BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Thursday, May 19, 2016

हाथ के तोते उड़ गये,अब हम क्या करें? हाथ खड़े कर दें और राजनीतिक विकल्प का अवसान तो फासिस्ट निरंकुश सत्ता से नत्थी होकर बजरंगी बन जाये? या फिर तमाम माध्यमों और विधाओं और भाषाओं को जिंदा करके इंसानियत के लिए इस कुरुक्षेत्र में हर चक्रव्यूह,तिलिस्म,तंत्र मंत्र यंत्र को तोड़कर जनता के हक हकूक के लिए,बदलाव के लिए लड़े? उनका मोर्चा जनता का मोर्चा नहीं है। राजनीति अब जनता के खिलाफ लामबंद है। हमाारे पास राजनीतिक कोई विकल्प नहीं है। जनपक्षधरता का मोर्चा अनिवार्य है अब। सत्ता की मलाई चाटने वालों को रहने दें अपने हाथीदांत मीनारों में,अब सड़क पर उतरे बिना,समाज और देश को जोड़े बिना कोई और विकल्प बिना शर्त आत्मसमर्पण का, या शुतुरमुर्ग की तरह गरदन रेत में छुपाने का नहीं है। इसीलिए हम बार बार माध्यमों,भाषाओं और विधाओं के मोर्चे पर लड़ने की बात कर रहे हैं क्योंकि जनादेश किसी न किसी राजनीतिक पक्ष का होगा और सत्ता का चेहरा बदलेगा,विध्वंसक सैन्यराष्ट्र का चरित्र जस का तस। मुक्तबाजारी धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के रंग बिरंगे सिपाहसालारों के खेमे तोड़कर सड़क पर जनता के साथ खड़े होने की चुनौती अब है। अब सिंहा


हाथ के तोते उड़ गये,अब हम क्या करें?

हाथ खड़े कर दें और राजनीतिक विकल्प का अवसान तो फासिस्ट निरंकुश सत्ता से नत्थी होकर बजरंगी बन जाये?

या फिर तमाम माध्यमों और विधाओं और भाषाओं को जिंदा करके इंसानियत के लिए इस कुरुक्षेत्र में हर चक्रव्यूह,तिलिस्म,तंत्र मंत्र यंत्र को तोड़कर जनता के हक हकूक के लिए,बदलाव के लिए लड़े?

उनका मोर्चा जनता का मोर्चा नहीं है।

राजनीति अब जनता के खिलाफ लामबंद है।

हमाारे पास राजनीतिक कोई विकल्प नहीं है।


जनपक्षधरता का मोर्चा अनिवार्य है अब।


सत्ता की मलाई चाटने वालों को रहने दें अपने हाथीदांत मीनारों में,अब सड़क पर उतरे बिना,समाज और देश को जोड़े बिना कोई और विकल्प बिना शर्त आत्मसमर्पण का, या शुतुरमुर्ग  की तरह गरदन रेत में छुपाने का नहीं है।


इसीलिए हम बार बार माध्यमों,भाषाओं और विधाओं के मोर्चे पर लड़ने की बात कर रहे हैं क्योंकि जनादेश किसी न किसी राजनीतिक पक्ष का होगा और सत्ता का चेहरा बदलेगा,विध्वंसक सैन्यराष्ट्र का चरित्र जस का तस।


मुक्तबाजारी धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के रंग बिरंगे सिपाहसालारों के खेमे तोड़कर सड़क पर जनता के साथ खड़े होने की चुनौती अब है।


अब सिंहासन के आलोकस्तंभों से उम्मीद कोई न रखें अब।

निर्णायक युद्ध अभी बाकी है।



पलाश विश्वास


जब तक मेरा यह लहूलुहान रोजनामचा कहीं न कहीं आपको पढ़ने के लिए मिलेगा,तब तक पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के जनादेश की तस्वीर पूरी तरह खिल चुकी होगी और उस जनादेश का चेहरा खिलखिलाता हुआ कमल होगा।


बंगाल में जो अभूतपूर्व सुरक्षा इंतजामात हुए और निर्वाचन आयोग ने जो चौकसी की,उसके तहत निष्पक्ष और स्वतंत्र मताधिकार का परिणाम यह जनादेश है तो दीदी की जय जयकार जितनी होगी,उससे कहीं अधिक नागपुर में मार्गदर्शक मंडल खिलखिला रहा होगा क्योंकि धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र,संविधान,नागरिक अधिकार मानवाधिकार जल जंगल जमीन और नागरिकता,समता और न्याय समग्र का दांव मैदान बाहर कांग्रेस पर लगाकर वामपंथ ने फिर बंगाल लाइन की जिद पर ऐतिहासिक भूल कर दी।


केरल की जीत से पूर्व और पूर्वोत्तर के अबाध अश्वमेधी राजसूय का पर्यावरण कुल मिलाकर भारत से अमेरिका तक डोनाल्ड ट्रंप की विजय गाथा का महाकाव्य है और मुक्तबाजार के धर्मोन्मादी राजकरण के मुकाबले हमने मुक्तबाजार के घोड़ों पर ही जान की बाजी लगा दी,ऐसा साबित हुआ।


राजनीतिक विकल्प का अवसान हो गया है और संसद से सड़क तक सन्नाटा पसरा है।

चारों तरफ अंधियारा कटकटेला कारोबार है।

फासिज्म का राजधर्म जाजकाज और जनादेश एकाकार हैं।


हमने जनतंत्र का अपने अंधे धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के मुखातिब पाखंडी आत्मघाती वामपंथ और जनसंहारी कांग्रेस के भरोसे जो हाल किया है,यह मौका आइने में अपनी जनप्रतिबद्धता का चेहरा देखने का है।


प्रकृति और पर्यावरण के सत्यानाश, दस दिगंत महाविनाश,बदलते मौसम,सूखा और भुखमरी,बेरोजगारी और सती दहन के इस महादेश का रंग अब केसरिया है और गिरगिट की तरह जो जी सकते हैं,सत्ता से नत्थी हो जाने की दक्षता जिनकी है,उनके सिवाय संशय की इस अनंत रात की कोई सुबह फिर नहीं है।


हाथ के तोते उड़ गये,अब हम क्या करें?

हाथ खड़े कर दें और राजनीतिक विकल्प का अवसान तो फासिस्ट निरंकुश सत्ता से नत्थी होकर बजरंगी बन जाये?


या फिर तमाम माध्यमों और विधाओं और भाषाओं के जिंदा करके इंसानियत के लिए इस कुरुक्षेत्र में हर चक्रव्यूह,तिलिस्म,तंत्र मंत्र यंत्र को तोड़कर जनता के हक हकूक के लिए,बदलाव के लिए लड़े?


किसान का बेटा हूं और नैनीताल में छात्रावस्था में मिट्टी के साथ जो वास्ता रहा है,प्रकृति के साथ जो तादात्म्य रहा है,पर्यावरण जो वजूद रहा है,वह अतीत के रोमांस के सिवाय कुछ भी नहीं है।


निर्मम वर्तमान अखंड कुरुक्षेत्र है और वही मेरा  देश है और सरहदों के आर पार इंसानियत का मुल्क लापता है।

जो भी बचा वह एक अनंत युद्ध है या फिर गृहयुद्ध है।


मित्रपक्ष अमावस्या का निश्छिद्र अंधकार है और सर्वव्यापी सर्वशक्तिमान सर्वत्र शत्रुपक्ष का ईश्वर भाग्यविधाता है।

हाथ में किसी का हाथ नहीं है।


न घर है और न गांव है।

न पहाड़ है और न नदियां और घाटियां हैं।

मैदान भी नहीं हैं।खेत खलिहान कुछ भी नहीं हैं।


कल कारखाने चायबागान तक नहीं हैं।

जंगल और समुंदर भी बचे नहीं हैं।

धुआं धुआं आसमान है और जमीन दहकने लगी है।


दसों दिशाओं से सीमेंट के जंगल के रेडियोएक्टिव दावानल से घिरा हुआ सही सलामत हूं लेकिन अकेला हूं।रक्षाकवच कोई नहीं है।


अपने खेत पर खेत रहता तो इतना अकेला न होता।

कीचड़ पानी में धंसे हुए आसमान से गिरी बिजली से खाक होता तो भी इतना झुलस न रहा होता।


हिमालय के उत्तुंग शिखरों में कहीं बर्फीली तूफान में खप गया होता या लू से मैदान में मर गया होता तो इस संकटकाल में इतना भी अकेला न होता,जितना आज हूं कि सारे माध्यम और सारी विधाएं,सारी भाषाएं,लोकसंस्कृति और इतिहास बेदखल हैं और लोकतंत्र मुक्त बाजार है तो धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद और एकाधिकावादी अबाध पूंजी के हित एकाकार है और जनादेश में मताधिकार का परिणाम फिर निरंकुश फासीवाद है।


अस्मिता के आधार प्रतिरोध निराधार है।

विचारधारा को तिलांजलि अब वामपंथ है।


जनता के हकहकूक के खिलाफ जो ताकतें हैं,उन्हीं के साथ जनता की आस्था जो जीतने चले थे,उनके रेत के किले ढह भी गये तो शोक कैसा।ढाई दशकों से सर्वहारा का नरसंहार जो देख ही नहीं रहे, नरसंहारी राजसूय के जो स्वयं पुरोहित हैं और नेतृत्व पर अपना वर्चस्व छोड़े बिना जो राष्ट्र का चरित्र जस का तस रखकर सत्ता की भागेदारी की जंग में अशवमेधी घोड़ों की पूंछ बनकर हिनहिनाते रहे,मैदान में उनके खेत रहने पर शोक का विधवा विलाप कैसा।


उनके पास सिर्फ मिथ्या शब्दबंंध हैं जो जनता के बीच जाये बिना, जनता के हकहकूक की लड़ाई लड़े बिना सिर्फ सत्ता चाहते हैं और सत्ता के साथ सुविधाजनक तौर पर रोज रोज जो विचारधारा की नई व्याख्याएं करते हैं,फासिज्म के खिलाफ वे कभी लामबमद थे ही नहीं।जो हारे हैं,वे वर्णवादी वर्चस्ववादी हैं।शोक कैसा।


हाथ के तोते उड़ गये,अब हम क्या करें?

हाथ खड़े कर दें और राजनीतिक विकल्प का अवसान तो फासिस्ट निरंकुश सत्ता से नत्थी होकर बजरंगी बन जाये?

या फिर तमाम माध्यमों और विधाओं और भाषाओं के जिंदा करके इंसानियत के लिए इस कुरुक्षेत्र में हर चक्रव्यूह,तिलिस्म,तंत्र मंत्र यंत्र को तोड़कर जनता के हक हकूक के लिए,बदलाव के लिए लड़े?


वे जीत भी रहे होते तो उनकी जीत आखिर फासीवाद की जीत होती क्योंकि इस लोकतंत्र में कानून का राज,जनसुनवाई और संविधान को ताक पर ऱखकर हर कायदा कानून बनाने बिगाड़ने की संसदीय सहमति के शेयर बाजार में उनके भी दांव हैं और कारपोरेट चंदे से उनकी भी राजनीति चलती है।


उनका मोर्चा जनता का मोर्चा नहीं है।

राजनीति अब जनता के खिलाफ लामबंद है।

हमाारे पास राजनीतिक कोई विकल्प नहीं है।


जनपक्षधरता का मोर्चा अनिवार्य है अब।


सत्ता की मलाई चाटने वालों को रहने दें अपने हाथीदांत मीनारों में,अब सड़क पर उतरे बिना,समाज और देश को जोड़े बिना कोई और विकल्प बिना शर्त आत्मसमर्पण का, या शुतुरमुर्ग  की तरह गरदन रेत में छुपाने का नहीं है।या फिर बजरंगी बना जायें।


इसीलिए हम बार बार माध्यमों,भाषाओं और विधाओं के मोर्चे पर लड़ने की बात कर रहे हैं क्योंकि जनादेश किसी न किसी राजनीतिक पक्ष का होगा और सत्ता का चेहरा बदलेगा,विध्वंसक सैन्यराष्ट्र का चरित्र जस का तस।


मुक्तबाजारी धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के रंग बिरंगे सिपाहसालारों के खेमे तोड़कर सड़क पर जनता के साथ खडे होने की चुनौती अब है।


अब सिंहासन के आलोकस्तंभों से उम्मीद कोई न रखें अब।

निर्णायक युद्ध अभी बाकी है।


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