BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Monday, December 19, 2016

करोड़ों लाशें ढोने के लिए कितना इंच का सीना और कितने मजबूत कंधे चाहिए? वेनेजुएला सिर्फ तीन लाशों का बोझ ढो नहीं सका,नोटबंदी रद्द वेनेजुएला में तेल का कारोबार चौपट,नोट कौड़ियों के भाव और देश पर विदेशी माफिया का कब्जा उत्तर भारत के तीन छोटे से कस्बे अयोध्या, हस्तिनापुर और कुरुक्षेत्र का हजारों साल पुराना अतीत अब मुक्त बाजार में हमारा वर्तमान और भविष्य है। हम किस माफिया के शिकंजे मे

करोड़ों लाशें ढोने के लिए कितना इंच का सीना और कितने मजबूत कंधे चाहिए?

वेनेजुएला सिर्फ तीन लाशों का बोझ ढो नहीं सका,नोटबंदी रद्द

वेनेजुएला में तेल का कारोबार चौपट,नोट कौड़ियों के भाव और देश पर विदेशी माफिया का कब्जा

उत्तर भारत के तीन छोटे से कस्बे अयोध्या, हस्तिनापुर और कुरुक्षेत्र का हजारों साल पुराना अतीत अब मुक्त बाजार में हमारा वर्तमान और भविष्य है।


हम किस माफिया के शिकंजे में हैं?

पलाश विश्वास

अभी अभी जगदीश्वर चतुर्वेदी के ताजा स्टेटस से मालूम पड़ा कि प्रेमचंद का मकान ढह गया! यह है भारतीयों की लेखक के प्रति असभ्यता का नमूना!हमें इतिहास का बदला चाहिए हर कीमत पर और हम इस मकसद को हासिल करने के लिए पराम की सौगंध खाकर मुक्त बाजार के कारपोरेट हितों के लिए राम का नाम लेकर राम से विश्वासघात करने में तनिक हिचकिचा नहीं रहे हैं।तो प्रेमचंद हो या अनुपम मिस्र ये हमारे लिए किसी खेत की मूली नहीं है।मूली का हम क्या परवाह करे हमें तो न खेत की परवाह है और न खलिहान की।न प्रकृति की न मनुष्य की।

करोड़ों लाशें ढोने के लिए कितना इंच का सीना और कितने मजबूत कंधे चाहिए?वेनेजुएला में राष्ट्रपति ने नोट​बंदी का फैसला उस समय वापस ले लिया जब देश भर में इसके खिलाफ आवाज उठने लगी। नोटों की कमी के चलते सारे देश में तीखी प्रतिक्रियाएं सामने आईं। भारी दवाब के कारण सरकार को यूटर्न लेना ही पड़ा।गनीमत समझिये कि भारत में अभी आम जनता का गुस्सा सार्वजिनक सुनामी नहीं है।नकदी संकट अगर साल भर जारी रहा तो कैशलैस डिजिटल अर्थव्यवस्था बन जाने से पहले कहां कहां कितने ज्वालामुखी फूट पड़ेंगे इतने बड़े देश में,तानाशाह हुकूमत को इसका कोई अंदाजा नहीं है।

बाकी जनता जिस रकम पर साठ फीसद तक आयकर दें,उसी रकम के कालाधन होने की हालत में पचास फीसद कुल कर जमा करके सफेद धन बनाया जा सकता है।तो राजनीतिक दल में बेनामी बेहिसाब अंतहीन कालाधन देस के विकास में भविष्य में हिस्सेदारी के हवाला मार्फत हजारों लाखों करोड़ रुपये जमा करने का खुल्ला खेल फर्रूखाबादी है और जनता को गुस्सा कतई नहीं आ रहा है।इसी बीच ताजा फतवा जारी हुआ है।नोटबंदी के बाद वित्त मंत्रालय ने बैंक खातों में पुराने नोट जमा करने की सीमा तय कर दी है. वित्त मंत्रालय के नए दिशा-निर्देश के मुताबिक, बैंक खाते में केवल एक ही बार 5000 रुपये से ज्यादा की रकम पुराने नोट में जमा करा सकेंगे। यह नया निर्देश इस साल 30 दिसबंर तक लागू रहेगा। बैंक खातों के जरिये कालेधन को सफेद करने के सिलसिले पर रोक लगाने के लिए सरकार ने यह नया फैसला लिया है। वित्त मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया, 'बड़े नोट बैंक खातों में बार-बार नहीं जमा कराए जा सकते हैं। लोग अब 5,000 रुपये तक जमा करा सकते हैं जिस पर कोई प्रतिबंध नहीं है।'

वेनेजुएला में जो हुआ है,गनीमत है ,भारत में वेसा कुछ अभी हुआ नहीं है।मसलन वेनेजुएला में  नकदी के संकट के कारण हजारों दुकानें बंद हो गईं। लोग क्रेडिट कार्ड या बैंक ट्रांसफर के जरिये लेन-देन करने के लिए बाध्य हो गए। कई लोगों के साथ तो संकट इस कदर गंभीर हो गया कि उनके लिए खाने-पीने की चीजें खरीदना मुश्किल हो गया। इस फैसले के विरोधियों ने गुस्से में 100 बोलिवर के नोट तक जला दिए।

हमारा गुस्सा ठंडा है क्योंकि हम उस तरह काले नहीं हैं जैसे लातिन अमेरिका और अफ्रीका के लोग काले हैं।श्वेत वर्चस्व का मुकाबला करना वहां पीढ़ी दर पीढ़ी शहादतों का सिलसिला है।

हम तो अपना काला रंग गोरा बनाने की क्रीम से गोरा बना चुके हैं और नहीं भी बनाया होगा तो विशुध आयुर्वेदिक कोमल त्वचा बाजार में उपलब्ध है।

हम अछूत हुए तो क्या,बहुजन और आदिवासी हुए तो क्या ,हम सारे लोग हिंदू है और हिंदू राष्ट्र में गुलामी रघुकुल परंपरा का रामराज्य है।इसलिए सत्ता वर्ग को फिलहाल कोई खतरा नहीं है कि यहां लातिन अमेरिका,य़ूरोप या अप्रीका जैसा कोई जनविद्रोह कभी होगा।

हम अपनों का खून बहाना अपना परम कर्तव्य मानते हैं लेकिन खून बहने के डर से,चमड़ी में आने के डर से,हिंदुत्व की पहचान और हैसियत खोने के डर से गुलामी का न्रक जीने के लिए पीढ़ी दर पीढ़ी अभ्यस्त हैं।

वेनेजुएला सिर्फ तीन  लाशों का बोझ ढो नहीं सका,नोटबंदी रद्द।भारत के बाद वेनेजुएला में भी नोटबंदी की गई। लेकिन वहां के लोग भारत के लोगों की तरह शांत स्वभाव के नहीं निकले जिसकी वजह से वहां हिंसा हो रही है। कुछ खबरों के मुताबिक, उस हिंसा में अबतक दर्जनों दुकानें लूटी जा चुकी हैं और तीन लोगों की जान भी जा चुकी है।

हमारे यहां नरसंहार भी हो जाये तो हमारी नींद में खलल नहीं पड़ती।अभी नोटबंदी की कतार में तो इतने बड़े देश में सिर्फ सौ सवा सौ लोग ही मारे गये हैं।हम तो दिलोजान से ख्वाहिशमंद है कि इस देश को सेना के हवाले कर दिया जाये।

गौरतलब है कि वेनेजुएला में तेल का कारोबार चौपट,नोट कौड़ियों के भाव और देश पर विदेशी माफिया का कब्जा।वेनेजुएला सरकार ने अपने नोटबंदी के फैसले को वापस ले लिया है। महज एक सप्ताह पहले, 11 दिसंबर की रात को वेनेजुएला में वहां की सबसे बड़ी करेंसी 100 बोलिवर को प्रतिबंधित कर दिया था और इसके बदले 500, 2000 और 20,000 बोलिवर की नयी करेंसी जारी की गयी थी, लेकिन देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए वहां की सरकार द्वारा उठाया यह कदम पूरी तरह सफल नहीं हो सका।

वेनेजुएला में करेंसी के लिए देश में हाहाकार मच गया, हजारों दुकानें बंद हो गयीं, लोगों के पास खाने के भी पैसे नहीं रह गये, हालात बेकाबू हो गये और जगह- जगह लूटपाट की घटनाएं होने लगी। पुलिस से संघर्ष में तीन लोगों की मौत हो गयी।

अभी तक भारत में नोटबंदी के खिलाफ ऐसा कुछ हुआ नही है।जाहिर है कि सारे लोग तानाशाह के वफादार गुलाम हैं और शाही फरमान की हुक्मउदुली करने की रीढ़ किसी के पास कहीं नहीं है।छप्पन इंच सीना और सांढ़ जैसे कंधों की बहार है।

हम किस माफिया के शिकंजे में हैं?गौरतलब है कि वेनेजुएला सरकार ने यह कदम सीमापार कोलंबिया में माफिया द्वारा राष्ट्रीय करेंसी बोलिवर की होर्डिंग और देश में लगातार बढ़ती महंगाई को काबू करने के लिए उठाया था। यहां की करेंसी में गत कुछ सालों में गिरावट देखी गयी थी। 100 बोलिवर की कीमत अमेरिकी मुद्रा में महज 2 सेंट के बराबर रह गयी थी। महंगाई के मामले में वेनेजुएला सबसे आगे है। सरकार के मुताबिक नयी करेंसी से भरे 3 हवाई जहाज वेनेजुएला नहीं पहुंच सके जिससे देश में नोटबंदी की स्थिति बेकाबू हो गयी। निकोलस ने नोटबंदी विफल होने के पीछे विदेशी ताकतों का हाथ होने का आरोप लगाया है।

वेनेजुएला में माफिया देश के बाहर है।कहां है ,वह भी मालूम है।कोलंबिया में माफिया का बेस है,जिसे अमेरिकी समर्थन है।

हमारे यहां माफिया देश के अंदर है और देश के बाहर के माफिया गिरोहों के साथ वे गोलबंद हैं।हमारे राजनीतिक दल माफिया हैं।उन माफिया गिरोहों के हम सारे लोग भाड़े के टट्टू हैं।लठैत और शूटर हैं।समर्थक हैं।सारे लोकतांत्रिक संस्थान और राजकाज की तमाम एजंसियां माफिया गिरोह में तब्दील हैं।राजनीतिक दल, मीडिया, राजनेता, बिल्डर, प्रोमोटर माफिया है और पूरा तंत्र सिंडिकेट है।जिसे फिर अमेरिका के साथ इजराइल का समर्थन है।माफिया हमारा लोकतंत्र है तो माफिया हमारा कारोबार और धर्म कर्म है।जल जंगल जमीन माफिया गिरोह के शिकंजे में है और हमारी जिंदगी और हमारी मौत भी उन्ही की मुट्ठी में कैद हैं।यह माफिया ग्लोबल है।

हम तो अमेरिका बना रहे हैं देश को या फिर हम इजराइल बना रहे हैं देश।सबका अपने अपने हिस्से का देश है।

कोई पाकिस्तान बना रहा है तो कोई बांग्लादेश बना रहा है।

देश के हर हिस्से में देश बन रहा है। इन दिनों और देश उपनिवेश बन रहा है।यहां सबकुछ विदेशी हाथों में है।

इंदिरा गांधी के बाद इस देश में जो भी कुछ हो रहा है,उसके पीछे पूंजी किसी की भी हो,कमसकम अमेरिकी या इजराइली हाथ नहीं है।क्योंकि सत्ता उन्हींकी है।

   इस दौरान हालांकि पाकिस्तान का हाथ बहुत लंबा हो गया है और नोटबंदी और नकदी संकट दोनों के पीछे पाकिस्तान का हाथ है और बाकी हाथों में तो हमारा अपना काला हाथ है।अब पाकिस्तान के खिलाफ युद्धोन्माद हमारी राजनीति है और वही हमारी अर्थव्यवस्था है।वही हमारा रामराज्य आंदोलन का हिंदुत्व पुनरूत्थान है,जिसमें साझेदार फिर अमेरिका और इजराइल है।यही ग्लोबल हिंदुत्व है।

सत्ता वर्ग का देश दिल्ली है और आम जनता का देश उनका अपना अपना गांव या जनपद है।दोनों देशों के बीच कोई दोस्ती है नहीं है।दिल्ली की हुकूमत है और हुकूमत गांव और जनपदों के हिस्से के देश को कुचल रही है।यह सैन्यन दमन देश का हमारी स्वतंत्रता और लोकतंत्र का संवैधानिक सलवा जुड़ुम है।बाकी किसी का कोई देश नहीं है।मौजूदा कृषि संकट और आर्थिक आपातकाल का पर्यावरण परिदृश्य यही है।

बहरहाल वेनेजुएला की राजधानी कराकस से खबर है कि  वेनेजुएला में विरोध बढ़ने के साथ समस्या में घिरे राष्ट्रपति निकोलस मादुरो ने देश में बड़े नोटों को चलन से हटाने का फैसला दो जनवरी तक टाल दिया है।

मादुरो ने अपनी मंकी बातों में कल कहा कि 100 बोलिवर का नोट अस्थायी रूप से वैध मुद्रा बनी रहेगी लेकिन कोलंबिया तथा ब्राजील से लगी सीमा बंद रहेगी ताकि माफिया ने जो वेनेजुएला की मुद्रा अपने पास जमा कर रखी है, वे इससे प्रभावित हों। उन्होंने कहा कि यह देश को अस्थिर करने की साजिश है जिसे अमेरिका समर्थन दे रहा है। मादुरो ने सरकारी टेलीविजन पर कहा, "आप शांति के साथ 100 रुयये के नोट का उपयोग अपनी खरीद और अन्य गतिविधियों के लिये कर सकते हैं।

तनिक इस ब्योरे पर भारतीय नोटबंदी परिप्रेक्ष्य में गौर करेंःवेनेजुएला के आम लोग खाने-पीने की चीजें और ईंधन खरीदने में असमर्थ हो गए। इस फैसले से देश में क्रिसमस की तैयारी में जुटे लोगों के हाथ से एक झटके में पुरानी करेंसी बेकार हो गई। वहीं वेनेजुएला में आधी जनसंख्या बैंकिंग सेवाओं से बाहर है, लिहाजा कैशलेस ट्रांजैक्शन करने में सक्षम नहीं है। वेनेजुएला सरकार ने नोटबंदी का यह फैसला रविवार देर रात लिया और सोमवार सुबह से देश में 100 बोलिवर की इस करेंसी को पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया था। नागरिकों को करेंसी बदलने के लिए महज 72 घंटे का समय दिया गया था, लेकिन नई करेंसी की सप्लाई सुस्त रहने के कारण समय बढ़ा दिया गया था।

नतीजतन राष्ट्रपति निकोलस मादुरो द्वारा देश की सबसे बड़ी करंसी को बंद किए जाने की घोषणा के बाद शुरू हुए विरोध प्रदर्शनों और लूटपाट के मामलों में सुरक्षाबलों ने 300 से ज्यादा लोगों को गिरफ्तार किया है। इस बात की जानकारी खुद राष्ट्रपति मादुरो ने रविवार को दी। मादुरो ने अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा पर भी आरोप लगाया कि वह पदभार से रिटायर होने के पहले वेनेजुएला में समाजवाद के तख्तापलट की साजिश कर रहे हैं। हालांकि अब उन्होंने नोटबंदी का अपना फैसला अस्थायी तौर पर वापस ले लिया है।

भारतीय मीडिया ताजा नोटबंदी की इस नाकामी की खबर को वेनेजुएला के तेल संकट से जोड़कर इसके मुकाबले भारत की अर्थव्यवस्था की मजबूती की सुनहली तस्वीरें पेश करते हुए छप्पन इंच सीने और सांढ़ जैसे मजबूत कंधे का गुणकीर्तन करते हुए अघा नहीं रहे हैं।

हमारे मीडिया वाले वेनेजुएला के तेल निर्भर अर्थव्यवस्था की दुर्गति का बखान करते हुए कृषि निर्भर भारतीय अर्थव्यवस्था या अर्थव्यवस्था में कृषि की प्रासंगिकता पर भूलकर भी चर्चा नहीं कर रहे हैं।

जब तक देश इराक या अफगानिस्तान न बने,जब तक वियतनाम की तरह कार्पेट बमबारी न हो,जबतक हिरोशिमा या नागासाकी जैसी तबाही का मंजर न हो, किसी गुजरात नरसंहार,किसी भोपाल त्रासदी ,सिखों के नरसंहार,सलवाजुड़ुम या देश व्यापी दंगों का जैसे हमारी सेहत पर कोई असर नहीं होता और सरहदों के युद्ध से हम जैसे बाग बाग हो जाते हैं,उसी तरह भारत के कृषि संकट,आर्थिक आपातकाल या पर्यावरण जलवायु संकट से हमारी सेहत पर कोई असर नहीं हो सकता।जब तक हम खुद मौत का समाना नहीं करते,कौन मरता है या जीता है,हमें कोई मतलब नहीं है।

अनाज उत्पादन फिलहाल पर्याप्त होने की वजह से क्रयशक्ति से लबालब शहरी पढ़ेलिखे लोगों को कृषि संकट और किसानों की आत्महत्या से कोई फर्क नहीं पड़ता।

अनाज उत्पादन मांग से कम हो,अनाज की किल्लत हो जाये और नकदी होने के बावजूद लोग दाने दाने को मोहताज हो जाये,तब कहीं ये पढ़े लिखे मलाईदार लोग भारतीय अर्थ व्यवस्था में कृषि का महत्व समझेंगे।

नोटबंदी ने ने जिस तरह किसानों को कंगाल बना दिया है और शून्य कृषि विकास दर की स्थिति में अनाज उत्पादन की नाकेबंदी कर दी है,खरीफ की फसल बिकी नहीं है और रबी की फसल बोयी नहीं गयी है,आशंका है कि बंगाल की भुखमरी की देशव्यापी संक्रमण की हालत में,इतिहास में वापसी के सफर में ही हमारे पढ़े लिखे लोग कृषि विज्ञान का तात्पर्य समझेंगे।

याद करें 2008 की मंदी के दौर को,जिसका असर भारतीय अर्थ व्यवस्था पर कुछ भी नहीं हुआ तो इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि तब भी भारतीय अर्थ व्यवस्था पूरी तरह ग्लोबल हुई नहीं थी और ग्लोबल इशारों का कोई असर इसीलिए नहीं हुआ क्योंकि शेयर बाजार के अलावा औद्योगिक ढांचा तब भी मजबूत था और उत्पादन प्रणाली भी काम कर रही थी।भारतीय आम जनता का शेयर बाजार से कुछ भी लेना देना नहीं था।

पिछले आठ सालों के दरम्यान आम जनता को भी व्यापक पैमाने पर शेयर बाजार से जोड़ दिया गया है।अब पेंशन,बीमा से लेकर सबकुछ शेयर बाजार से नत्थी हैं और शेयर बाजार में तब्दील है पूरी अर्थ व्यवस्था।हर क्षेत्र में विनिवेश हो जाने से और सरकारी क्षेत्र के निजीकरण से देश का बुनियादी ढांचा अब विदेशी पूंजी के हवाले हैं।

वेनेजुएला की अर्थ व्यवस्था पर काबिज माफिया हमारे यहां अर्थ व्यवस्था पर जहरीली नागकुंडली विदेशी पूंजी है,जिसकी नाभि नाल ग्लोबल इकोनामी से जुड़ी है और पत्तियों के खड़कने से ही जिसमें सुनामी आ जाती है।अब शेयर बाजार में मामूली उतार चढ़ाव से मामूली निवेशकों के लाखों करोड़ एक झटके में माफिया की मुनाफा वसूली है और यही डिजिटल कैशलैस इकोनामी है।दस दिगंत साइबर फ्राड का मुक्त बाजार है उपभोक्ता कार्निवाल।मनस्मृति शासन की बहाली है।बहुजनों का नस्ली नरसंहार है,जिसमें मारे जायेंगे अछूत भूगोल के स्वयंभू देव देवी अवतार और सवर्ण भी।गरीब अपढ़ अधपढ़ गवांर ब्राह्मण भी आखिरकार मारे जायेंगे इस बनियाराज में।

हमने भी देश के प्राकृतिक संसाधनों को विदेशी तत्वों के हवाले कर दिया है।

हमने भी तेल युद्ध से तबाह हो गये खाड़ी के देश,अरब वसंत से तबाह हुए पश्चिम एशिया और अरब के देश तो हमने वह युद्धस्थल दक्षिण एशिया में स्थानांतरित करके अमेरिकी युद्धक कारपोरेट डालर अर्थव्यवस्था से अपनी अर्थव्यवस्था नत्थी करके अगवाड़ा पिछवाड़ा सबकुछ मुक्त बाजार बनाते हुए आम जनता को कंगाल बना दिया है।

अब हमारी अर्थव्यवस्था की कोई उत्पादन प्रणाली नहीं है।

इस देश के वित्तीय प्रबंधन कारपोरेट माफिया गिरोह के शिकंजे में है।

डाल डाल पत्ती पत्ती कारपोरेट माफिया काबिज है।

हम भी तेजी से पाकिस्तान बांग्लादेश बनने के बाद यूनान, अर्जेंटीना, नाइजीरिया, वेनेजुएला ,कोलंबिया और मेक्सिको,पूर्व यूरोप और पश्चिम एशिया बनने लगे हैं।

छत्तीस साल की पेशेवर नौकरी के बाद अचानक बूढ़ा हो गया हूं।बूढ़ों और बच्चों से हमारी हमेशा खास दोस्ती रही है।लेकिन खुद के बूढ़ापे का बोझ ढोना मुश्किल हो रहा है।जाहिर है हम जैसे लोगों का सीना छप्पन इंच का नहीं होता और न कंधे सांढ़ की तरह मजबूत हैं।सदमों को झेलने की आदत अभी बनी नहीं है।सदमा तो हम रोज रोज झेल रहे हैं।सदमों और झटकों से आम जनता की तरह हम अबतक बेपरवाह ही रहे हैं।इसी वक्त बूढ़ापा आना था।

असहाय पहले से हो गया था।संवाद की गुंजाइश है ही नहीं और अघोषित आपाताकाल है।सामाजिक सक्रियता हमारी लेखन के दम पर है।अब वह लेखन जारी रखना भी बेमतलब लग रहा है।अखबारों में होते हुए हम हमेशा अखबारों से बाहर रहे हैं।लघु पत्रिकाओं से बाहर हुए भी पंद्रह सोलह साल हो गये।अब हस्तक्षेप के अलावा सोशल मीडिया से भी बाहर हूं।ब्लागिंग बेहद मुश्किल हो गयी है।पैसे के लिए कभी लिखा नहीं है और न आगे लिख सकता हूं।लेकिन जिनके लिए अब तक लिखता रहा हूं,उनतक पहुंचने के सारे रास्ते और दरवाजे एक एक करके बंद है।अघोषित सेंसरशिप है और सोशल मीडिया पर भी सेसंरशिप है।अभिव्यक्ति की नाकाबंदी है।

इन्हीं परिस्थितियों में हस्तक्षेप पर अरुण तिवारी और ललित सुरजन के आलेखों से अनुपम मिश्र के अवसान की खबर मिली तो स्तब्ध रह जाना पड़ा। सुबह से कई बार टीवी देख रहा था।लेकिन टीवी से यह खबर हमें नहीं मिली।मीडिया के लिए अनुपम मिश्र का निधन जाहिर है कि बड़ी खबर नहीं है और खबर है भी तो इसे वे दूसरी खबरों की तरह चौबीसों घंटा दोहराना नहीं चाहते।

बचपन से कविताएं लिखता रहा हूं।लेकिन कवि होने की महात्वाकंक्षा की हमने जिन लोगों को देखकर इतिश्री कर दी थी,उनमें से अनुपम मिश्र खास हैं।अनुपम मिश्र,सुंदरलाल बहुगुणा,अनिल अग्रवाल(वेदांत वाले नहीं) और भारत डोगरा के लेखन से परिचित होने के बाद सृजनधर्मी रचनाकर्म के बदले प्रकृति और मनुष्यता के बारे में लिखना हमारी प्राथमिकता रही है।यह हमारे लिए निजी अपूरणीय क्षति है।

नवउदारवाद की अवैध संतानों के हाथों में सत्ता की कमान है।राजनीति करोडपतियों,अरबपतियों और खरबपतियों की रियासत,जमींदारी या जागीर है। अर्थव्यवस्था सपेरों,मदारियों और बाजीगरों के हवाले हैं।

भारतीय अर्तव्यवस्था बुनियादी तौर पर कृषि अर्थव्यवस्था है,दस दिगंत अगवाड़ा पिछवाड़ा खुले मुक्त बाजार के नंगे कार्निवाल में कोई इसे मानेगा नहीं।

दो करोड़ के करीब वेतनभोगियों और पेंशन भोगियों की औकात सामने हैं,जो खुद को खुदा से कम नहीं समझते हैं।सारा तंत्र मंत्र यंत्र उनके भरोसे हैं।सत्ता एढ़ी चोटी का जोर लगाकर हर कीमत पर उन्हें खुश रखना चाहती है।राज्य सरकारों का सारा खजाना वेतन और भत्तों में खर्च हो जाता है।लेकिन नोटबंदी में वे वेतन और पेंशन बैक में जमा होने के बावजूद आम जनता के साथ कतार में खड़े हैं।

एटीएम और बैंकों से उनकी भी लाशें निकल रही हैं,जिन पर निजीकरण, उदारीकरण और विनिवेश का अब तक कोई असर नहीं हुआ।कितने लाख या कितने करोड़ लोग छंटनी के शिकार हुए पिछले पच्चीस साल पुराने मुक्तबाजार में उनकी कोई परवाह उन्हें नहीं है।उन्हें अपने बेरोजगार बच्चों तक की परवाह नहीं है,जो पढ़े लिखे,दक्ष,काबिल होने के बावजूद बेरोजगार हैं।

बाकी 128 करोड़ में जाति धर्म निर्विशेष तमाम लोग सत्ता वर्ग में शामिल राजनेताओं, जनप्रतिनिधियों, मीडियावालों, बुद्धिजीवियों,डाक्टरों,वकीलों,इंजीनियरों और तमाम संपन्न पेशेवर लोगों की बमुश्किल एक करोड़ लोगों को छोड़कर नोटबंदी की वजह से दाने दाने को मोहताज हो रहे हैं।

खरीफ की फसल बिकी नहीं है।रबी की बुवाई नकदी के बिना आधी अधूरी है।

इसके बावजूद कृषि विकास दर शून्य के नीचे हो जाने के बावजूद,लाखों किसानों की थोक आत्महत्या के बावजूद भारत में कृषि संकट को अर्थव्यवस्था का संकट कतई मानने को तैयार नहीं है क्योंकि वे अबाध पूंजी प्रवाह और बूंद बूंद विकास के पैरोकार हैं।

ऐसे में किसी अनुपम मिश्र का निधन राजनीतिक आरोप प्रत्यारोप,खेल रियेलिटी शो और मनोरंजन सुनामी के मध्य अनिवार्य सूचना नहीं बन सकती।

पर्यावरण और जलवायु संकट पर ग्लोबल फैशन कीग्लोबल वार्मिंग की तर्ज पर चर्चा करना चलन में हैं इन दिनों।जैसे हम कृषि संकट को अर्थव्यवस्था का संकट मानने को तैयार नहीं है,वैसे ही कृषि संकट को पर्यावरण संकट मानने को बी कोई तैयार नहीं होगा ,जाहिर है।

मुक्त बाजार में तकनीक का वर्चस्व है।तकनीक अपनाने में अपढ़ और अधपढ़ को भी खास तकलीफ नहीं होती।सारी संचार क्रांति मोबाइल क्रांति मीडियाभ्रांति ऐप्पस दंगल इसी के दम पर है।जिसके लिए खास शिक्षा और दक्षता की जरुरत होती नहीं है।शोध या ज्ञान की तो कतई नहीं।इसलिए मुक्त बाजार में शोध,शिक्षा और ज्ञान हाशिये पर हैं।यह सभ्यता का संकट है क्योंकि अज्ञानता और वर्चस्व कायम हो गया है।इसीलिए शिक्षा और ज्ञान के केंद्रों,संस्थानों,विश्वविद्यालयों पर हमले हो रहे हैं।रोहित वेमुला से लेकर नजीब तक का कुल किस्सा यही है।

हम अपने ही सबसे काबिल बच्चों को राष्ट्रद्रोही बनाकर मुठभेड़ में मारने लगे हैं।कदम दर कदम महाभारत है।चप्पे चप्पे में चक्रव्यूह है।चीरहरण है।शंबूक वध है।सर्वव्यापी सर्वत्र नस्ली नरसंहार है।नोटबंदी कार्यक्रम इसी का सिलसिला है।

भारत ने जिस ब्राह्मण धर्म के हिंदुत्व को करीब ढाई हजार साल पहले खारिज कर दिया था तथागत गौतम बुद्ध के नेतृत्व में,उसका पुनरूत्थान हिंदुत्व के अवतार में जो हो गया है,उसकी सबसे बड़ी वजह यह अज्ञानता का अंधकार है।

मुक्त बाजार की चकाचौंध में हम मध्ययुगीन बर्बर असभ्यता के दस दिगंत अमावस्या को महसूस तक नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि तकनीकी क्रांति हर मुश्किल आसान है,हर हाथ में मोबाइल है,थ्रीजी पोर जी फाइव जी जिओ जिओ है और इसी की परिणति यह डिजिटल कैशलैस इंडिया है।

हमें अपने गांवों,जनपदों की कोई परवाह नहीं है।मेहनतकशों की बुनियादी जरुरतों और बुनियादी सेवाओं की परवाह नहीं है।शहरी झुग्गी झोपड़ियों के बंद चूल्हों की परवाह नहीं है।मारे जाते बहुजनों की परवाह नहीं है।खुदकशी चुन रहे किसानों की परवाह नहीं है और अब बेमौत मौत के कगार पर खुदरा बाजार के छोटे और मंझौले कारोबारियों की भी परवाह नहीं है।

जिस मनुस्मृति शासन के शिकंजे को अचारवीं उन्नीसवीेें सदी के सुधार आंदोलनों और उससे भी पहले भक्ति,संत सूफी बाउल फकीर आंदोलनों,किसान आदिवासी जनविद्रोहों के जरिये तोड़ दिया गया था,आज वही मनुस्मृति अनुशासन मुक्तबाजार का लोकतंत्र है और भारत राष्ट्र और भारत के संविधान की रोज रोज हत्या हो रही है राष्ट्रवाद और देशभक्ति के नाम पर,विकास के नाम पर,कारोबार के नाम पर।

हिमालय भारत का प्राण है।

आरण्यक सभ्यता के उत्तराधिकारी मुक्तबाजार के उपभोक्ता नागरिकों को जल जंगल जमीन से कृषिजीवी मनुष्यों की अंतहीन बेदखली को लेकर कोई तकलीफ नहीं है।राष्ट्र के सैन्यीकरण और जल जंगल जमीन के हकहकूक का सैनिक दमन के अनंत सलवा जुड़ुम से भी उन्हें कोई तकलीफ नहीं है।खेत खलिहानों से लेकर पहाड़ों में बसे चाय बागानों में जारी मृत्यु जुलूसों की भी किसी को कोई परवाह नहीं है।

हिमालय क्षेत्र में और बाकी देश में जंगल की जो अवैध कटान पिछले दशकों की विकास यात्रा रही है,उसकी भी किसी को कोई खास परवाह नहीं थी।

खेती के साथ साथ हरियाली का संकट जो देश को उसके हिमालय के सात मरुस्थल बना रहा है,किसानों की थोक आत्महत्या के महोत्सव में हमें इसकी कोई खबर नहीं है।

देश का चप्पा चप्पा अब परमाणु भट्टी है और सारे के सारे समुद्रतट रेडियोएक्टिव है,हमें इसकी भी कोई  खास परवाह नहीं है।

रोजगार सृजन तो हो ही नहीं रहा है।

मुक्तबाजार का धीमा जहर आहिस्ते आहिस्ते रोजगार और आजीविका के साथ साथ नागरिकता और आजीविका को खत्म कर रहा है,इसका अहसास नहीं हो रहा है तो हम ऐसा कैसे मान सकते हैं कि अशिक्षित और अदक्ष लोगों को बिना किसी तकनीकी ज्ञान या सूचना के कृषि से रोजगार नैसर्गिक तरीके से मिल सकती है क्योंकि हमने न सिर्फ कषि और कृषि जीवी बहुजनों के कत्लेाम को विकास का पैमाना मान लिया है,बल्कि कृषि आदारित संस्कृति और उत्पादन प्रणाली,परिवार और समाज,जनपदों का सफाया भी कर दिया है।

हम न कृषि संकट पर कायदे से संवाद कर सके हैं और न पर्यावरण संकट पर और हम सबने मुक्तबाजार के आगे निःशस्त्र आत्मसमर्पण कर दिया है।

जाहिर है कि हम अनुपम मिश्र को मुक्त बाजार की आईकन स्टार संस्कृति में कोई अहमियत नहीं देते।हम शुरु से यह लिखते रहे हैं कि सामाजिक कार्यकर्ता को पर्यावरण कार्यकर्ता भी होना चाहिए।

पर्यावरण चेतना के बिना न धर्म कर्म संभव है और न कोई उत्पादन या सृजन संभव है।हम शुरु से यह कहते लिखते रहे हैं कि जाति व्यवस्था के मूल में रंगभेदी वर्चस्व है और सिर्फ मनुष्य ही अछूत नहीं होते,जनपद भी अछूत होते हैं।

हमारे नजरिये से मध्य भारत,दक्षिण भारत,पूर्वोत्तर भारत और हिमालयी क्षेत्र की आम जनता दिल्ली की तानाशाही और रंगभेदी नरसंहार के चांदमारी इलाके हैं और इन क्षेत्रों की आम जनता भौगोलिक अस्पृश्यता के शिकार हैं।हिमाचल या उत्तराखंड के लोग खुद को सवर्ण और देव देवी कहते अघाते नहीं हैं,लेकिन हकीकत की जमीन पर वे तमाम लोग अछूत ही हैं।

हम मुक्तबाजार का प्रतिरोध नहीं कर सके तो इसकी खास वजह है कि नस्ली रंगभेदी राजनीति से हमें इस प्रतिरोध के नेतृत्व की उम्मीद रही है और यह नस्ली रंगभेदी राजनीति दरअसल रियासतों,जमींदारियों का आम प्रजाजनों पर एकाधिकार वर्चस्व है और मुकम्माल मनुस्मृति अनुशालन भी यही है।

इन तमाम लोगों को प्रकृति और कृषि से जुड़े समुदायों से नस्ली शत्रुता है।ये तमाम लोग मनुष्यता,सभ्यता और प्रकृति से नस्ली शत्रुता है।

आज भी हम अर्थव्यवस्था के अभूतपूर्व संकट के दौरान राजनीतिक पहल की उम्मीद कर रहे हैं,जिनके लिए कालाधन माफ हैं और हम तमाम लोग कतार में मौत का इंतजार कर रहे हैं।

क्योंकि हम अर्थव्यवस्था की बुनियाद कृषि को मानने से जैसे इंकार कर रहे हैं,वैसे ही उत्पादक समुदायों और मेहनतकशों के हक हकूक और उनके जीवन आजीविका के बारे में हमारी कोई चिंता नहीं है।

प्रकृति और पर्यावरण की जड़ों से पूरी तरह अलगाव की निराधार जमीन पर खड़े हम लोग दरअसल अपने पुरखों की तुलना में कहीं ज्यादा अज्ञानी हैं और आधुनिकता की पागल दौड़ में हम लगातार ब्लैकहोल की गिरफ्त में कैद होते जा रहे हैं,दसदिगंत अमावस्या में बी हमें सुनहले दिनों की रोशनी नजर आती है।

अनुपम मिश्र नहीं रहे।

हम नहीं जानते हम उन्हें किस रुप में याद करेंगे।

भारत में पर्यावरण आंदोलन के भीष्म पितामह सुंदरलाल बहुगुणा अभी कंटकशय्या पर हैं और पूरा देश अभी महाभारत है।

उत्तर भारत के तीन छोटे से कस्बे अयोध्या,हस्तिनापुर और कुरुक्षेत्र का हजारों साल पुराना अतीत अब मुक्त बाजार में हमारा वर्तमान और भविष्य है।



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