज्य (स्टेट) इस सामूहिक चाहत को पूरी तरह आकार दे सकता है? राज्य की अपनी संरचना, समूह/समाज की चाहत और एक राष्ट्रीय समूह/समाज की कल्पना में किस तरह का तालमेल बैठ सकता है कि घटनाओं की असलियत एक हवाई सपने में तब्दील न हो जाए? (ii) और जब राज्य की संरचना किसी दल (पार्टी) या संघ की संरचना से जुड़ जाए, और जब दोनों, समूह की चाहत और राष्ट्र की कल्पना का एकमात्र माध्यम बन जाएं, तो क्या यह निष्कर्ष नहीं निकलता है कि राज्य-पार्टी/संघ की संरचना ने क्रांतिकारी सोच को एक राज्य/पार्टी की विचारधारा बना दिया है?
 

रूस की बोल्शेविक पार्टी जिस वैचारिक दृष्टि को स्वीकार करती थी, उसके तहत राज्य यथास्थिति का एक उपकरण था, जो सिद्धांतत: परिवर्तन की सामूहिक चाहत का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता था. इस अर्थ में क्रांतिकारी सोवियत राज्य की अवधारणा अपने आप में एक विरोधाभास महसूस होगी. लेकिन क्रांति के फौरन बाद क्रांति से असहमत, उसके विरोधी और प्रतिक्रांतिकारी – हर तरह की ताकतों से जनता और क्रांतिकारी ताकतों की रक्षा करने की उम्मीद और समाज के विकास को गति देने की चाहत एक वाजिब चाहत थी और इसे नकारा नहीं जा सकता. इस तरह क्रांति के बाद के सोवियत समाज में राज्य एक जमीनी हकीकत का हिस्सा था.
 

इस संदर्भ में यह बात साफ करना जरूरी है कि एक क्रांतिकारी पार्टी के रूप में बोल्शेविक पार्टी ने इतिहास की भौतिकता और असलियत, उसके द्वंद्व में हिस्सा लिया और उस उलझी हुई असलियत को एक क्रांतिकारी दिशा (orientation) देने की व्यावहारिक और सैद्धांतिक कोशिश की। यह क्रांतिकारी सोच को ही एक भौतिक (material) और आत्मिक (subjective) आयाम प्रदान करने की कोशिश थी. द्वंद्वात्मक स्थिति में दिशा (orientation) और विमर्श तलाशने की कोशिश, द्वंद्व को हवाई सपनों और शब्दों में तब्दील करना नहीं है–जैसा रूस की क्रांति के बाद राजकीय बोल्शेविक विचारधारा (बोल्शेविक स्टेट आइडयोलॉजी) ने एक समय में करना शुरू कर दिया था. 
 

जैसा कि ऊपर रेखांकित किया गया है, यह भूलना भी गलत होगा कि राज्य एक ऐसी संचरना है, जिसका क्रांतिकारी जनता प्रतिक्रांति के खतरे का सामना करने के लिए इस्तेमाल करना चाहती है. एकदलीय राज्य ने शुरू में जो वादा किया, जनता ने उसका भरोसा किया, क्योंकि क्रांतिकारी घटना द्वंद्व का अंत नहीं है, उसका एक नया पड़ाव है, जहां नई दिशा की जरूरत है. पर यह सच है कि दलगत-राज्य (पार्टी स्टेट) प्रतिक्रांतिकारी शक्ल भी अख्तियार करता है. इस दुविधा या उलझन का हल क्या है?

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फ्रांस की इतिहासकार सोफी वाहनिक ने अपनी किताब इन डिफेन्स ऑफ द टेरर: लिबर्टी ऑर डेथ इन द फ्रेंच रिवॉल्यूशन  में यह दावा पेश किया है कि 1793-94 के क्रांतिकारी फ्रांसीसी दौर में राज्य ने अगर दहशत की नीति अपनाई तो इसका आधार यह था कि क्रांतिकारी जोश और प्रतिक्रांतिकारी खतरे का द्वंद्व, भावनाओं और हिंसा की एक पुनरावृत्ति में न फंसा रह जाए, वह 'विध्वंस के उन्माद' में फंसकर कत्लेआम में न लग जाए, बल्कि यह एक ऐसी व्यवस्था के निर्माण की ओर बढ़े, जो प्रतिशोध की मांग कर रहे क्रांतिकारी जोश को शांत करने की भूमिका अदा करे. इस प्रक्रिया का अध्ययन करते हुए वाहनिक यह पाती हैं कि 1793-94 की नाज़ुक परिस्थिति में फ्रांस के क्रांतिकारी राज्य ने, जो क्रांतिकारी होने के साथ-साथ कमज़ोर भी था, दहशत की नीति अपनाई तो इसके पीछे उसका यह विश्वास था कि इससे सामने आनेवाली असलियत ऐसी होगी, कि उसकी वजह से प्रतिक्रांतिकारी दहशत से कांपेंगे और क्रांतिकारी सोच का सैद्धांतिक जुनून और व्यावहारिक संस्थाएं, प्रतिक्रांति पर जीत हासिल करेंगी. भावनाओं और हिंसा की पुनरावृत्ति के बाद एक नई राजनैतिक भावना या रस पैदा होगा जो प्रकृति के नियम और चक्र से परे हो. जैसे इतिहास में एक नाट्य प्रदर्शन होता है, जिसके अभिनेता और दर्शक दोनों एक ऐसी अनुभूति से गुज़रते हैं जो नई सोच से पैदा हुई है न कि उस 'पुरातन प्रकृति' या 'आदिम गुणों' से, जिनको इंसान की प्रकृति का हिस्सा माना जाता है. इसके खिलाफ, एक नया समाज और नई सोच पैदा होती है जिससे एक नया राजनैतिक 'रस' जन्म लेता है. 


यह दूसरी बात है कि फ्रांस और दुनिया के इतिहास में दहशतगर्द राज्य और क्रांतिकारी सोच इस नए रंगमंच और रस–यानी एक नए ऐतिहासिक बिंदु–पर कभी मिल नहीं पाए हैं. फ्रांस की क्रांति में जिस नीति को क्रांतिकारी दहशत कहा जाता था, वह रूस की क्रांति तक पहुंचते-पहुंचते, सीधे-सीधे राजकीय दहशत बन गई. इस राजकीय दहशत के दो पहलू हैं–विचारधारात्मक दहशत (आइडियोलॉजिकल स्टेट एपरेटस, राज्य के वैचारिक उपकरण) और सैनिक या पुलिसिया दहशत (कोएर्सिव स्टेट एपरेटस, राज्य के हिंसक उपकरण).
 

लेकिन यह भी याद रखने वाली बात है कि जब सोवियत रूस इस राजकीय दहशत की स्थापना कर रहा था, जिसकी मूर्ति स्तालिन है, तभी रूसी रंचमंच में एक ऐसी लहर दौड़ रही थी, जो भविष्य के एक ऐसे रंगमंच की कल्पना कर रही थी, जिसमें एक उत्तर-क्रांतिकारी इंसान ही उसके लेखकों, अभिनेताओं, दर्शकों की रचना करेगा. जिसकी नाट्य भावनाएं एक क्रांतिकारी सोच से मंझे नए सामूहिक स्थान, आकार, समय और समाज में प्रवाहित होंगी.
 

संभव है कि स्तालिन की विचारधारात्मतक (आइडियोलॉजिकल) दहशत, मेयरहोल्ड या मायकोव्स्की के उत्तर-क्रांतिकारी भविष्य की कल्पना से घबराते हुए हिंसा और भावना की पुनरावृत्ति पर उतर आए. संभव है क्रांतिकारी सोच, उस दौर में भी, राज्य की दहशत से जूझता, बचता, मरता हुआ, हर पुनरावृत्ति के आगे और परे एक नई कल्पना, नई सोच की निशानी पेश करता आया. हावी होने के बावजूद, राज्य की दहशत पूरी तरह उसे मिटा नहीं सकी. राजनीति में नया इंसान दहशत के साथ ही आया, उसे हिंसात्मक तरीके से थोपा गया, लेकिन आगे की राह उसने नई कल्पनाओं के जरिए बनाई. इसके लक्षण कला में जाहिर होते हैं, जहां हर पुनरावृत्ति से आगे और परे, एक अलग तरह का नया रस दिखता है. जहां एक नए तरह के समाज और भविष्य की कल्पना होती है, जिसकी सच्चाई इंसानों को प्रेरित करती है.

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7 नवंबर 1918 को अक्तूबर क्रांति की पहली सालगिरह पर व्सेवोलोद मेयेरहोल्ड ने एक नाटक पेश किया: मिस्ट्री-बूफे. मायकोव्स्की के लिखे इस नाटक को मेयरहोल्ड ने पेशेवर कलाकारों और थिएटर समूहों के बहिष्कार के बावजूद बड़ी मशक्कत से तैयार किया था. क्रांति के बाद यह पहला सोवियत नाटक था, जिसमें अभिनय करने के लिए सार्वजनिक अपील करनी पड़ी थी और आखिरकार छात्रों की बड़ी भागीदारी से इस नाटक को 7 नवंबर 1918 को खेला गया. राजकीय आयोजन होने के बावजूद, इस नाटक से सोवियत सत्ता प्रतिष्ठान को परेशानी थी, क्योंकि इसमें भविष्यवादी रचनाधर्मिता का भरपूर उपयोग किया गया था, जो मायकोव्स्की की खासियत थी और जो मेयरहोल्ड के क्रांतिकारी नजरिए से भी मेल खाती थी. ऐसा इसलिए था कि मेयरहोल्ड महसूस करते थे कि रंगकर्म को वर्तमान की समस्याओं पर गौर करते हुए भविष्य के लिए नई कल्पना को प्रेरित करना चाहिए, जो अपने अंतिम मकसद के रूप में एक नए इंसान के निर्माण और जरूरतों को ध्यान में रखे.


इसीलिए मेयरहोल्ड एक ऐसे रंगमंच को विकसित करने की प्रक्रिया में थे, जो स्मृतियों पर नहीं बल्कि सामाजिक मुद्राओं पर आधारित हो, जिसकी बनावट और बिंब विधान जाने-पहचाने अतीत का हवाला देने वाली पृष्ठभूमि बन कर न रह जाए, बल्कि उसमें ऐसे तत्व हों जो भविष्य की खातिर नई परिकल्पनाओं को उकसाएं. इसीलिए उन्होंने अपने रंगमंच में क्यूबिस्ट और फ्यूचरिस्ट कलाकारों को जगह दी. इस तरह वे कला की एक ऐसी भूमिका पर जोर दे रहे थे, जो ऐतिहासिक तो थी, लेकिन तो अतीत के किसी एक बिंदु पर ठहरी हुई नहीं थी. 
 

नाटक को मिली प्रतिक्रियाएं बहुत कड़ी थीं और महज तीन प्रदर्शनों के बाद इसके प्रदर्शन को रोक दिया गया. यह मानो बाईस साल बाद मेयरहोल्ड की गिरफ्तारी, यातनाओं और जेल में मौत की सजा का एक तरह से पूर्वाभास देती हुई घटना थी. 
 

अक्तूबर क्रांति बदलाव के एक ऐसे वादे के साथ हुई थी, जिसकी व्यापकता बहुत गहरी थी, जिसके दांव पर बहुत कुछ लगा था, लेकिन उसके पास इस वादे की कोई ठोस शक्ल नहीं थी, जिसको छू कर दिखाया जा सके कि क्रांति इसको हासिल करना चाहती है. ऐसे में, जब कुछ लेखक-कलाकारों ने उसे एक शक्ल देने की कोशिश की तो ऐसा क्यों हुआ कि उन्हें सत्ता के पूरे विरोध का सामना करना पड़ा?

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पहले बोल्शेविक रंगकर्मी के रूप में मेयरहोल्ड द्वारा निर्देशित इस पहले सोवियत नाटक के प्रदर्शन से दो दिन पहले पेत्रोग्राद्साकाया प्राव्दा  में ए.वी. लुनाचार्स्की की एक टिप्पणी प्रकाशित हुई, जो उन दिनों पीपुल्स कमिसार फॉर एजुकेशन थे. यह टिप्पणी मेयरहोल्ड द्वारा अपने नाटक में किए जा रहे प्रयोगों के संदर्भ में थी, जिसमें लुनाचार्स्की ने भविष्यवादी कलाकारों द्वारा की गई 'लाखों गलतियों' के प्रति अपनी आशंकाएं व्यक्त करते हुए कहा था, "अगर बच्चा विकृत हो, तब भी यह हमें प्यारा होगा, क्योंकि यह उसी क्रांति की पैदाइश है, जिसको हम अपनी महान मां के रूप में देखते हैं."
 

बहुत कम टिप्पणियां इतने गहरे अर्थों वाली होती हैं. इस टिप्पणी में सोवियत संघ में आगे चल कर सामने आने वाले उस खौफनाक दौर की मानो एक भविष्यवाणी छिपी हुई थी, जिसमें असहमत नजरिए वाली कला को दबाया गया, पाबंदियां लगाई गईं, बहसों और तर्कों से परे जाकर, कलाकारों का यातनाएं दी गईं, वे गायब कर दिए गए, और उनकी हत्याएं तक हुईं. साथ ही, यह टिप्पणी जाहिर करती है कि क्रांति कला और संस्कृति के प्रति राज्य के संरक्षणवादी और सरपरस्ती भरे नजरिए को दूर नहीं कर पाई थी, जो अब तक के शासक वर्गों का नजरिया रहा था और जिसने कला को महज एक औजार, मतलब साधने की एक गतिविधि भर बना दिया था. 
लेकिन यह सब तो महज उस बड़ी समस्या के लक्षण थे, जिसकी झलक बहुत साफ तौर पर लुनाचार्स्की की इस टिप्पणी में ही मिलती है. वह है खुद क्रांति के बारे में नजरिया. यहां क्रांति, भविष्य का एक वादा, एक रचनात्मक सपना नहीं रह गई है. बल्कि यह एक 'महान मां' है, जिसको सवालों और संदेहों से परे एक पूज्य मूर्ति के रूप में देखा जाना है. मां मानो एक स्मारक है, जो अपने 'बेटों' की जिंदगियों को अपने साए में लिए हुए है. एक ऐसी उपस्थिति है, जिसका होना भर ही वर्तमान को वैध या अवैध बना देने के लिए काफी है. 
 

क्रांति को इस तरह देखना, यह एक ऐसी ऐतिहासिक सच्चाई का नकार थी, जिसमें क्रांति एक घटना, एक इवेन्ट होती है लेकिन यह नई प्रक्रिया को जन्म देती है, जो नजरिए, सोच, तौर-तरीकों और उम्मीदों को संभव बनाती है. यह घटना, उन नई प्रक्रियाओं के लिए एक संदर्भ की तरह मौजूद होती है, लेकिन ये प्रक्रियाएं सीधे-सीधे उसकी पाबंद नहीं होतीं और वे उससे आगे जाती हैं.
 

गौर कीजिए कि किस तरह लुनाचार्स्की, क्रांति का जिक्र करते हुए मेयरहोल्ड और मायकोव्स्की के नाटक को एक ही झटके में अवैध, लेकिन बर्दाश्त किए जाने लायक घोषित कर देते हैं. मेयरहोल्ड और मायकोव्स्की जिस नजरिए का प्रतिनिधित्व करते थे, उसके लिए कला रचना, महज प्रचार का मशीनी औजार नहीं थी, हालांकि मेयरहोल्ड ने खुद थिएटर को प्रचार के एक तंत्र के रूप में विकसित करने में अहम भूमिका निभाई. पहले बोल्शेविक रंगकर्मी और निर्देशक के रूप में उन्होंने फौरी राजनीतिक जरूरतों की भरपाई करने वाले प्रयोग किए, उन्होंने रंगशाला में संदेशों वाली तख्तियां लटकाईं, अंतराल के दौरान दर्शकों पर पर्चों की बारिश की गई, नाटकों के बीच में गृह युद्ध के ताजा समाचार देने के लिए बाइक सवार मंच पर लाए जाते. लेकिन बुनियादी रूप से, मेयरहोल्ड के लिए नाटक एक ऐसा माध्यम थे, जो प्रचार की फौरी जरूरतों को पूरा करते हुए, उससे आगे जाकर एक नए इंसान के निर्माण की अवधारणा पेश करे.
 

रूसी कलाकारों के संदर्भ में यह बात नई नहीं थी. जैसा कि जॉन बर्जर ने रेखांकित किया है, उनकी रचनाओं में अक्सर ही भविष्यवाणियां और आने वाले दिनों के पूर्वाभास हुआ करते थे. यह प्रक्रिया क्रांति के कुछ समय बाद तक जारी रही, लेकिन क्रांति के बाद अपनाई जाने वाली स्मारकीय दृष्टि और कला के क्षेत्र में अकादमिक नौकरशाही ने रूसी कलाकारों से उनकी यह खूबी भी छीन ली. क्रांति के बाद के समाज में जमीनी तौर पर जनता को रोटी, जमीन और शांति चाहिए थी, और सांस्कृतिक और वैचारिक गतिविधियों को मशीनी तौर पर इस मकसद को हासिल करने के लिए काम में लगा दिया गया. 
 

मेयरहोल्ड की परिकल्पनाओं में यह देखा जा सकता था कि क्रांति से जो नया उत्साह पैदा हुआ था, उसको वे नए इंसान के निर्माण की दिशा में मोड़ना चाहते थे. उनकी असहमति जिस नजरिए से थी, वह क्रांति को ही नहीं, क्रांति के बाद की हकीकत को, जिंदगी को स्मारक बना देने के करीब ले गया. 
 

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स्मारकीय सोच के अपने नुकसान होते हैं. फ्रांसीसी क्रांति ने बदलाव के स्मारकों को सामूहिक या राष्ट्रीय चाहत के साथ जोड़ा, लेकिन उसने स्मारकों की बुनियादी अवधारणा में कोई बदलाव नहीं किया कि मुख्यत: उनका ताल्लुक अतीत से होता है. वे वर्तमान में अतीत के उद्धरणों की तरह लिए जाएंगे. लेकिन सोवियत संघ ने इस अवधारणा के साथ एक गहरा प्रयोग किया. यहां स्मारकों को अतीत के एक निश्चित अवधि (घटना) और स्थान (संदर्भ) के उद्धरण से बढ़ा कर वर्तमान को परिभाषित करने वाली और उसकी पहचान को गढ़ने वाली जीवंत गतिविधि में तब्दील कर दिया गया. इसने स्मारकों को, खास कर राष्ट्रीय संदर्भ में, अतीत के दायरे से वर्तमान के दायरे में लाकर रख दिया. इसके बाद यह लगभग अनिवार्य बन गया, कि वर्तमान अपनी वैधता लगातार उस स्मारकीय संदर्भ से हासिल करे, जिसे यों तो अतीत में होना था, लेकिन जिसे वर्तमान की जिम्मेदार बना दिया गया है.


1930 और 40 के दशक में चली उस बहस का पूरा सिरा इससे जुड़ता है, जिसमें कथ्य और स्वरूप को लेकर गंभीर बहस हुई और जिसमें अपने समय के कई बड़े चिंतकों, रचनाकारों और दार्शनिकों ने भाग लिया, जिसमें उस समय के ज्यादातर दिग्गज कलाकारों और चिंतकों की भागीदारी थी मसलन अर्न्स्ट ब्लॉख, थियोडोर अडोर्नो, बेर्तोल्त ब्रेख्त, वाल्टर बेंजामिन और जॉर्ज लुकाच. आइजेन्सटाइन, द्जीगा वेर्तोव. स्नानिस्लाव्स्की, मेयेरहोल्ड.  जैसा कि नामों की इस सीमित सूची से ही जाहिर है, यह बहस, सिर्फ साहित्य तक ही सीमित नहीं रही और कला, थिएटर और सिनेमा जैसी विभिन्न रचनात्मक गतिविधियों तक इसका विस्तार हुआ. इन बहसों का स्वरूप हमेशा औपचारिक और परस्पर वाद-विवाद का नहीं था, लेकिन वे एक दूसरे की रचनाओं और विचारों के संदर्भ में आगे बढ़ रही थीं और उनके सरोकारों में सबसे ऊपर यही चिंता थी कि एक ऐसे भविष्य के बरअक्स बदलते हुए वर्तमान को कैसे देखा जाए, जिसका एक बाहरी खाका तो हमारे पास है लेकिन जिसकी अंदरूनी शक्ल मौजूद नहीं है.
 

मोटे तौर पर दो भिन्न वैचारिक स्थितियों की पैरवी करने वाले दो समूहों ने – जो किसी भी लिहाज से अंदरूनी तौर पर आपस में सहमत लोगों से नहीं बने थे और उनमें आपस में काफी मतभेद थे – दो अलग अलग नजरियों की पैरवी की. एक का आग्रह अतीत से एक झटके से मुक्ति के साथ एक नए नजरिए की स्थापना थी, जिसमें एकदम नए तरह की रचना और चिंतन प्रक्रिया विकसित किए जाने की जरूरत थी.  दूसरे नजरिए में, परंपरागत कला रूपों में से कुछ को चुन कर वर्तमान और इसलिए एक सीमित भविष्य के लिए एक आदर्श के रूप में पेश किया गया.
 

एवरेइनोव और मेयरहोल्ड के नाटकों के संदर्भ में कई समानताएं देखी जा सकती हैं: वे एक ही अक्तूबर क्रांति की अलग-अलग सालगिरहें मनाने के लिए खेले गए. दोनों ही राजकीय आयोजन थे. दोनों में ही जनता की भागीदारी की परिकल्पना थी. इसके बावजूद, क्रांति के प्रति दोनों का व्यवहार उनके नतीजों को इतना अलग-अलग कर देता है. जैसा कि ऊपर कहा गया है, एवरेइनोव के प्रदर्शन ने क्रांति के साथ साथ, क्रांति के बाद के जीवन को भी एक स्मारक में तब्दील कर दिया.
 

एक स्मारक समय और स्थान, जैसा कि जॉन बर्जर इशारा करते हैं, दोनों के लिए एक चुनौती होता है. एक स्मारक एक द्वंद्व को, एक तनाव को ठहराव देता है, जिनका रिश्ता उन विशिष्ट स्थितियों से होता है, जिनमें उसे निर्मित किया गया होता है. तब एक ऐसे वर्तमान में स्मारकों को कैसे देखा जाए, जहां चीजें हर पल बदल रही हैं और हर विकल्प के अपने आयाम और द्वंद्व हैं? 
 

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रूसी क्रांति से ठीक सौ साल पहले, भारत के पश्चिमी हिस्से में स्थित ताकतवर पेशवा राज की सेना को हराते हुए भारतीय ब्रिटिश फौज की एक टुकड़ी ने भारत में औपनिवेशिक शासन को निर्णायक रूप में स्थापित करने में मदद दी. ब्रिटिशों की ओर से लड़ते हुए जीतने वाली यह रेजिमेंट महार लोगों से बनी थी, जो महाराष्ट्र की सबसे उत्पीड़ित जातियों में से एक से ताल्लुक रखते थे और तब की बोली में 'अछूत' कहे जाते थे. भारतीय समाज के सबसे निचले पायदान पर रखे जाने वाले महार सैनिकों ने इतिहास में बदनाम ब्राह्मणवादी पेशवा राज को हमेशा के लिए दफ्न कर दिया. 1 जनवरी 1818 को हुई इस लड़ाई में मारे गए सैनिकों की याद में पुणे के पास कोरेगांव में एक स्मारक बनाया गया. 
 

इसके बाद का इतिहास उपनिवेशवादी सत्ता की क्रूरता, बर्बरता और लूट की सदी थी. यह पूरे समाज के लिए अनेक तरह की तबाहियां लेकर आई, लेकिन साथ ही इसने सबसे उत्पीड़ित तबकों के लिए जातीय और सामुदायिक गिरफ्त को ढीला भी किया. इसने उनके लिए शिक्षा, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में भागीदारी के दरवाजे खोले. पिछड़ों और दलितों द्वारा अपनी मुक्ति के आधुनिक आंदोलनों की बुनियाद भी इसी के बाद पड़ी. 
 

1927 की एक जनवरी को डॉ. बी.आर. आंबेडकर कोरेगांव स्मारक पर गए और इस जगह पर सालाना रैलियों का एक सिलसिला शुरू किया. किसी स्मारक के साथ आंबेडकर का यह शायद अकेला रिश्ता था. गेल ओमवेट लिखती हैं कि आंबेडकर इन रैलियों में कहा करते थे कि महारों ने ही भारत में ब्रिटिश सत्ता को स्थापित कराया था और महार ही इस सत्ता को यहां से उखाड़ सकते हैं.
 

यह वो दौर था, जब पूरे उपमहाद्वीप में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष चल रहे थे और इसको लेकर कोई विवाद नहीं था कि जनता के व्यापक हिस्से में आजादी की उम्मीदें थीं. लेकिन विवाद इसको लेकर था कि यह आजादी कैसी होगी. कोरेगांव स्मारक पर आंबेडकर का ऐलान इसकी सबसे क्रांतिकारी अभिव्यक्तियों में से एक थी. इसमें यह उम्मीद और मांग थी कि आनेवाली आजादी को प्रभुत्वशाली ब्राह्मणवादी विचारधारा और समाज की जातीय बनावट से मुक्त होना होगा. और इस मुक्ति को वो लोग हासिल करेंगे, जो इससे सबसे अधिक उत्पीड़ित हैं. इस तरह आनेवाली सच्ची आजादी की कल्पना में ब्राह्मणवाद से मुक्ति की कल्पना भी शामिल थी. 
इस तरह अपनी रैलियों के जरिए, आंबेडकर ब्रिटिश सत्ता की निर्णायक विजय के उस स्मारक को स्वीकार नहीं कर रहे थे, बल्कि उसे चुनौती दे रहे थे. उन्हें कोरेगांव स्मारक के ऐतिहासिक अर्थ को ही उलट दिया था, जिसमें स्वीकार और नकार की एक जटिल प्रक्रिया काम कर रही थी. वे पेशवाओं की पराजय को स्वीकारते थे, लेकिन इसके नतीजे में स्थापित औपनिवेशिक सत्ता को वे इस योग्य नहीं मानते थे कि वह मुल्क पर शासन करे. वे उस स्मारक में निहित उस ऐतिहासिक पल को संभव बनाने वाले मानवीय श्रम और कुरबानियों को सम्मान दे रहे थे, जिनका योगदान आजादी और नए समाज के निर्माण के लिए प्रेरणा देगा. 
 

आंबेडकर जो कर रहे थे, वह सिर्फ एक स्मारक को चुनौती देने से कहीं अधिक था. यह स्मारकों की एक ऐसी अवधारणा को चुनौती थी, जिसके तहत उन्हें एक द्वंद्व रहित, सपाट संदेशों के रूप में देखा जाता है. यह ऐतिहासिक पलों को रूढ़ स्मृतियों में तब्दील करने का एक विरोध था. यह एक मांग थी कि इंसान की आजादी, बराबरी और तरक्की की उम्मीदों को अतीत की दुहाई देकर परे नहीं किया जा सकता. इस तरह आंबेडकर हमारी मदद करते हैं कि हम इतिहास के निर्माण में इंसानी कोशिशों की तरफ ध्यान दें, लेकिन साथ ही इसके अंतर्विरोधों और जटिलताओं को कभी अपनी नजरों से ओझल न होने दें. 
 

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बाद के दिनों में सोवियत संघ द्वारा समर्थित सामाजिक यथार्थवाद की अवधारणा पर बहस करते हुए बेर्तोल्त ब्रेख्त की सबसे बड़ी चिंता यही थी कि यह अवधारणा, अतीत के स्वरूपों को आज की सामग्री की अभिव्यक्ति के लिए एक आदर्श के रूप में पेश करती है. व्यापक राजनीतिक क्षेत्र में इस धारणा का विस्तार करके देखें तो इसका अर्थ यह भी हो सकता था कि समस्याओं के समाधान अपनी अभिव्यक्ति के लिए, अतीत के स्वरूपों को चुन सकते हैं.
 

1917 और उसके बाद के समाज के लिए अतीत का मतलब दूसरी चीजों के साथ-साथ पूंजीवाद भी था.


सौम्यव्रत चौधरी जेएनयू के स्कूल ऑफ आर्ट्स एंड ऐस्थेटिक्स में असोसिएट प्रोफेसर हैं. रेयाजुल हक इसी स्कूल से शोध कर रहे हैं.


समयांतर  के फरवरी 2017 अंक में प्रकाशित. 

नोट्स

[1] अक्सर 'फ्रेटर्निटी ' के लिए 'भाईचारा' शब्द का इस्तेमाल होता है, लेकिन यहां हम सोच-समझकर 'मैत्री' शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं, जिसका उपयोग डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने बुद्धा एंड हिज धम्म  में किया है. इस शब्द के इस्तेमाल की वजह यह है कि भाईचारा शब्द एक पारिवारिक रिश्ते का आभास देता है, जबकि मैत्री में दोस्ताना और बराबरी पर निहित होती है.  
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