BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Friday, November 29, 2013

हिमालयी भाषाओं का भविष्य ताराचन्द्र त्रिपाठी


Status Update
By TaraChandra Tripathi
हिमालयी भाषाओं का भविष्य
ताराचन्द्र त्रिपाठी

हिमालय, छोटा-मोटा पर्वत नहीं, पूरी 2400 कि.मी. लंबी और 250 से 300 कि.मी. चौड़ी पर्वत शृंखला। घुंघराले बालों की तरह चार देशों के माथे के काफी बड़े भाग में विस्तीर्ण। वप्रकेशी समाधिस्थ बूढे़ महादेव की मस्तक की गहरी रेखाओं सी हजारों दुर्गम गिरिमालाएँ और घाटियाँ तथा उनमें बसे अनेक मानव वंशियों के सन्निवेश। हिमालय के इन अंचलों में सुदूर अतीत में इन सन्निवेशों को बसाने वाली प्रजातियों के साथ जो भाषाएँ आयीं वे अपने आत्मतुष्ट एकान्त में सैकड़ों वर्षों तक जैसी की तैसी बनी रहीं।

युग बदला। सभ्यता के विकास के साथ देश देशान्तरों से लोगों का आवागमन आरंभ हुआ। आत्मतुष्ट समाजों में हलचल पैदा हुई। रोजगार के लिए दूर.दूर तक लोगों का प्रवास आरंभ हुआ। शिक्षा का प्रसार हुआ। संचार के अनेक साधन जन सामान्य को सुलभ हुए। बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक और 21 वीं शताब्दी का उषःकाल, दूर.दूर तक इन क्षेत्रों की गिरि कन्दराओं में भी, दूरदर्शन की रंगीनियाँ बिखरने लगा। परिणामतः संस्कृति के अन्य रूपों के साथ ही भाषाओं की यथास्थिति में भी हलचल आरंभ हुई। कहीं रूपान्तरण, कहीं समायोजन और कहीं विलुप्ति सामने आने लगी।

हिमालय विस्तार और विविधता में ही नहीं संसार की लगभग 6500 भाषाओं में से तीन सौ इकत्तीस ज्ञात भाषाओं को अपने में समेटे हुए है। हो सकता है कुछ ऐसी भाषाएँ भी हों जिनका पता अभी तक हमें नहीं है। उत्तरी पनढालों पर यदि चीनी तिब्बती भाषाएँ विराजमान हैं तो उसके दक्षिण में पश्चिम से पूर्व तक आर्य भाषाएँ। बीच-बीच में आस्ट्रो.ऐशियाटिक मौन ख्मेर, द्रविड़ और ताई-कडाई परिवारों की भाषाओं के छींटे भी। पश्चिम की ओर यदि आर्य भाषाओं का बाहुल्य है तो पूर्व की ओर चीनी तिब्बती भाषाओं का। इनमें 72 आर्य भाषाओं को बोलने वाले लोगों की संख्या लगभग साढ़े चार करोड़ है तो लगभग 1 करोड़ लोग 250 चीनी.तिब्बती भाषाएँ बोलते हैं। आर्य-भाषाओं को बोलने वालों का औसत 6,25000 प्रति भाषा है तो तिब्बती-चीनी भाषाओं को बोलने वालों का औसत 42000 व्यक्ति प्रति भाषा है। 

33 भाषाएँ ऐसी हैं जिनको बोलने वालों की संख्या 1000 हजार से भी कम रह गयी है। इनमें 2001 में नेपाल में मेची अंचल की चीनी-तिब्बती परिवार की लिंखिम भाषा को बोलने वाला तो मात्र एक बूढ़ा व्यक्ति ही शेष रह गया था तो इसी अंचल की, इसी परिवार की साम भाषा और कोशी अंचल की चुकवा भाषा को बोलने वाले क्रमशः केवल 23 व्यक्ति और 100 व्यक्ति रह गये थे। इसी प्रकार 2003 में असम में ताई-कडाई परिवार की खामयांग भाषा को बोलने वाले मात्र 50 व्यक्ति और 40 साल पहले हिमाचल प्रदेश की आर्य-भाषा परिवार की हिदुरी भाषा को बोलने वाले 138 व्यक्ति रह गये थे। यही नहीं चीनी तिब्बती परिवार की दुरा, कुसुन्द, वालिंग ( सभी नेपाल) और ताई-कडाई परिवार की अहोम और तुरुंग भाषाएँ (असम) कब की विलुप्त हो चुकी हैं। कुल मिलाकर हिमालय में 132 भाषाएँ ऐसी हैं जिनको बोलने वाले लोग 10000 से कम है तो 83 भाषाएँ ऐसी हैं जिनको बोलने वालों की संख्या 10000 से 50 हजार के बीच है। भाषा.भाषियों की संख्या की दृष्टि से तो लगता है कि अगले बीस वर्ष में हिमालय में भारतीय आर्य भाषा परिवार की 70 भाषाओं में से 20 भाषायें और चीनी तिब्बती परिवार की 250 भाषाओं में से 180 भाषाएँ विलुप्त हो जायेंगी। 

इसका तात्पर्य यह नहीं है कि अन्य भाषाओं पर, जिनको बोलने वालों की संख्या इससे अधिक है, विलुप्ति का संकट नहीं है। दर असल अविकसित क्षेत्रों की भाषाओं की विलुप्ति में प्राकृतिक आपदायें, रोजगार के लिए पलायन, आदि महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं तो अन्य क्षेत्रों की भाषाओं पर संचार माध्यमों का प्रसार, शिक्षा का माध्यम, अच्छे रोजगार की संभावना वाली भाषा और उस भाषा को बोलने वाले लोगों की सामाजिक आर्थिक स्थिति की भूमिका होती है। कहने का तात्पर्य यह है कि भाषा.भाषियों की अपेक्षकृत कम संख्या होते हुए भी सुदूरस्थ और आर्थिक विकास की दृष्टि से पिछडे़ अंचलों की भाषाएँ, विकसित और बाहरी संपर्क वाले क्षेत्रों के भाषा.भाषियों के अपेक्षाकृत विशाल संख्या वाली भाषाओं की अपेक्षा देर तक जीवित रह सकती हैं। विकसित क्षेत्रों में भाषाओं के बने रहने या उनके प्रचलन से बाहर होने में तो भाषा की स्थिति ( स्टेटस) या उस भाषा से उपलब्ध होने वाले रोजगार के स्तर और सामाजिक धारणा की सबसे बड़ी भूमिका होती है।

इस विचार से यदि हम हिमालयी भाषाओं पर विचार करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि अधिकतर चीनी.तिब्बती परिवार की भाषाएँ दूर.दराज के अंचलों में हैं। संपर्क और बाहरी प्रभाव के अपेक्षाकृत न्यून होने, निवासियों के कृषिऔर पशुपालन पर निर्भर होने और शिक्षा की अविकसित अवस्था के कारण बोलने वालों की संख्या अपेक्षाकृत कम होते हुए भी इनमें से अधिकतर भाषाओं पर विलुप्ति का उतना बड़ा संकट नहीं है जितना कि अपेक्षाकृत विशाल संख्या के होते हुए भी विकसित क्षेत्रों की भाषाओं के विलुप्त होने का संकट है। उदाहरण के लिए गढ़वाली और कुमाउनी भाषाओं को लिया जा सकता है। एक सर्वक्षण के अनुसार इनमें से प्रत्येक भाषा को अपनी मातृभाषा बताने वाले लोगों की संख्या 30 लाख से अधिक है। संभव है वर्तमान में इतने लोग यदा-कदा इन्हें अनौपचारिक रूप से बोलते भी हों। पर रोजगार के लिए बाहर जाने, जन-संपर्क एवं संचार के अपेक्षाकृत बेहतर साधनों, शिक्षा का माध्यम हिन्दी होने, और अपनी भाषा के प्रति हीनता बोध के चलते ये भाषाएँ दूर-दराज के अविकसित अंचलों की ओर सिमट रहीं हैं। नयी पीढ़ी की ओर इन भाषाओं का संक्रमण थम गया है। यदि माता-पिता ने अपने बच्चों से इन भाषाओं में बात करने की ओर अब भी ध्यान नहीं दिया तो अगले 20 वर्ष में इन में से प्रत्येक भाषा को बोलने वालों की वास्तविक संख्या कुछ हजार तक सिमट जायेगी और अगले 10 वर्ष में दोनों ही भाषाएँ इतिहास के पन्नों पर या स्थानीय विश्वविद्यालयों के लोकभाषा.पाठ्यक्रमों में ही शेष रह जायेंगी। यह स्थिति हिमालय क्षेत्र की अधिकतर भाषाओं की है। इनमें बहुत सी तो ऐसी है जिनमे रंचमात्र भी लिखित साहित्य नहीं है। ऐसी भाषाओं के मात्र नाम ही किसी भाषाओं के इतिहास पर लिखे शोधग्रन्थ में शेष रह जायेंगे। 

जब भी वह अभिशप्त दिन आयेगा हमारी भाषायी और सांस्कृतिक विविधता, हमारा अपने क्षेत्र से जुड़े होने का हक भी समाप्त हो जायेगा। हमारी आन्तरिक एकता, एकजुटता और अस्मिता, हमारी वह पहचान न केवल अपने देश में अपितु पूरे विश्व में खो जायेगी जिसके लिए भारत के विभिन्न शहरों में ही नहीं अपितु विश्व के अनेक देशों में बसे हमारे प्रवासी बंधु-बान्धव अपने-अपने समुदायों की एकजुटता के लिए विभिन्न संस्थाओं का गठन कर अपनी पहचान को बनाये रखने और दूर जा कर बसने के बावजूद अपने लोगों को अपनी धरती और संस्कृति से जोड़े रखने का प्रयास कर रहे है। 

अपनी अस्मिता की कीमत हमें अपने घर में नहीं बाहर जाने पर ही मालूम पड़ती है। खास तौर पर तब, जब परदेश में अकेलेपन से पथराये, अपनों के लिए तरसते व्यक्ति को कोई अनजाना सा, अनचीन्हा सा व्यक्ति उसकी बोली में संबोधित कर अपने एक ही माटी का होने का अहसास दिलाता है।

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