BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Tuesday, August 28, 2012

नाजुक मौकों पर नाकाम सियासत रामचन्द्र गुहा, प्रसिद्ध इतिहासकार

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नाजुक मौकों पर नाकाम सियासत
रामचन्द्र गुहा, प्रसिद्ध इतिहासकार
First Published: 24-08-12 09:04 PM
साल 2002 के गुजरात दंगों के बाद राजनेता से समाजसेवी बने नानाजी देशमुख ने विभिन्न संप्रदायों के बीच वैमनस्य को खत्म करने के लिए राजनीति से ऊपर उठकर सहयोग की अपील की थी। नानाजी उस वक्त राज्यसभा के सदस्य थे। उन्होंने सोचा कि अगर प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी व विपक्ष की नेता सोनिया गांधी दंगा पीड़ित क्षेत्रों में जाएं व शांति की अपील करें, तो उससे दोनों संप्रदायों के बीच जहरीला माहौल खत्म हो जाएगा।

नानाजी देशमुख की वह अपील स्वयंस्फूर्त थी, जो उनके दिल से निकली थी। उस वक्त शायद उन्होंने ऐसे उदाहरणों के बारे में नहीं सोचा होगा। लेकिन ऐसी कम से कम तीन घटनाएं मुझे याद आती हैं। अगस्त 1947 में महात्मा गांधी ने बंगाल के प्रधानमंत्री एच एस सुहरावर्दी से कहा था कि वह कोलकाता में सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के लिए दौरे और उपवास में उनके साथ आएं। गांधी और सुहरावर्दी ने कई दिन हैदरी मंजिल में साथ बिताए, जो उत्तरी कोलकाता के बेलियाघाट में स्थित है। प्रायश्चित और शांति के इन उपायों से दंगाइयों को पछतावा हुआ और उन्होंने अपने हथियार समर्पित कर दिए। अपने विरोधी को साथ लेकर गांधीजी ने एक दंगाग्रस्त शहर में शांति स्थापित कर दी।

यह गांधी-सुहरावर्दी प्रयोग काफी जाना-पहचाना है, क्योंकि यह रिचर्ड एटनबरो की मशहूर फिल्म में आया है और विस्तार से इसका वर्णन बहुचर्चित किताब फ्रीडम एट मिडनाइट में किया गया है। दो और ऐसे प्रयोग आज भुला दिए गए हैं, शायद इसलिए कि वे कामयाब नहीं हुए। जब गांधीजी ने भारतीय उपमहाद्वीप के पूर्वी क्षेत्र में दंगों को रोकने में कामयाबी पाई थी, उस वक्त पश्चिमी क्षेत्र में हिंसा जारी थी। सिखों व हिंदुओं को पश्चिमी पंजाब से खदेड़ा जा रहा था या उनका कत्लेआम किया जा रहा था। उतनी ही क्रूरता से पूर्वी पंजाब में मुसलमानों का कत्ल किया जा रहा या उन्हें खदेड़ा जा रहा था।

इस भयानक माहौल में दो मुस्लिम लीग नेताओं- चौधरी खलिकुज्जमां और सुहरावर्दी- ने शांति के लिए एक अपील का मसौदा बनाया। यह अपील महात्मा गांधी और जिन्ना के नाम से जारी होनी थी, जिसमें दोनों देशों से अपने-अपने अल्पसंख्यकों की रक्षा करने का आग्रह किया गया था और वहां के नेताओं से कहा गया था कि वे भड़काऊ बयान न दें।

गांधीजी इस बयान पर दस्तखत करने को तैयार हो गए, लेकिन जिन्ना ने मना कर दिया। दो साल बाद 
1949-50 की सर्दियों में पूर्वी पाकिस्तान में सांप्रदायिक दंगे हो गए। हजारों की तादाद में हिंदू भागकर भारत आने लगे। इससे भारत सरकार पर भार बढ़ गया और पाकिस्तान सरकार के लिए काफी शर्मिदगी हुई। पंजाब की तरह बंगाल में विभाजन के दौरान अल्पसंख्यकों का पूरी तरह सफाया नहीं किया गया था।

यह उम्मीद थी कि पूर्वी पाकिस्तान में हिंदू शांति व सम्मान के साथ रह पाएंगे और पश्चिम बंगाल में मुसलमान। मगर 1949-50 के दंगों ने इन आशाओं पर पानी फेर दिया। स्थिति को सुधारने के लिए तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री लियाकत अली खान को सुझाव दिया कि उन्हें मिलकर दंगा पीड़ित जिलों का दौरा करना चाहिए और हिंसा खत्म करने की अपील करनी चाहिए। नेहरू के सुझाव को लियाकत ने नहीं माना।
किसी इतिहासकार के लिए 2002 में नानाजी देशमुख की अपील इन्हीं कोशिशों की याद दिलाती है, जिनमें से एक कामयाब हुई और दो नाकाम रहीं। मैं नानाजी की अपील को अभी इसलिए याद कर रहा हूं, क्योंकि यह मुझे दूसरी वजहों से मौजूं लगती है। जब मुझे कोकराझार में हिंसा की भयावहता का पता चला, तो मेरी पहली प्रतिक्रिया यह हुई कि प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और विपक्ष के प्रमुख नेता लालकृष्ण आडवाणी को साथ-साथ असम जाना चाहिए। आडवाणी और मनमोहन सिंह, दोनों खुद शरणार्थी हैं, इसलिए दोनों जानते होंगे कि अपना घर और रोजगार छोड़कर जाने का अर्थ क्या होता है।

मैंने अपनी उम्मीद अपने एक मित्र से बताई, जिसने छूटते ही मुझसे कहा कि मैं अगर मूर्ख नहीं, तो नादान जरूर हूं। ये दोनों बहुत बूढ़े और थके हुए हैं। अगर उन्होंने अपने आप को तैयार कर लिया और कोकराझार चले भी गए, तो वहां उन्हें काले झंडों और 'वापस जाओ' के नारों का सामना करना पड़ सकता है। मेरे मित्र गलत नहीं कह रहे थे। जब ये दोनों सज्जन संसद में इस मसले पर बहस में आमने-सामने हुए, तो उसमें एक-दूसरे की विचारधारा और  पार्टी के खिलाफ आलोचना और वाग्बाणों के अलावा कुछ नहीं था। उनका व्यवहार उनके स्वभाव के अनुकूल ही था। जैसा कि आंद्रे बेते ने अपनी नई किताब डेमोक्रेसी ऐंड इट्स इंस्टीटय़ूशंस  में लिखा है कि भारत में इन दिनों सरकार और विपक्ष के बीच गहरा अविश्वास लोकतंत्र की नींव को कमजोर कर रहा है। एक ओर अविश्वास व संदेह है और दूसरी ओर गोपनीयता व बचने की कोशिश।

विपक्ष को एक जिम्मेदार तथा जायज राजनीतिक संस्था बनाने का उद्देश्य ही इससे खत्म हो जाता है। लोकसभा, राज्यसभा और टेलीविजन बहसों में भी यही देखने में आता है कि भारत की दोनों बड़ी पार्टियां कांग्रेस और भाजपा एक-दूसरे से नफरत करती हैं। दोनों ओर से आरोप-प्रत्यारोप चलते रहते हैं। सरकार द्वारा प्रस्तावित कानूनों पर शायद ही गहराई से विचार होता हो। विपक्ष की कोशिश प्रस्तावों को शोर-शराबे में डुबो देने या वाक आउट के जरिये उसे व्यर्थ बना देने की होती है। इस तरह संकीर्ण पार्टी राजनीति को राष्ट्रीय हित पर तरजीह दी जा रही है। इस रवैये की वजह से ठीकठाक आर्थिक व विदेश नीतियां बनाना मुमकिन नहीं रहा है और क्षेत्रों व समुदायों के बीच शांति स्थापित करना और भी ज्यादा मुश्किल हो गया है।

बहरहाल, वर्ष 2002 में अटल बिहारी वाजपेयी और सोनिया गांधी, दोनों ने नानाजी देशमुख की अपील नहीं सुनी थी, यह स्वाभाविक ही था। नानाजी ने दुखी होकर कहा था कि न प्रधानमंत्री, और न विपक्ष की नेता ने गुजरात में दंगे रोकने के लिए कोई पहल की, न वे वहां गए, क्योंकि ये पार्टियां देश के भले के लिए एकजुट नहीं हो सकतीं और न ही वे सामाजिक एकता होने देना चाहती हैं। मुझे नादान कहा जाए या बेवकूफ, लेकिन मुझे अब भी उम्मीद है कि जब भविष्य में कोई ऐसा बड़ा प्रसंग आएगा, तो राजनेताओं की युवा पीढ़ी शायद ज्यादा बड़प्पन, साहस और नि:स्वार्थ रवैया अपनाएगी। अब भी अगर राहुल गांधी भाजपा नेता अरुण जेटली से फोन पर बात करके यह सुझाव दें कि वे डॉक्टरों और दवाओं के साथ कोकराझार मिलकर चलें, तो कुछ हो सकता है। ईश्वर जानता है कि सभी संप्रदायों के बेघर और उजड़े हुए लोगों को इस वक्त राहत, सांत्वना और उम्मीद की कितनी जरूरत है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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